मैं 21 साल का हूँ, नाटक करता हूँ। जन नाट्य मंच (जनम) के साथ नाटक करता हूँ। जन नाट्य मंच, जिसके संस्थापकों में से एक शख़्स को सरकारी गुंडों ने मार दिया था। क्यों? क्यूंकि वो नाटक कर रहे थे, सरकार के ख़िलाफ़ और मज़दूरों के लिए। तो जनम के नाटकों पर हमले होना, लोगों का उन नाटकों से असहमति दिखाना कोई नई बात नहीं है। लेकिन नई बात तब होती है, जब नाटकों पर निगरानी रखी जाती है और ये सब काम officially होते हैं। मैं सोचता हूँ, और बारहा सोचता हूँ कि एक आम इंसान हर वक़्त इतना सतर्क हो के जीने को मजबूर क्यों है! घर से निकलने से ले कर, वापस घर में पहुँचने तक, हम बस अपनी सुरक्षा कर रहे हैं! किससे सुरक्षा कर रहे हैं? और क्यों?
इसी सिलसिले में मेरे दिमाग़ में सवाल आता है कि सुरक्षा बलों की इतनी ज़रूरत हमें आखिर क्यों है? हम कैसे आज़ाद हैं कि हमें अगर कहीं सब्ज़ी ख़रीदने भी जाना है, तो ख़ुद की चेकिंग करवानी पड़ती है, कि कहीं हम कुछ ग़लत तो नहीं ले कर जा रहे हैं!
ख़ैर, नाटकों की बात करते हैं। इन्हीं सुरक्षा बलों को नाटकों पर भी निगरानी रखनी होती है, पर क्यों?
रुकिये, बात यहाँ से नहीं शुरू करनी चाहिये। बात शुरू से शुरू करते हैं।
जन नाट्य मंच का एक नाटक है तथागत जिसके 70 से ज़्यादा शोज़ हो चुके हैं। नाटक को लिखा और निर्देशित किया है अभिषेक मजूमदार ने। मैंने इसके मुताल्लिक़ पहले भी लिखा है, कि नाटक चालाक है!
तो इस चालाक नाटक के पिछले दिनों मुम्बई में शोज़ थे। हम लोग दिल्ली से 8 अगस्त को मुम्बई गए, और वहाँ कुल 8 शोज़ किये। उस अनुभव के बारे में थोड़ी सी बात करते हैं।
मैं बहुत ख़ुशी के साथ ये कह रहा हूँ कि शोज़ बेहद अच्छे हुए। तथागत दलित उत्पीड़न और राज्य-राष्ट्र की बहस आपके सामने रखता है। नाटक में वक़्त सातवीं सदी का दिखाया गया है, लेकिन ये ज़ाहिर तौर पर मौजूदा सरकार पर एक तंज़ है।
तथागत के सात शोज़ कुछ इलाक़ों में, और कुछ कॉलेज में हुए। जिस दौरान हम वहाँ थे, उसी दौरान दलित लेखक अण्णाभाऊ साठे का शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा था। और जहाँ हम गए, हर जगह हमें बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर की तस्वीर या मूर्ति के सामने नाटक का मंचन करने का मौक़ा मिला। लग रहा था कि कोई ख़्वाब है। यूँ लग रहा था कि जिसके लिए नाटक बना था, वहाँ सीधे पहुँच रहा है। लोगों को नाटक पसंद आया, और नाटकों के बाद कई बातें भी हुईं।
हमारे ट्रिप का आख़िरी दिन था मुम्बई में। और आख़िरी शो था हरकत स्टूडियो, वर्सोवा में। हम एक जगह से नाटक कर के शाम को वर्सोवा के हरकत स्टूडियो पहुँचे। यक़ीन मानिये, ये कोई आम शो नहीं था। हमारे वहाँ पहुँचने के कुछ ही देर बाद नीचे 2 लोग आए और पूछने लगे कि यहाँ क्या हो रहा है। जन नाट्य मंच से सुधन्वा ने उनसे बात की तो मालूम चला कि वो लोग पुलिसवाले थे। पुलिसवाले, जनम के शो की पूछताछ करने आए थे, वो भी मुम्बई में। उन दोनों ने बताया कि उनसे कहा गया था कि वो यहाँ आएं और पता करें। हरकत स्टूडियो के लोगों ने हमें बताया कि उसी दिन वे लोग दो बार और आ चुके थे। ख़ैर, नाटक होना था सो नाटक हुआ। लेकिन नाटक के पूरे 40 मिनट के दौरान, वो दोनों पुलिसवाले वहीं खड़े रहे, बैठे तक नहीं। पूरा नाटक देखा, और चले गए। दोनों में से किसी ने कुछ कहा नहीं, कुछ हुआ भी नहीं। कोई घटना नहीं हुई, किसी को परेशान नहीं किया गया, बस वो लोग आए थे क्योंकि उन्हें ऊपर से आदेश आये थे।
लेकिन ये क्यों हुआ? पुलिस एक नाटक तक पे नज़र रखने के लिए क्यों आ जाती है? ये सारे सवाल हैं जो लगातार मेरे मन में आते हैं! एक नाटक से, जिसे महज़ 50 लोग देख रहे हैं, किसी को दिक़्क़त क्यों है?
इसका जवाब ढूंढा जाए तो एक और घटना सामने आती है, जो 14-15 अगस्त को पुणे में हुई। एक ग्रुप आया था, जिसने एक नाटक ‘रविदास रोमियो, देवी जूलिएट’ खेला था और किसी होटल में रुका था। पुलिस की एक टीम आई और उनके एक सदस्य यश ख़ान के बारे में पूछताछ करने लगी। ग्रुप का एक-एक सामान खोल कर देखा। यहाँ पर भी, पुलिस ने कुछ किया नहीं। और पूछने पर ये कहा कि उन्हें जानकारी मिली थी यश ख़ान किसी आतंकवादी संगठन से जुड़े हैं।
ये दोनों घटनाएँ ऐसी हैं कि एकदम आम लगती हैं, क्योंकि इन्हें आम बना दिया गया है। सरकारों ने और बड़ी ताक़तों ने, आम जनता को, कलाकारों को इस बात की आदत डलवा दी है और हम सब इस बात को मान बैठे हैं कि कोई है जो निगरानी कर रहा है, “सुरक्षा” के नाम पर। किसकी सुरक्षा? कैसी सुरक्षा? एक नाटक से किसी को क्या ख़तरा हो सकता है? क्या सुरक्षा ही के नाम पर किसी को ऐसे आराम से डरा-धमका देना सही है? मैं ढेर सारे सवाल पूछ रहा हूँ, लेकिन इसके अलावा और क्या किया जाए? ये सारी बातें ऐसी हैं, जो हास्यास्पद लगती हैं, लेकिन ये आम हो चुकी हैं।
कुछ ही वक़्त पहले दिल्ली के Leftword Books ने एक किताब छापी RSS जिसे A.G. Noorani ने लिखा है। जिस दिन उस किताब का विमोचन था, leftword books के सम्पादक सुधन्वा को पुलिस का फ़ोन आया और बहुत आराम से उनसे कहा गया कि आप ये किताब का लॉन्च मत कीजिये। जब सुधन्वा ने वजह पूछी, तो उनका कहना था, “आप समझ रहे हैं ना, RSS का नाम है…” जब सुधन्वा ने कहा कि उनके पास अनुमति है और किताब का लॉन्च होगा, तो पुलिस अधिकारी ने फ़ोन रख दिया।
सुधन्वा ने इसे ‘harassment’ का नाम दिया। शोषण, प्यार भरे लहज़े में। पुलिस की इस निगरानी का एक पैटर्न है। वो सुरक्षा के नाम पर निगरानी करते हैं, सवाल पूछते हैं, आपके काम पर नज़र रखते हैं, और आपको एक छोटी सी घेरेबंदी में रख देते हैं। ये सब सिर्फ़ डराने के लिए किया जाता है। ये पुलिसवाले हिंसक नहीं होते, मुम्बई में या पुणे में आए पुलिसवाले भी नहीं थे; लेकिन वो आपको इस बात का यक़ीन करवा देते हैं, कि वो आप पर नज़र रख रहे हैं।
इन दोनों घटनाओं को ले कर महाराष्ट्र के एक अख़बार में जयंत पवार का लेख छपा है। और मैं इस वक़्त फिर से ये सोचने को मजबूर हूँ, कि देश-दुनिया की जनता को सुरक्षा बल इस क़दर दबा के क्यों रखती हैं? किसी नाटक से, किसी कविता से, किसी किताब से उनको क्या परेशानी है? क्या ये परेशानी उनको है, या किसी और को? जो “ऊपर” से आदेश आते हैं, उसमें “ऊपर” कौन बैठा है? कौन है जो आदेश दे रहा है कि नज़र रखी जाए? कौन कह रहा है कि आवाम को डरा के रखा जाए?
मैं वापस उसी बात पर आ रहा हूँ और इस बात पर ज़ोर देना चाहता हूँ, कि हर काम में, हर क्षेत्र में, हर जगह पर सुरक्षा बलों का दख़ल, सरकार और हुक्मरान की उस सोच का नतीजा है, जो ख़ुद को जनता का सेवक तो कहती है, लेकिन उसी आवाम को वो अपना ग़ुलाम बना कर रखना चाहती है।