दक्षयणी वेलायुधन का जन्म 1912 में तत्कालीन कोचीन रियासत के तट पर स्थित एक छोटे-से द्वीप बोलघाटी में कृषि दास जाति पुलाया में हुआ था। वह सामाजिक परिवर्तन की संतान थीं। सन 1900 का पहला दशक पूरे केरल में समानता और पहचान के लिए शुरू हुए शुरुआती संघर्षों का गवाह रहा है।
एक समय ऐसा था जब प्रभावशाली जाति के लोग पुलाया समुदाय की महिलाओं को गले से नीचे और कमर से ऊपर के शरीर के अंग को ढकने, अपने बाल काटने, और यहां तक की शिक्षा प्राप्त करने की इजाजत नहीं देते थे, तो दक्षयणी और उनके परिवार ने इन नियमों को मानने से इनकार कर दिया था। उन्होंने शरीर के ऊपरी हिस्से वाले वस्त्र पहने। वह अपने कॉलेज में पहली महिला विद्यार्थी थीं। वह भारतीय संविधान सभा की पहली दलित महिला थीं। उनके भाइयों ने अपने समुदाय में सबसे पहले अपने जटानुमा लंबे बाल काटे और कमीज पहनी। उनका नाम विद्रोह का प्रतीक था, क्योंकि यह पुलाया लोगों द्वारा रखे जाने वाले ठेठ नामों से एकदम अलग था।
दक्षयणी ने सन 1940 में आर. वेलायुधन से विवाह किया। यह विवाह महात्मा गांधी और कस्तूरबा गांधी की उपस्थिति में हुआ और जिसमें एक कुष्ठरोगी ने पुजारी का कार्य किया था।
स्वतंत्र शोधकर्ता, लेखक और महिला अधिकार कार्यकर्ता सहबा हुसैन ने दक्षयणी की बेटी और नीति विश्लेषक (पॉलिसी एनलिस्ट) मीरा वेलायुधन से बातचीत की। इस बातचीत में मीरा अपनी मां को याद करते हुए उन बहुत-सी चीजों पर रोशनी डालती हैं जिनके जरिये उनकी मां ने न केवल अपने समुदाय के इतिहास को बल्कि राष्ट्र को भी आकार दिया। यह बातचीत दो हिस्सों में है।
सहबा हुसैन (एसएच): सबसे पहले दक्षयणी को लेकर आपकी जो स्मृतियां हैं उनसे शुरू करते हैं। एक प्रगतिशील और राजनीतिक रूप से सक्रिय मां के द्वारा किया गया आपका पालन-पोषण कैसा था?
मीरा वेलायुधन (एमवी): मैं अलग-अलग श्रोताओं के साथ दक्षयणी के जीवन को साझा करती रही हूं और उसके बारे में बातें करती रही हूं। इसको लेकर अलग-अलग प्रतिक्रियाएं रही हैं। कुछ लोग उनके जीवन को संविधान और संविधान सभा (सीए) में उनकी सक्रिय भूमिका के दृष्टिकोण से देखते हैं। स्मृति पुनर्विचार की एक प्रक्रिया भी है – यह गतिशील है, गतिहीन नहीं।
एक विशिष्ट संदर्भ होता है जिसमें हम किसी को याद करते हैं। यहां इस संदर्भ का संबंध केरल में दलितों के इतिहास, समाज के हाशिये के वर्गों के इतिहास और वैकल्पिक इतिहासों, जिन्हें दर्ज ही नहीं किया है, से है, विशेष रूप से मेरी मां की भूमिका के सदर्भों में।
मैंने अपने शोध के क्रम में दक्षयणी के जीवन पर आधारित बहुत-सी साम्रगी को खोजा। उदाहरण के लिए, मुझे उनकी ग्रेजुएशन के समय की एक तस्वीर 1930 की मलयालम वूमन्स जर्नल से मिली। मेरी एक स्मृति तो इस बारे में भी है कि मैंने उनके जीवन से जुड़े हिस्सों की किस तरह से खोजबीन की और इसके जरिये मैंने वास्तव में उनके जीवन के उन हिस्सों के बारे में जाना जिनके बारे में मैं पहले नहीं जानती थी। मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज सकारात्मकता और आत्मविश्वास थे जो उनके जीवन के उस दौर का हिस्सा थे। उन्हें इतिहास की बहुत अच्छी समझ थी और मैंने इतिहास के निर्माण में उनकी अपनी स्वयं की भूमिका के बारे में भी जाना। किसी भी चीज से अधिक, वह मेरी मां का न्याय का बोध था जिसने उन्हें रास्ता दिखाया – मेरे माता-पिता, दोनों में न्याय का गहरा बोध था।
बाद के वर्षों में, उनकी (दक्षयणी) मृत्यु से चंद वर्ष पहले, उनके अपने जीवन के बारे में लिखने के लिए मैंने उन्हें एक नोटबुक दी थी।
एसएच: दक्षयणी की मृत्यु से कुछ वर्ष पहले आपकी अपनी स्वयं की राजनीतिक यात्रा भी शुरू हुई थी – आपकी उम्र के दूसरे दशक के उत्तरार्ध में । उस समय के आसपास उनसे जुड़ी हुई आपकी क्या-क्या स्मृतियां हैं?
एमवी: उस वक्त के आसपास, दक्षयणी कुछ आंबेडकरवादी महिलाओं के साथ दिल्ली में अखिल भारतीय दलित महिला सम्मलेन आयोजित करने में व्यस्त थीं। उन्होंने महिला जागृति संगठन के निर्माण में भी प्रमुख भूमिका निभाई। इस संगठन ने सम्मेलन के बाद मुनीरका, दक्षिण दिल्ली, में एक झुग्गी बस्ती में महिला सफाईकर्मियों के साथ काम करना शुरू किया। उस वक्त उनके पास कोई फंड नहीं था, लेकिन उन्होंने जीवन-यापन और प्रौढ़ शिक्षा की कुछ पहलकदमियां लीं। मेरी मां सुबह निकलती थीं और शाम को लौटती थीं। उनके साथ कौशल्या वैसंत्री होती थीं, वह 1940 के दशक में बाबासाहेब आंबेडकर के स्टूडेंट फ्रंट में थीं।
महिलाओं का सम्मेलन अपने आप में बहुत ही दिलचस्प था। मुझे बाबासाहेब के आह्वान ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो’ से मिलता-जुलता एक पर्चा लिखने को कहा गया था। इसका मुझ पर और आयोजन में हिस्सेदारी करने वाली अन्य महिलाओं पर काफी प्रभाव पड़ा। वे सभी अपने विविध इतिहासों के साथ अलग-अलग राज्यों से आए थे और आयोजन में हिस्सेदारी करने वाले उन लोगों के लिए यह एकदम नया-जैसा था। वहां महाराष्ट्र से आने वाली कुमुद पावड़े थीं जो जानी-मानी लेखिका और संस्कृत की विद्वान थीं। ज्योति लांजेवार भी वहां थीं – वह अति-आधुनिक थीं, कवि थीं और दलित पैंथर्स के साथ थीं। उस सम्मेलन में कई ऐसी महिलाएं भी थीं जो पहली बार आई थीं और जिनके साथ कोई भी अपना जुड़ाव महसूस कर सकता था। मेरी मां के जीवन के उन अंतिम वर्षों ने वास्तव में मुझे बहुत प्रभावित किया था। उस सम्मेलन में जो भी आपसी बातचीत और संवाद मैंने सुना वह निश्चित रूप से बहुत ही खुलापन लिए हुए था।
एसएच: उस वक्त में अपने माता-पिता के साथ बिताए जीवन के बारे में हमें कुछ और बताएं।
एमवी: घर पर माहौल राजनीतिक रूप से ऊर्जा से भरा हुआ रहता था। मेरे पिता वाम (लेफ्ट) की तरफ चले गए थे और मेरी मां आईएनसी (इंडियन नेशनल कांग्रेस) के साथ ही थीं। वह गांधीवादी थीं। लेकिन ऑल इंडिया वुमन्स कॉन्फ्रेंस के साथ उनका संवाद बहुत ज्यादा नहीं था, उसे वह अभिजात्य मानती थीं; वह रचनात्मक/ठोस कार्य करना चाहती थीं। मेरी मां बंटवारे के बाद शरणार्थियों के पुनर्वास के कार्य में बहुत ज्यादा सक्रिय थीं। वास्तव में, ऐसे बहुत-से परिवार तब तक हमारे साथ रहे जब तक कि उन्हें रहने का अपना कोई ठिकाना नहीं मिल गया।
एसएच: आपके माता-पिता प्रगतिशील थे और एक समानतावादी रिश्ता साझा करते थे।
एमवी: मेरी मां की खाना बनाने में रुचि नहीं थी। घर पर ज्यादातर खाना मेरे पिता ही बनाते थे, लेकिन मेरी मां ने यह सुनिश्चित किया कि सभी को उचित पोषण वाला आहार मिले। जब मेरी मेन्स्ट्रूएटिंग शुरू हुई तो मेरी मां ने एक कागज पर रेखाचित्र बनाकर मुझे सब कुछ समझाया और मेरे पिता से मेरे लिए सैनिटरी नैपकिन लाने को कहा। बच्चों की शिक्षा को दोनों ही बहुत ही महत्वपूर्ण मानते थे। मुझे यहां यह भी जोड़ना चाहिए कि हमने यह खुलापन केवल अपने परिवार में ही नहीं बल्कि समुदाया में भी देखा।
एसएच: वे प्रोविशनल पार्लियामेंट के भी सदस्य थे। हमें इसके बारे में कुछ बताइए।
एमवी: प्रोविशनल पार्लियामेंट में कुछ महीने रहने के बाद मेरे पिता ने इस्तीफा दे दिया और आईएनसी से वाम की तरफ चले गए। वह 95,000 मतों से विजयी हुए। वह बहुत ही दिलचस्प चुनाव था। जबकि कोल्लम आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र नहीं था, लेकिन वह वहां से दो बार चुनाव जीते। दक्षयणी ने अपना रास्ता स्वयं बनाया था, इसलिए वह बहुत व्यस्त थीं। वह तिब्बती शरणार्थियों और अन्य समुदायों के लोगों के साथ काम कर रही थीं। वह शरणार्थी पुनर्वास कार्यक्रम में बहुत व्यस्थ थीं, जो कि 50 के दशक में कई वर्षों तक चला था। जिस वक्त कनॉट प्लेस और जनपथ का विकास हो रहा था, और शरणार्थियों को दुकानें आवंटित की जा रही थीं, तो उस समय मेरे पिता ट्रेडर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष थे।
मुझे याद है कि एक बार मैं एक दुकान पर गई थी और दुकानदार ने कहा, “ओह! तुम्हारे बाल तो वेलायुधन के जैसे लगते हैं।” ऐसे ही एक और वक्त की बात है, जब मैं जामिया से पीएचडी कर रही थी, तो एक सुरक्षा गार्ड ने मुझसे कहा, “क्या आपको याद नहीं है, मैं आपके घर में रुका था?” मैंने उन्हें नहीं पहचाना था, लेकिन उन्होंने मुझे पहचान लिया था। उनका परिवार हमारे साथ रहा था।
एसएच: भोजन, आश्रय और कपड़े उपलब्ध कराने के मामलों में आपके माता-पिता उन परिवारों की देखभाल का प्रबंध किस प्रकार करते थे?
एमवी: संसद सदस्य के रूप में मेरे माता-पिता को जो कुछ मिलता था उससे वे उनकी मूलभूत जरूरतों को पूरा करने के लिए इस्तेमाल करते थे। उनके पास आउट-हाउस और नौकरों के क्वार्टर थे, जहां वे शरणार्थी परिवारों को रखते थे। बच्चों की देखभाल के लिए केरल से मेरे कई चचेरे भाई आए और मेरी मां उनकी (बच्चों) शिक्षा की देखरेख करती थी।
एसएच: के.आर. नारायणन के बारे में बताएं – जो भारत के राष्ट्रपति बने। वह आपके परिवार से किस तरह से संबंधित थे?
एमवी: मेरे पिता लेबर वेलफेयर पर टिस्स (टीआईएसएस) से स्नातकोत्तर कर रहे थे। वह मीनू मसानी जैसे समादवादियों के संपर्क में थे। मीनू मसानी टाटा फैलोशिप फॉर ओवरसीज स्टडीज का हिस्सा थे। के.आर. नारायणन बंबई आए थे, उन्होंने उनका एलएसई में अध्ययन के लिए चयन किया गया था। बेशक, उस समय तक का उनका अकादमिक रिकॉर्ड शानदार था। इसलिए वह एलएसई जा सकते थे। एलएसई से लौटने के बाद मेरी मां उन्हें जवाहरलाल नेहरू से मिलाने के लिए ले गई थीं और उनके पास हैरोल्ड लास्की और अकादमिक उत्कृष्टता की सिफारिश का पत्र था। इसके बाद नेहरू ने भारतीय विदेश सेवा के लिए उनके साक्षात्कार के लिए एक बोर्ड का गठन किया था।
एसएच: आपने कहा था कि दक्षयणी को केरल छोड़ने का बहुत पछतावा था। वह क्यों था?
एमवी: उस समय में केरल से दिल्ली यात्रा करना बहुत ही कठिन था – उसमें चार दिन लगते थे। एक बार जब मैं छुट्टियों में कॉलेज से दिल्ली आई थी, तो हम केरल गए थे। हम जहां भी गए, मां रो रही थीं। उनके पास वहां की ढेर सारी स्मृतियां थीं। वह मेरे पिता की वजह से दिल्ली में थीं। मुझे लगता है कि मेरी मां केरल वापस आना चाहती थीं। वह ऐसा नहीं कर सकी, क्योंकि दिल्ली में मेरे पिता और उनके (मेरे माता-पिता) इर्दगिर्द सब कुछ व्यवस्थित हो गया था।
एसएच: क्या आपके पिता इस बात से वाकिफ थे कि वह वापस केरल लौटना चाहती थीं?
एमवी: नहीं। मुझे नहीं लगता कि उन्होंने इस बारे में उन्हें कभी बताया था। वे दोनों समाज के अलग-अलग हिस्सों के साथ काम करने में व्यस्त थे।
एसएच: 1978 में जब उनकी मृत्यु हुई, तो उस समय वह दिल्ली में थीं या केरल में?
एमवी: वह दिल्ली में थीं। मैं भी उस समय आरके पुरम में अपने डॉक्टर भाई के घर पर थी। उनकी छाती में संक्रमण (इनफेक्शन) था, वरना तो वह महिला जागृति समिति के साथ अपने काम पर जा रही थीं।
एसएच: अपनी मृत्यु से पहले उन्होंने आपको एक विद्यार्थी के रूप में राजनीतिक रूप से सक्रिय होते हुए देखा और जाति एवं जेंडर पर आपके कार्य को भी देखा होगा। क्या आपकी उस दौर की कोई विशेष याद है?
एमवी: जी हां। वह चाहती थीं कि मेरे पास एक नियमित नौकरी और आय हो। इसको लेकर वह खासी चिंतित थीं और मुझसे कहती थी कि मैं राजनीतिक रूप से सक्रिय हो सकती हूं, लेकिन मेरे पास एक नौकरी अवश्य होनी चाहिए। मैं बहुत निश्चित नहीं थी कि मैं क्या करना चाहती हूं। मैं एक पत्रकार बनना चाहती थी, इसलिए मैंने एक जर्नल (पत्रिका) के साथ काम करना शुरू किया। मैं बैंक की एक परीक्षा में भी बैठी, क्योंकि मेरी मां चाहती थी कि मैं यह करूं। मेरे लिए यह आश्चर्य की बात थी कि मेरा चयन हो गया, लेकिन कुछ समय के बाद मैंने उसे छोड़ दिया, क्योंकि उस नौकरी में मेरी रुचि नहीं थी। मेरी मां सच में निराश हुई थीं।
मुझे यह भी याद आता है कि जब मैं बैंक की नौकरी के लिए एक साक्षात्कार देने के लिए इंडिया इंटरनेशनल सेंटर गई, तो साक्षात्कारकर्ता ने मेरे माता-पिता के बारे में पूछा और मैंने यह उल्लेख नहीं किया कि वे सांसद थे। मैंने केवल इतना ही कहा कि वे सामाजिक कार्यकर्ता हैं। साक्षात्कारकर्ता ने शुरू में कहा कि मैं बहुत आत्मविश्वास से भरी हुई लग रही थी और मैंने उनसे कहा कि हां, मैंने यह अपनी मां से सीखा है कि हमेशा आत्मविश्वास से भरे रहो।
(शेष बातचीत दूसरे और अंतिम भाग में)
कृष्ण सिंह द्वारा हिंदी में अनुवादित। अंग्रेज़ी में यहाँ पढ़ें।