अनुराग बेहार की पुस्तक अ मैटर ऑफ द हार्ट भारत में प्रमुख शहरों से दूर-दराज के इलाकों में शिक्षा की स्थिति के बारे में है और उन शिक्षकों के लिए एक लंबी कविता की तरह है जो हमारे देश के भविष्य को आकार दे रहे हैं। अनुराग बेहार स्वयं एक अग्रणी शिक्षाविद् हैं और भारत में सामाजिक क्षेत्र के अगुआ हैं तथा अजीम प्रेमजी फाउंडेशन के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) हैं।
निबंधों के अपने संग्रह के माध्यम से लेखक हमें भारत के दूर-दराज के स्कूलों की ओर ले जाते हैं। बेहार हमें वह अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं कि शिक्षा पर हमारा राष्ट्र कहां खड़ा है और, इस नजरिये से देश स्वयं कहां खड़ा है। वह हमें वह भारत दिखाते हैं जो एक बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर का इंतजार कर रहा है और जहां अस्तित्व की आवश्यकता के साथ शिक्षा का अधिकार निरंतर संघर्षरत है। लेकिन जो उभर कर सामने आता है वह दिल को छू लेने वाली और जीवन की आहट की वह कहानी है जो यह बताती है कि भीतर से ऊर्जावान होकर लोग और समुदाय व्यक्तियों और राष्ट्र को किस तरह से बदल रहे हैं।
लेखिका गीता हरिहरन के साथ इस बातचीत में अनुराग बेहार अपनी पुस्तक के बारे में, भारत में सार्वजनिक शिक्षा के बारे में और इसके साथ आने वाली चुनौतियों और अन्य मुद्दों पर प्रकाश डालते हैं।
गीता हरिहरन (जीएच) : भारत में सार्वजनिक शिक्षा के संबंध में व्याकुल कर देनी वाली समस्याओं के बावजूद आपकी पुस्तक उम्मीद की भावना का संचार करती है। क्या हम इस अच्छी खबर से इस बातचीत की शुरुआत करें? आपकी जमीनी रिपोर्टों की समृद्ध श्रृंखला से हम यह जान पाते हैं कि वहां पर स्कूल हैं; ग्रामीण विद्यालय; सरकारी स्कूल। वहां ऐसे शिक्षक हैं जो पठन-पाठन को एक साहसिक कार्य बनाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। वहां सरकारी शिक्षा कार्यक्रम और शिक्षा अधिकारी हैं जो स्कूलों की मदद करते हैं; और समुदाय भी हैं जो इसमें हिस्सेदारी करने के इच्छुक हैं। इस सबसे बढ़कर, बच्चे हैं, जिनमें से अधिकतर बच्चे सीखने के लिए उत्सुक हैं और अक्सर अपने सहज ज्ञान से लगभग आपको और मुझे हैरान करते हैं। क्या आप जमीनी विवरण से अच्छी खबरों – सही ट्रेक – की सीमा का ब्यौरा हमारे साथ साझा करेंगे?
अनुराग बेहार (एबी) : इस पुस्तक के लेख 12 वर्षों का विस्तार लिए हुए हैं, और मेरी उम्मीद बढ़ी ही है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि मुझे बहुत अच्छे लोग मिले और मैं बहुत अच्छा काम तलाशने में सफल रहा हूं, और मैंने अपनी इस तलाश को जारी रखा है।
सार्वजनिक क्षेत्र में और खासतौर पर शिक्षा के क्षेत्र में काम शुरू करने से पहले मैंने कई वर्ष व्यवसाय की दुनिया में गुजारे। मैं बिना किसी लाग-लपेट के कह सकता हूं कि शिक्षकों का एक बड़ा हिस्सा अनुकरणीय समर्पण और अंतर्निहित भावना को दर्शाता है। यह इसलिए भी मार्के की बात है, क्योंकि वे हर वक्त संसाधनों के लिए संघर्ष करते हैं। मुझे लगता है कि ऐसा नहीं है कि बेहतर इंसान शिक्षक बनता है। यह बस इतना है कि एक शिक्षक होना संभवतः आपको एक बेहतर इंसान बनाता है। क्योंकि प्रतिदिन आपके सामने सैकड़ों बच्चों के भविष्य की जिम्मेदारी होती है, इनमें से कई बच्चों को कहीं और से बहुत कम मदद मिलती है।
जीएच : अब अच्छी खबरों की सीमा या पुरानी और नई चुनौतियों के बारे में बात करते हैं। शिक्षकों की संख्या से लेकर शिक्षकों के प्रशिक्षण तक और पाठ्यक्रम से लेकर स्कूल के ‘स्थानीय स्वामित्व’ तक के संबंध में एक लंबी सूची दिमाग में आती है। क्या आप सबसे पहले हमें हमेशा बनी रहने वाली चुनौतियों से वाकिफ कराएंगे?
एबी : वास्तव में, बहुत सारी चुनौतियां हैं, और इनमें से अधिकतर बनी हुई हैं। शिक्षक से संबंधित शिक्षा व्यवस्था की गुणवत्ता खराब है; रट कर परीक्षा देने के प्रति जुनून है; सार्वजनिक व्यय और शिक्षकों की मदद अपर्याप्त है; शिक्षकों का सशक्तिकरण करने बजाय उन्हें दोष देने की संस्कृति है, और नियत उद्देश्यों के साथ व्यवस्था के सभी हिस्सों का जुड़ाव अपर्याप्त है। अपनी विविधता और आर्थिक परेशानी के साथ हमारे जैसे देश में शिक्षा की अंतर्निहित चुनौतियों के अलावा ये मसले अलग से हैं।
जीएच : भारत में सार्वजनिक शिक्षा की निरंतर बनी रहने वाली समस्याओं ने हमारे सामने जो नई चुनौतियां पेश की हैं उन्हें महामारी के दौरान हुए नुकसान के संदर्भ में आप सामान्य तौर पर किस तरह से देखते हैं?
एबी : हमारे स्कूल वास्तव में दो वर्ष के लिए बंद हो गए थे। ऑनलाइन शिक्षा प्रभावी नहीं है। यह हम पहले से ही जानते थे, और दु:खद रूप से महामारी के दौरान यह फिर से सच साबित हुआ। इसका तात्पर्य यह है कि हमारे बच्चों को पठन-पाठन का बहुत बड़ा नुकसान हुआ है। राज्यों को पठन-पाठन के इस नुकसान की भरपाई के लिए व्यवस्थित ढंग से काम करना चाहिए। सभी राज्यों के पास इस समस्या को संबोधित करने के लिए कुछ कार्यक्रम हैं, लेकिन जैसा कि आप उम्मीद करेंगे, कुछ राज्य इसमें अच्छा काम कर रहे हैं और कुछ बहुत ही खराब कार्य कर रहे हैं। मैं बहुत आशंकित हूं कि हमारे बहुत-से बच्चे इस भारी नुकसान के साथ बड़े होंगे, और यह नुकसान बाद में उनके पठन-पाठन को प्रभावित करेगा। साफ-सरल शब्दों में कहें तो, यदि एक बच्चा/बच्ची आज छठवीं कक्षा में है, और हम यह सुनिश्चित नहीं करते कि वह अपनी क्षमता हासिल कर ले, बल्कि उसे कक्षा 6 का पाठ्यक्रम पढ़ाना शुरू कर दें, कल्पना करिए बाद में शिक्षा और जिंदगी में उसके साथ क्या होगा। मुझे डर है कि बहुत सारे बच्चे इस तरह के भविष्य का सामना कर रहे हैं, क्योंकि कई राज्य इस आपातस्थिति के प्रति अपनी अप्रोच में लापरवाह हैं।
जीएच : पुनः, वक्त के सामने विशिष्ट चुनौतियां हैं : विभाजन के इस वातावरण में, आसानी से प्रसारित होने वाले पूर्वाग्रह के माहौल में, या आसानी से फैलने वाले तर्कहीन सिद्धांतों के वातावरण में हम प्रश्न करने की क्षमता को किस प्रकार प्रोत्साहित कर सकते हैं?
एबी : इसे पाठ्यक्रम और पाठ्य पुस्तकों के जरिये सक्षम किया जा सकता है। लेकिन इसे वास्तव में शिक्षकों के व्यवहार और स्कूल में उनके द्वारा निर्मित संबंधों के द्वारा विकसित किया जा सकता है। यह स्कूल की (परंपराओं सहित) संस्कृति है जो तार्किक सोच को बढ़ावा देती है, समावेशी और गैर-भेदभावपूर्ण व्यवहार को प्रोत्साहित करती है और इस तरह की अन्य क्षमताओं और स्वभाव को बढ़ावा देती है। हमारी प्रणाली और पाठ्यक्रम को स्कूल की संस्कृति, व्यवहार और व्यवस्थाओं पर महत्वपूर्ण रूप से ध्यान देना चाहिए।
जीएच : यदि हमारा सामूहिक लक्ष्य एक विशेष गुणवत्ता की सार्वभौमिक शिक्षा का है – कह सकते हैं कि मात्र सूचना हासिल के बजाय ज्ञान और ज्ञान के तरीकों की प्राप्ति – तो हम नीति के जरिये सार्वजनिक शिक्षा को किस प्रकार से मजबूत कर सकते हैं? बजटीय मदद के जरिये? पुस्तकालयों, फिल्मों और अपने क्षेत्र में उत्कृष्टता हासिल करने वाले लोगों तक पहुंच के जरिये?
एबी : बिना सवाल उठाए हमें बहुत बड़े निवेश की आवश्यकता है। लेकिन यह अपर्याप्त है। यह हमारे शिक्षकों की क्षमता और पढ़ाने तथा सीखने की गुणवत्तापूर्ण सामग्री का भी मामला है। हमें कुछ भी फैंसी नहीं चाहिए। व्यवस्था से समर्थन के साथ प्रतिबद्ध और उच्च-क्षमतावान शिक्षक – जिसमें पर्याप्त संसाधन भी शामिल हैं – इसको अंजाम दे सकते हैं।
जीएच : भारत में शिक्षा को अर्थपूर्ण बनाने के लिए इसे हमारी विविधता के ज्ञान और उसके प्रति संवेदनशीलता को बढ़ाना होगा। उदाहरण के लिए, भाषा के अर्थ में हम इसे किस प्रकार साकार कर सकते हैं? प्रतिदिन के व्यवहार के रूप में अनुवाद को हम किस तरह से लागू कर सकते हैं? आपने जिन ग्रामीण स्कूलों के बारे में लिखा है उनमें अंग्रेजी कहां सही बैठती है?
एबी : विविधता और अन्य स्वभाव के प्रति संवेदनशीलता को स्कूलों के समग्र पाठ्यक्रम में गहरे रूप से शामिल किया जाना चाहिए। इनमें पुस्तकें, शैक्षणिक पद्धतियां, स्कूलों में व्यवस्थाएं और स्कूली संस्कृति शामिल हैं।
भारत की सामाजिक हकीकत यह है कि अंग्रेजी सीखना आकांक्षापूर्ण है – यह गांवों का भी सच है। हालांकि, यह भी बहुत स्पष्ट है कि शैक्षणिक परिप्रेक्ष्य के लिहाज से बच्चे अपनी परिचित भाषा, जो अक्सर उनकी मातृभाषा होती है, में अच्छी तरह से सीखते हैं। इसलिए, साक्षरता जानी-पहचानी भाषा के जरिये होनी चाहिए, इसके अतिरिक्त बच्चों को अंग्रेजी सहित कई भाषाएं सीखनी चाहिए।
जीएच : आपकी बेटी ने जिस प्रकार पाठ्य पुस्तक में ‘गर्ल-हेटिंग’ के बिंदुओं को सूचीबद्ध किया, उसी तरह जब मैं युवा थी तो स्कूली पाठ्यक्रम के संपादन के क्रम में लैंगिक समानता संबंधी जागरुकता को बढ़ाने का कार्य ‘चुपचाप’ करती थी। लेकिन निसंस्देह, अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है – पाठ्यपुस्तकों में तो करना ही है, बल्कि स्कूलों में वास्तविक अभ्यास में भी -उनके लिए जिन्हें, उनकी जाति या जेंडर या लैंगिकता वजह से, मुस्लिम या ईसाई या आदिवासी होने की वजह से; या फिर उस क्षेत्र की वजह से जहां से वे आते हैं, बहुत से नकारात्मक तरीकों से चिन्हित किया जाता है। निश्चित रूप से यह स्कूल में बच्चों और व्यवस्कों, दोनों के लिए समाजीकरण के अनुभव का बुनियादी कार्य है? और हम अपने वक्त में इस कार्य से किस प्रकार जूझते हैं, जब लोगों को बहुत आसानी से एक एकल पहचान तक सीमित कर दिया जाता है?
एबी : शिक्षा और स्कूल केवल इतनी ही भूमिका निभा सकते हैं। मुझे लगता है कि हम अपने समाज की बहुत-सी समस्याओं के लिए अक्सर स्कूलों पर बहुत अधिक बोझ डाल देते हैं। स्कूल केवल एक तरह की सामाजिक संस्था का निर्माण करते हैं। उन्हें अपनी भूमिका अवश्य ही निभानी चाहिए, लेकिन वे अन्य सामाजिक संस्थाएं, प्रक्रिया और गतिकी की भरपाई नहीं कर सकते। इस मामले में स्कूलों में इसे कैसे किया जा सकता है, तो इसे संपूर्ण पाठ्यक्रम, बच्चों को पढ़ाने के तरीके और विषय-वस्तु से लेकर स्कूली संस्कृति तक में गहराई से समाविष्ट करना चाहिए।
जीएच : मेरी राय में आपकी पुस्तक के बारे में सबसे अच्छी बात यह है कि यह अभ्यास – वास्तविक गांवों में वास्तविक स्कूल – के अर्थ में शिक्षा पर विचार-विमर्श करती है, और यह एक्रनिम और बुलेट प्वाइंट के साथ कुछ अमूर्त तरीके से नहीं करती है। यहां प्रश्न यह है कि हम अपने बच्चों और साथ ही साथ शिक्षकों की शिक्षा में नागरिक समाज समूहों, विश्वविद्यालय के छात्रों – अलग-अलग स्तर पर समुदाय – को किस प्रकार शामिल करते हैं?
एबी : शिक्षा में नागरिक समाज समूह, विश्वविद्यालय के छात्र और दूसरे लोग उपयोगी भूमिका निभा सकते हैं। उदाहरण के लिए, वे समुदाय को लामबंद कर सकते हैं, या संसाधनों से मदद कर सकते हैं या स्थानीय सरकार के साथ हिमायत कर सकते हैं। एक बात जिसके प्रति मैं सावधान रहूंगा, वह यह है कि जब नेक इरादे वाले लोग बिना शिक्षक हुए पढ़ाने की कोशिश करते हैं। इस प्रकार के लोगों को शिक्षक बनने से पहले पर्याप्त तैयारी से गुजरना चाहिए। यह केवल इसलिए भी, क्योंकि शिक्षण अब तक के मानव पेशों में सबसे जटिल प्रोफेशन है। लेकिन बहुत सारे लोग सोचते हैं कि मात्र शिक्षित होने के नाते वह पढ़ा सकते हैं। हमें एक शिक्षक की भूमिका की जटिलता और उसकी/उसके बड़े योगदान के बारे में सामाजिक समझदारी विकसित करनी चाहिए, जो उन्हें वह सम्मान देगी जिसके वह हकदार हैं।
अंग्रेजी में यहाँ पढ़े।
अनुवाद : कृष्ण सिंह