मिज़ाजन वह बहुत ख़ामोश सा था
मगर आँखों से अच्छा बोलता था
-शारिक़ कैफ़ी
तिग्मांशु धूलिया की एक फ़िल्म है ‘हासिल’। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी की कॉलेज पॉलिटिक्स पर बेस्ड है। उस फ़िल्म में एक छात्र नेता है रणविजय सिंह। फ़िल्म के शुरूआती 15 मिनट में एक सीन है, जिसमें रणविजय को विपक्षी पार्टी के गुंडों ने पकड़ा हुआ है। रणविजय कहता है, ‘पंडित तुमसे गोली-वोली ना चल्लई, मन्तर फूंक के ही माद्देयो साले!’ रणविजय के किरदार में हैं अभिनेता इरफ़ान ख़ान।
एक फ़िल्म है मक़बूल, जिसमें शहर के बड़े गुंडे अब्बाजी का सबसे बड़ा बाहुबली है मियां मक़बूल। मक़बूल, जो शहर का सबसे ख़तरनाक लेकिन शालीन गुंडा है। वो अब्बाजी की बीवी से इश्क़ करता है, बीवी जो अब्बाजी से काफ़ी कम उम्र की है। मक़बूल का किरदार बोलता कम है। वो लोगों को गोली मार सकता है, लेकिन आई लव यू बोलने में उसे शर्म आती है। फ़िल्म इंडस्ट्री का पहला इंट्रोवर्ट गुंडा है मक़बूल। मक़बूल का किरदार इरफ़ान ख़ान ने निभाया है।
गुलज़ार का सीरियल किरदार, अली सरदार जाफ़री का कहकशां, कॉलेज के गुंडे से लेकर एक ग़रीब बाप तक का किरदार निभा चुके इरफ़ान ख़ान की मौत हो गई है।
इरफ़ान ख़ान को मैं ‘उन्हें’ कह कर संबोधित नहीं कर सकता। वजह यह है कि हमेशा से ऐसा लगा है कि उस इंसान से कुछ पुराना है, उसके किरदार, उसकी शख़्सियत दिल के क़रीब, बहुत क़रीब लगती है। तो यह शायद कोई श्रद्धांजलि नहीं है, यह एक मर्सिया है जो मैं हिंदुस्तान के एक सबसे अच्छे अभिनेता के लिये लिख रहा हूँ।
इरफ़ान ख़ान को 2 साल से एक बीमारी थी जिसका नाम लेना मेरे लिए मुश्किल होता है। मुझे यह भी लगता है कि बीमारी का नाम, या मौत की वजह की बात करना कोई ज़रूरी नहीं होना चाहिए। अहम बात यह है कि कोई चला गया है, हमेशा के लिए।
इरफ़ान का करियर- एक मुकम्मल अभिनेता
इरफ़ान ख़ान का करियर नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा दिल्ली से शुरू हुआ था। थियेटर करने वाले बड़ी आँखों वाले लड़के को फिर सीरियल मिले, जिसमें इरफ़ान ने कुछ बेहद अहम किरदार निभाए।1993 में गुलज़ार का सीरियल ‘किरदार’ जिसके ‘ख़ुदा हाफ़िज़’ , ‘हिसाब-किताब’ जैसे एपिसोड में इरफ़ान ने बेहद अच्छी परफॉरमेंस दी। उसके बाद रोग, हासिल, मक़बूल, नेमसेक जैसी फ़िल्में कीं और अंडररेटेड रहते हुए अपना नाम बनाते रहे। इरफ़ान ने हर तरह के रोल किये, और हर रोल को पूरे मज़े के साथ हम तक लेकर आये। इस इंसान को हर फ़न हासिल था, वो कॉमेडी फ़िल्मों में हद से ज़्यादा मज़ाकिया था, और संजीदा फ़िल्मों में इतना संजीदा कि एक पल के लिए भी किसी को यह न लगे कि एक्टिंग की जा रही है। हाल के बरसों में इरफ़ान ने द लंचबॉक्स, हिंदी मीडियम, मदारी, पीकू, क़रीब क़रीब सिंगल जैसी फ़िल्में की थीं।
इरफ़ान ख़ान कोई एक्स्ट्राआर्डिनरी एक्टर नहीं है। उसके पास स्टारडम जैसी चीज़ें नहीं हैं। उसकी सबसे बड़ी काबिलियत यह है कि वो बेहद आम है। उसके किरदार पर यक़ीन करने में असहजता महसूस नहीं होती। वह हिंदी मीडियम में अपने बेटे के एडमिशन के लिए ठोकरें खाता है तो उससे हमदर्दी होती है। वह मदारी में अपने बेटे को बचाने के लिये क्राइम करता है तो उस पर ग़ुस्सा नहीं आता। वो लंचबॉक्स में चिट्ठियाँ लिखता है तो लगता है इस इंसान को हम रोज़ देखते हैं। इरफ़ान हम में से ही एक है, वो आर्टिस्ट है, एक्टर नहीं, स्टार नहीं। यही वजह है कि इरफ़ान की मौत, किसी परिवार वाले की मौत लग रही है, लग रहा है कोई अपना चला गया है।
आज इरफ़ान की मौत के बाद सोशल मीडिया पर आरआईपी, और संजीदा पोस्ट की भरमार लग गई है। ऐसे वक़्त में दुख हर किसी को होता है, लेकिन मेरा निजी ख़याल यह कहता है कि मरने वाले को भी वक़्त देना चाहिये।
ख़ैर, इस महामारी के दौर में जब हमें हर तरफ़ नकारात्मक चीज़ें होती हुई दिख रही हैं। जब दुनिया ढेरों तकलीफ़ झेल रही है। हर तरफ़ परेशानी, उदासी है। ऐसे में मेरे लिये कुछ सकारात्मक वजहों में से एक वजह यह थी कि जब इस महामारी का दौर ख़त्म होगा, तो इरफ़ान ख़ान की कोई नई फ़िल्म आएगी, एक फिल्म आई भी ‘अंग्रेजी मीडियम’, लेकिन वो कोरोना की भेंट चढ़ गई। अब आगे की ये वजह भी चली गई है और हम सब बेहद अकेले हो गए हैं।
इरफ़ान की मौत ने हम सबको बेहद तन्हा कर दिया है। हम अधूरे हो गए हैं। हमारे पास मानसिक तनाव से बचने का क्या रास्ता है? रास्ता यह है कि इरफ़ान ख़ान को जितना हो सकता है देखें। इरफ़ान के हर किरदार को क़रीब से देखें, और कोशिश करें उन्हें समझने की। क्योंकि इरफ़ान के किरदार को समझने से हमें ज़िन्दगी समझ में आती है।