सबसे अधिक निराश तथाकथित पढ़े-लिखे, खाते-पीते वर्ग ने किया है, उसमें भी सवर्णों के एक बड़े हिस्से ने। उसका एक बड़ा भाग पढ़े-लिखे अनपढ़ों का है।उसे हिंदुत्व की विचारधारा, भारत के इतिहास-समाज की संघी समझ कैप्सूल के रूप में उतनी ही आसानी से और सस्ती उपलब्ध है, जैसे कि घर से बाहर निकलते ही पानमसाले का दस रुपये वाला पाउच। एक तो शायद बारह-बारह घंटे की नौकरी और फिर दो घंटे या अधिक की काम की जगह आने-जाने की मशक़्क़त, उसे पढ़ने-लिखने की इच्छा अगर हो भी तो उसका समय नहीं देती। उसे साप्ताहांत में दो दिन का जो अवकाश मिलता है, उसे वह मौज-मज़े से बिताना चाहता है। ख़ूब सोना, ख़ूब पार्टी करना चाहता है। उसे उसकी आर्थिक-सामाजिक समृद्धि और सहूलियतों ने सामान्यतम लोगों की ज़िन्दगी से इतना बेगाना कर दिया है, उनकी तकलीफ़ों से इतना विलग कर दिया है कि उसे अपने अलावा किसी से यानी नीचे के तबकों से कोई मतलब नहीं है या उतना ही मतलब है, जिससे उसका चालू स्वार्थ सधता रहे। उसे राजनीति, लोकतंत्र की चिंता नहीं सताती और जितनी सताती है, उसका इलाज हिंदुत्व के गुटखे के रूप में उपलब्ध है।
नब्बे के दशक के आरंभ में मेरा एक कविता संग्रह आया था- ‘संसार बदल जाएगा’, वह संसार यह संसार नहीं था। उस समय एक युवा अपने देश और दुनिया के लिए बड़े स्वप्न देख सकता था। था तो वह भी निरा स्वप्न ही मगर उस समय की यह ख़ूबी थी कि उसमें ऐसे स्वप्न देखे जा सकते थे। अब तो सपने देखने की हिम्मत युवाओं में भी नहीं होती, अगर वह स्वप्न केवल और केवल अपने बारे में नहीं हैं तो!
संसार को ऐसा भयावह बनाने की ज़िम्मेदारी से हम भी इस रूप में बच नहीं सकते कि हमने इसे ऐसा बनाया नहीं मगर ऐसा बनने से रोकने के पर्याप्त प्रयत्न भी नहीं किए। हिंदीभाषी क्षेत्र के पढ़े-लिखों ने जो भी बौद्धिक पहल की, शोध किए, वे लगभग सब अंग्रेज़ी में हैं। अपने हमभाषियों से एक आत्मीय भाषिक रिश्ता बनाने में हम लेखक-कवि भी सफ़ल नहीं रहे। राजनीतिक दलों का रिश्ता भी लोगों से अपना काम निकालने का रहा। मैं जान-बूझकर सामाजिक-आर्थिक तथा अन्य कारकों के विस्तार में नहीं जा रहा। यह विश्लेषण मुझे काफ़ी हद तक सही लगता है कि आर्थिक उदारीकरण और सांप्रदायिक फ़ासीवाद में घनिष्ठ रिश्ता है, हालांकि भारत में एक की जनक एक बड़ी पार्टी है और दूसरे की जनक उसकी विरोधी पार्टी है, जो आज देश की सबसे बड़ी पार्टी है।
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This is a part of a series of articles from writers who are deeply uneasy about the future of the country. Each of them is an appeal to citizens – discussing what in their view, is at stake in this General Election.