(प्रबल सरन अग्रवाल का यह शोधपरक आलेख 2020 में भगत सिंह की जयंती पर प्रकाशित किया गया था, इसे आज उनकी शहादत पर एक बार फिर से पढ़ना ज़्याादा प्रासंगिक होगा, क्योंकि तीन नये कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ आज दिल्ली की सीमाओं समेत देशभर में पूरे जोरशोर से किसान आंदोलन चल रहा है।)
भगत सिंह के बारे में आमतौर पर यह कहा जाता है कि वे थे तो समाजवादी विचारों के लेकिन उन्होंने कभी किसानों-मजदूरों को संगठित करने का प्रयास नहीं किया। प्रोफेसर बिपन चन्द्र और एस. इरफ़ान हबीब ने इसे भगत सिंह और साथियों की एक बड़ी कमी बताया है। लेकिन जब मैं अपनी पीएचडी थीसिस लिखने के लिए शोध कर रहा था तो कुछ ऐसे चौंकाने वाले तथ्य सामने आये जिनका जिक्र कभी इतिहासकारों ने नहीं किया। ये तथ्य हैं भगत सिंह और किसान नेता मदारी पासी के बीच हुई मुलाकातों के बारे में जिसके ऊपर उनके साथियों शिव वर्मा और जयदेव कपूर ने नयी दिल्ली स्थित तीनमूर्ती भवन में दिए अपने साक्षात्कारों में काफी विस्तार से बताया है।
अवध के किसानों की दुर्दशा
बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में अवध में तालुकेदारी व्यवस्था व्याप्त थी। तालुकेदार पुराने सामंती परिवारों के सदस्य थे जिन्हें नवाबों के ज़माने में कई-कई गावों से राज्य के लिए कर वसूलने का अधिकार मिला था। 1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजों ने इस अतिसंपन्न वर्ग से समझौता कर लिया और ये लोग मनमाने ढंग से किसानों से लगान वसूलने लगे। तालुकेदार या बड़े ज़मींदार ज़मीन पर खुद खेती न करके उसे किसानों को बटाई पर दे देते थे पर ज़मीन पर मालिकाना हक उनका अपना ही रहता था। ज़मीन के बदले वे किसानो से बहुत ऊंचा कर वसूलते थे जिससे अँगरेज़ सरकार के खजाने में भूराजस्व जमा किया जाता था। भूमि-कर के अलावा ये लोग किसानों से जोर-जबरदस्ती हरी, बेगारी (बिना मूल्य दिए श्रम कराना), नज़राना, मुर्दाफरोशी, लड़ाई-चंदा, घोड़ावन और चारावन आदि जैसे मनमाने टैक्स भी वसूलते थे जिससे किसान काफी परेशान रहते थे। किसान खेती करने के लिए खेतिहर मजदूरों का सहारा लेते थे जो अक्सर दलित जातियों से होते थे। वे भी ‘ऊंची’ जात वाले ज़मींदारों और उनके कारिंदों से त्रस्त थे।
प्रथम विश्वयुद्ध के उपरान्त भारत के किसानों की हालत बहुत खराब हो गई। सूखा पड़ने के कारण उनकी फसलें बर्बाद हो गयीं, युद्ध के कारण अनाज और तेल की कमी हो गई और महंगाई बहुत बढ़ गई थी। और तो और स्पेनिश फ्लू की महामारी ने हालात बद से बदतर कर दिए थे। ऐसी विकट परिस्थितियों में ज़मींदारों को कर दे पाना असंभव था लेकिन शोषक वर्ग कहाँ मानने वाला था? उसने किसानों को उनकी ज़मीनों से बेदखल करके उन्हें नीलाम करना शुरू कर दिया। ऐसे में सन् 1920 में बाबा रामचंद्र के नेतृत्व में अवध के किसानों ने ज़मींदारों के अत्याचार के खिलाफ आन्दोलन छेड़ दिया। उन्होंने मांग की कि उनसे केवल वाजिब कर ही वसूला जाए और अतिरिक्त कर मनमाने ढंग से उनपर न थोपे जाएँ। इसी दौरान गांधीजी का असहयोग आन्दोलन भी शुरू हो गया लेकिन कांग्रेस ने खुलकर किसान आन्दोलन को समर्थन नहीं दिया क्योंकि वह देसी ज़मींदारों को नाराज़ नहीं करना चाहती थी। अँगरेज़ सरकार ने बाबा रामचंद्र को गिरफ्तार कर लिया और उनके आन्दोलन को निर्दयतापूर्वक कुचल दिया।
हरदोई से आरम्भ हुआ ‘एका’
इन्हीं दिनों हरदोई जिले के पास एक दलित परिवार में जन्में मदारी पासी ने ‘एका आन्दोलन’ छेड़ दिया। एका का मतलब होता है एकता और मदारी ने तालुकेदारों और ज़मींदारों के खिलाफ किसानों की एकता का नारा बुलंद किया। उनकी मांगें भी बाबा रामचंद्र जैसी ही थीं लेकिन उन्होंने दो कदम आगे बढ़कर स्वदेशी, स्वराज और ब्रिटिश न्याय व्यवस्था की जगह पंचायती न्याय व्यवस्था को स्थापित करना भी अपना लक्ष्य बनाया। मदारी पासी हालांकि जाति से दलित थे लेकिन वे एक संपन्न किसान थे। फिर भी उन्होंने बड़े, मध्यम, गरीब, सीमान्त किसानों तथा खेतिहर मजदूरों, सबको संगठित किया।
प्रसिद्ध क्रांतिकारी शिव वर्मा, जिन्होंने एक स्कूली छात्र के रूप में इस आन्दोलन में हिस्सा लिया था, अपनी अप्रकाशित आत्मकथा में लिखते हैं,
“इस आन्दोलन में किसान आपसी तालमेल के लिए ‘सुपारी’ का इस्तेमाल करते थे। पासी अलग-अलग गाँवों में जनसभाओं और कथाओं का आयोजन करते थे। किसान हज़ारों की संख्या में इन सभाओं में इकट्ठा होते। पासी उनसे कहते कि ये तुम्हारी ज़मीन, तुम्हारी मेहनत है लेकिन फसलें कोई और ले जाता है। वे उन्हें लगान नहीं अदा करने की कसम खिलवाते। वे ये भी प्रतिज्ञा करवाते कि अगर एक किसान भाई की ज़मीन नीलाम हो तो कोई दूसरा किसान भाई उसे न खरीदे। हर सभा में मंच पर गीता और कुरआन दोनों रखी जाती थीं। हिन्दू और मुसलमान किसान एकजुट रहने का प्रण लेते, इसीलिए आन्दोलन का नाम ‘एका’ पड़ा। जल्द ही आन्दोलन हरदोई से सीतापुर, लखनऊ, बहराईच, बाराबंकी, उन्नाव, फतेहपुर और फर्रुखाबाद जिलों में भी फ़ैल गया।”
मदारी पासी ने ज़मींदारों और पटवारियों के सामाजिक बाहिष्कार पर भी जोर दिया। ज़मींदारों के गुंडों और पुलिस ने अपना दमनचक्र चलाया और आन्दोलनकारियों पर तरह-तरह के अत्याचार हुए। सैकड़ों किसान गिरफ्तार कर लिए गए और जल्दी-जल्दी मुक़दमे चलाकर जेलों में भेज दिए गए। उनकी संपत्ति तक जब्त कर ली गयी। प्रांतीय कांग्रेस ने आन्दोलन को ‘हिंसक’ बताते हुए उसका समर्थन करने से मना कर दिया। निराश होकर युवा शिव वर्मा कानपुर के गणेश शंकर विद्यार्थी के पास पहुंचे जिन्होंने किसानों के प्रति अपनी पूरी सहानुभूति व्यक्त की और अपने लोकप्रिय समाचार-पत्र ‘प्रताप’ में पूरे आन्दोलन के बारे में विस्तृत जानकारी देने का वादा किया। लेकिन राजकीय दमन के सामने एका आन्दोलन टिक नहीं पाया और मदारी पासी को भूमिगत होना पड़ा। आखिरकार जून 1922 में वे गिरफ्तार कर लिए गए।
भगत सिंह से भेंट
1926 में मदारी जेल से छूट कर आये। उन्होंने हरदोई क्षेत्र के आसपास के जंगलों में जाना शुरू किया और वनवासियों को संगठित करने का प्रयास किया। इसी बीच शिव वर्मा और उनके प्रिय मित्र जयदेव कपूर ने क्रांतिकारी संगठन ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ (एचआरए) की सदस्यता ले ली थी और वे मदारी से जाके मिले। मदारी ने उन्हें बताया कि वे वनवासियों को एकजुट कर अंग्रेजों के विरुद्ध गुरिल्ला-युद्ध छेड़ने की सोच रहे हैं। जब वर्मा और कपूर ने उन्हें अपने संगठन के बारे में बताया तो मदारी ने उनके नेता से मिलने की इच्छा व्यक्त की।
वर्मा और कपूर सोच में पड़ गए। वे मदारी को कैसे बताते कि उनका संगठन स्कूल-कॉलेज के कुछ युवकों का संगठन है जो देश की आजादी के लिये सर्वस्व न्यौछावर करके अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष कर रहे हैं। इसी दौरान वर्मा ने इस बारे में अपने साथी भगत सिंह को बताया। यह घटनाक्रम उस समय का है जब काकोरी काण्ड के बाद अधिकतर वरिष्ठ क्रांतिकारी गिरफ्तार हो चुके थे और भगत सिंह और उनके साथी दल को पुनर्गठित करने का प्रयास कर रहे रहे थे। उन लोगों ने आपस में सलाह-मशविरा करके मदारी को एक बाग़ में बुलाया। यहाँ पर उन्होंने दूर बैठे एक बलवान व्यक्ति की और इशारा करके उसे अपने दल का नेता बता दिया। मदारी उस व्यक्ति को देखकर बहुत प्रभावित हुए और क्रांतिकारियों की मदद करने को तैयार हो गए।
भगत सिंह, वर्मा और कपूर कुछ दिन मदारी के पास रहे और मदारी ने उन्हें उनके दल के लिए बहुत से हथियार भी दिए। लेकिन क्रांतिकारी उनकी गुरिल्ला सेना का अधिक उपयोग नहीं कर सके क्योंकि आदिवासी किसान जल्द ही कुछ कर गुजरने के लिए उतावले हो रहे थे जिससे एचआरए की गुप्त गतिविधियों का सरकार की नज़रों में आ जाना संभव था। अतः भगत सिंह और साथियों ने मदारी से विदा ली। इस घटना ने इन युवा क्रांतिकारियों के मन पर काफी प्रभाव डाला। वर्मा और कपूर ने सालों बाद दिए गए अपने साक्षात्कारों में इस तथ्य को उजागर किया है।
किसानों-मजदूरों के प्रति भगत सिंह की राय
मदारी पासी के अलावा भगत सिंह पंजाब की किरती-किसान पार्टी एवं गणेश शंकर विद्यार्थी की कानपुर मजदूर सभा के संपर्क में भी थे। किसान-मजदूर वर्ग के प्रति भगत सिंह की गहरी सहानुभूति थी। अराजकतावाद से शुरू करके भगत सिंह और साथी 1928 आते-आते पक्के समाजवादी बन चुके थे। असेंबली में बम फेंकने के बाद भगत सिंह और बी.के. दत्त ने अदालत में निम्न बयान दिया था:
“उत्पादक और श्रमिक समाज के सबसे महत्वपूर्ण अंग हैं लेकिन शोषक वर्ग उनकी मेहनत की गाढ़ी कमाई को भी लूट लेता है और उन्हें उनके मूलभूत अधिकारों से भी महरूम रखता है। किसान, जो सबके लिए अन्न उगाते है खुद परिवार-सहित भूखे मरते हैं, जुलाहे जो दुनिया भर के लिए कपडे बुनते हैं अपने बच्चों के तन नहीं ढक पाते, बढ़ई, लोहार, मिस्त्री जो भव्य महल बनाते हैं खुद झुग्गी-झोपडी में रहने को मजबूर हैं। पूंजीपति और अन्य शोषक वर्ग जोंक की तरह उनका खून चूस-चूस कर एशो-आराम की ज़िन्दगी जी रहे हैं।”
आगे जाकर भगत सिंह ने अंग्रेजों से स्वतंत्रता के अलावा भारतीय क्रान्ति के लिए ऐसे उद्देश्य रेखांकित किये जिनसे आज भी देश में ज़मीनी बदलाव संभव है। फांसी से दो माह पूर्व, 2 फ़रवरी, 1931 को नौजवान राजनैतिक कार्यकर्ताओं के नाम अपने एक पत्र में वे लिखते हैं कि भारतीय क्रान्ति के निम्न लक्ष्य होने चाहिए:
1. ज़मींदारी प्रथा का अंत
2. किसानो के कर्ज़ों की माफ़ी
3. क्रांतिकारी सरकार द्वारा ज़मीन का राष्ट्रीयकरण और धीरे-धीरे उसे सामूहिक खेती की ओर ले जाना
4. सभी को आवास की गारंटी
5. किसानों से लिए जाने वाले हर प्रकार के टैक्स ख़त्म किये जाएँ सिवाय न्यूनतम भूमि-कर के
6. देश का औद्योगीकरण और उद्योगों का राष्ट्रीयकरण
7. सार्वभौमिक शिक्षा
8. काम करने के घंटे कम से कम किये जायें
समाजवाद की राह पर
विशेषकर मदारी पासी और एका आन्दोलन ने भगत सिंह की विचारधारा को कहाँ तक प्रभावित किया ये कहना तो अब मुश्किल है लेकिन भगत सिंह ही वह शख़्स थे जिन्होंने अपने समय में इस बात पर जोर दिया कि क्रान्ति के असली नेता पढ़े-लिखे मध्यमवर्गीय नौजवान नहीं बल्कि गाँव-देहात के गरीब किसान और फैक्ट्रियों में काम करने वाले शोषित मजदूर हैं। इन्हीं के नेतृत्व में समाजवादी क्रान्ति संभव भी है और आवश्यक भी। इस मामले में भगत सिंह रामप्रसाद बिस्मिल के विचारों के अधिक निकट हैं बजाय शचीन्द्रनाथ सान्याल के जो शिक्षित युवा के नेतृत्व पर जोर देते हैं। 2 फ़रवरी वाले ही अपने पत्र में भगत सिंह लिखते हैं, “असल क्रांतिकारी सेनाएं गाँव और कारखानों में हैं, यानी किसान और मजदूर। लेकिन हमारे बुर्जुवा (पूंजीपति) नेता उन्हें कभी संगठित नहीं करेंगे। एक बार ये सोये हुए शेर जाग गए फिर तो ये बुर्जुवा नेताओं के लक्ष्य से भी बहुत आगे निकल जायेंगे… इसमें कोई शक नहीं की आरम्भ में हमें इन वर्गों की आर्थिक मांगों को ही उठाना होगा लेकिन अंत में इन्हें राजनैतिक सत्ता पर कब्ज़ा करने के लिए प्रेरित करना होगा।”
भगत सिंह के साथियों ने भी इस बात को समझा था और आगे चलकर जेलों से छूटने के बाद उनमें से अधिकतर किसान और मजदूर आन्दोलन में कूद पड़े। हरदोई के समीप उन्नाव जिला कई दशकों तक किसान आन्दोलन का गढ़ रहा और यहाँ होने वाली हर राजनैतिक गतिविधि में भगत सिंह के दल के शिवकुमार मिश्र जैसे क्रांतिकारियों ने निर्णायक भूमिका निभाई। अतः यह कहना कि भगत सिंह और उनके साथियों का किसान और मजदूर जनता से कोई संपर्क नहीं था, गलत होगा। सन 1929 में क्रांतिकारियों द्वारा जारी किये गए मशहूर पर्चे ‘बम का दर्शन’ में क्रांतिकारियों ने लिखा भी था,
“क्या गाँधी जी ने इन वर्षों में आम जनता के सामाजिक जीवन में कभी प्रवेश करने का प्रयत्न किया? क्या कभी उन्होंने किसी सन्ध्या को गाँव की किसी चौपाल के अलाव के पास बैठकर किसी किसान के विचार जानने का प्रयत्न किया? क्या किसी कारखाने के मजदूर के साथ एक भी शाम गुजारकर उसके विचार समझने की कोशिश की है? पर हमने यह किया है इसलिए हम दावा करते हैं कि हम आम जनता को जानते हैं।”