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“मैं लिखती रहती हूं, क्योंकि मैं उम्मीद करने का हौसला रखती हूं”

byVaasanthiandGitha Hariharan
November 23, 2022
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पुरस्कार प्राप्त लेखिका और पत्रकार वासंती अंग्रेजी और तमिल, दोनों भाषाओं में लिखती हैं। वह चालीस वर्षों से ज्यादा वक्त से लेखन कार्य कर रही हैं, जिनमें उपन्यास, कहानियों के संग्रह और यात्रा-वृत्तांत शामिल हैं। उन्होंने लोकप्रिय (और कभी-कभी विवादास्पद) जीवनियां भी लिखी हैं – इनमें शामिल हैं, ‘अम्मा : जयललिता’ज जर्नी फ्रॉम मूवी स्टार टु पॉलिटिकल क्वीन’, ‘द लोन एम्प्रेस : अ पोट्रेट ऑफ जयललिता’, ‘करुणानिधि : अ डिविनिटिव बायोग्राफी’, और ‘रजनीकांत : अ लाइफ’। तमिल भाषा में उनका रचनात्मक लेखन कार्य मलयालम, हिंदी, तेलुगु, कन्नड़, अंग्रेजी, नॉर्वेजियाई, चेक और डच भाषाओं में अनुवाद हुआ है। वह चेन्नई में ‘इंडिया टुडे’ पत्रिका के तमिल संस्करण की दस वर्ष तक संपादक रही हैं।

लेखिका गीता हरिहरन के साथ इस बातचीत में वासंती ‘गंगा’ज चॉइस एंड अदर स्टोरीज’ के विशेष संदर्भ के साथ-साथ अपनी कहानियों, तमिल से अंग्रेजी में अनुवादित कहानियों के संग्रह, जिसे उन्होंने, सुकन्या वेंकटरमण और गोमती नारायण ने अनुवाद किया और 2021 में इसे नियोगी बुक्स ने प्रकाशित किया, के बारे में बात करती हैं।

गीता हरिहरन (जी.एच.) : ‘गंगा’ज चॉइस एंड अदर स्टोरीज’ में शामिल कहानियां महिलाओं द्वारा किए गए प्रतिरोध को बहुत निकट से देखती हैं, लेकिन विकल्प की मानवीय कीमतों की गहराई से जांच-पड़ताल करने के साथ-साथ इन्हें बंधनमुक्त करना कितना मुश्किल है, और कभी-कभी तो असंभव भी? वास्तव में, ये कहानियां उन महिलाओं का चित्रण करती हैं जो भय से पराजित हो जाती हैं, साथ ही साथ उन महिलाओं का भी चित्रण करती हैं जो किसी भी तरह से अपने भय से पार पा लेती हैं, भले ही वह एक प्रफुल्लित क्षण के लिए ही क्यों न हो। क्या आप कहेंगी कि आपकी कहानियां महिलाओं के लिए उपलब्ध विकल्पों का पीड़ा के साथ यथार्थवादी मूल्यांकन करती हैं? 

वासंती (वी.)  :  मैं अपने इर्द-गिर्द जो भी घटित होता हुआ देखती हूं उसके बारे में लिखती हूं। बचपन में एक बड़े पुरातनपंथी परिवार के सदस्य के रूप में और एक बेटी, एक मां, एक पत्नी तथा एक पत्रकार के रूप में अपनी जीवन यात्रा के क्रम में जो कुछ भी मैंने देखा। इसके अलावा, इस देश के एक नागरिक के रूप में, ऐसा नागरिक जिसके पास बेहतर भविष्य के लिए सपने हैं, आकांक्षाएं हैं और उम्मीदें हैं। गल्प लेखक (फिक्शन राइटर) जीवंत या सुने हुए अनुभवों से चीजें ग्रहण करते हैं, या फिर उन कुछ चीजों से जिनके वे गवाह रहे हैं और जिन्होंने उन्हें प्रभावित किया है। मैं कॉलेज के दिनों से ही गल्प लेखन करने लगी थी। यह लेखन परिवार के इर्द-गिर्द और घर की चार दीवारी के भीतर होने वाले लैंगिक भेदभाव पर केंद्रित था। मैंने एक निःसंतान स्त्री की पीड़ा और विधवाएं जिस तरह का दयनीव जीवन जीती हैं, लेकिन खामोशी के साथ इसे अपने भाग्य के रूप में स्वीकार कर लेती हैं, उसके बारे में और महिलाओं द्वारा सहन किए जाने वाले दूसरे अनकहे घावों के बारे में लिखा। 

एक पत्रकार के रूप में, मुझे तमिलनाडु के चप्पे-चप्पे की यात्रा करने का अवसर मिला। नब्बे के दशक के दौरान मैं इंडिया टुडे पत्रिका के तमिल संस्करण की संपादक थी और यह पहली बार था जब में लंबे समय के लिए तमिलनाडु में रह रही थी। (मैं कर्नाटक में पली-बढ़ी और इससे पहले तक तमिलनाडु कभी नहीं गई थी, हालांकि तब तक मैं एक तमिल लेखिका के रूप में स्थापित हो चुकी थी)। एक पत्रकार के रूप में मेरी इन यात्राओं ने मेरी आंखें खोल दीं। मैंने बहुत करीब से उस दुनिया को देखा जिसे मैं जानती नहीं थी, निस्संदेह विभिन्न रंगों की संस्कृति, लेकिन बहुत ही तीक्ष्ण, अलग-अलग ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की स्थिति और उन पर पितृसत्तात्मक दबाव और मिथकीय मान्यताएं जो उनकी आजादी को दबाने के लिए निर्देशित होती हैं। जिन महिलाओं को मैंने देखा, उनमें ग्रामीण महिलाएं, अशिक्षित और आश्रित महिलाओं की स्थिति बहुत कमजोर थी, जो इस जाल में फंसी हुई थीं। इस जाल से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाने की वजह से उनके गुस्से और हताशा को मैं महसूस कर सकती थी। एक पत्रकार के रूप में ये जो सभी प्रभाव मैंने ग्रहण किए वे हमेशा मेरी स्मृति में बने रहे, आप कह सकती हैं कि जागरुकता के मेरे अवचेतन के स्तर में भी। जब मैं लिख रही थीं तो ये स्मृतियां उभर कर सामने आईं, इसलिए मैं इन्हें अपनी कहानियों में बुन सकीं। इस तरह से “मर्डर”, “पॉइजन” और “डांस ऑफ द गॉड्स” जैसी कहानियों का जन्म हुआ। वे युवा महिलाएं जिन्होंने गांवों से शहरों की तरफ पलायन किया था और घरेलू कामगार के रूप में कर रही थीं, उन्होंने मुझे अलग तरह की कहानियां सुनाई। वे पितृसत्तात्मक दबाबों की मारी हुई थीं और उन्होंने वर्ग के अलगाव को अनुभव किया था। लेकिन एक सीमा तक जिस आर्थिक स्वतंत्रता का उन्होंने आनंद लिया था उसने उन्हें साहसी बनाया और वे चीजों के बने-बनाए क्रम को धता बताते हुए फैसला ले सकीं। उन लोगों के बारे में लिखते हुए मेरे सामने यह उद्घाटित हुआ कि उनके आंसुओं और खामोशी में बहुत-सी कहानियां छिपी हुई हैं। वे अपने दबावों से कैसे निपटती हैं, इसमें मुक्ति दिलाने का एक फैक्टर भी है। “गंगा’ज चॉइस”, “वॉइस” और “माउस ट्रैप” जैसी कहानियां इन्हीं छवियों को पकड़ती हैं। कहानियों को यथार्थपरक होना था। कुछ कहानियां अपना अंत स्वयं लिखती हैं, जैसा कि “द टेस्टमोनी” में हुआ। मैंने सोचा कि उनके चित्रण का यही ईमानदार तरीका था। मैं परियों की कहानियां नहीं लिख सकती। यहां तक कि दुखांत में भी, वहां हमेशा उम्मीद की एक धारा होती है। मुक्ति की एक ऐसी अंतर्धारा बनी रहती है जो कि उत्पीड़न की उनकी अनुभूति के जरिये, उनके दिमागों में विद्रोही विचारों के माध्यम से, और इन विचारों के वाहक पात्रों की विभिन्न प्रतिक्रियाओं के माध्यम से आती है। यहां तक कि एक महिला जो अपने जीवन का अंत कर रही है – यहां तक कि उसकी आत्महत्या विरोध और रोष का एक कृत्य है, जैसा कि “डान्स ऑफ द गॉड्स” में अवज्ञा की अभिव्यक्ति है। नायिका पांचाली गांव में बहुत सारे पिंजरों के बारे में सोचती है, इनमें से एक पिंचरा वो है जो महिलाओं के मासिक-धर्म के दौरान उनके लिए होता है, और दूसरा है रसोई घर। यहां पिंजरा एक रूपक है जो हमारे गांवों में महिलाओं की स्थिति का विवरण देता है। ये वे पिंजरे हैं जिनसे अपने जीवन को उभारने के लिए और आजाद होने के लिए महिलाओं को सारी जिंदगी लड़ना पड़ता है। मैं नहीं जानती कि कितनी महिलाएं वास्तव विद्रोही बन पाती हैं और जिन पिंजरों में वे रहती हैं उनसे आजाद हो पाती हैं, लेकिन मेरी पांचाली ने ऐसा किया। अंत में, यह रसोई घर है जहां पांचाली को सार्वजनिक प्रताड़ना, उपहास और विश्वासघात से बचने के लिए मार्ग मिलता है। उसकी मृत्यु बेरहम पितृसत्तात्मक व्यवस्था के आगे घुटने टेकने से इनकार करने की अभिव्यक्ति है।

जी.एच. : आपकी कहानियां समकालीन पल को कैद करती हैं, मुसलमानों को एक आतंकवादी के रूप में बदनाम करने से लेकर कोविड के दौरान तालाबंदी के जरिये निर्मित मानवीय त्रासदियों तक। क्या आपके भीतर खबरों को लेकर सचेत पत्रकार की यह मौजूदगी वर्तमान क्षण के लिए कहानियां उपलब्ध करा रही है?        

वी. : शायद आप सही हैं। मैंने अपना सफर एक गल्प लेखक के तौर पर शुरू किया। एक लड़की के बतौर में अपने नाना से बहुत ही ज्यादा प्रभावित थी, वह गांधीवादी थे और अंग्रेजी के अध्यापक थे। वह उदार थे और जाति, वर्ग, जेंडर और धर्म के नाम पर किए जाने वाले भेदभाव से हमेशा ही बहुत परेशान और बेचैन रहते थे। मैंने विभिन्न राज्यों के इतिहास और समाजशास्त्र में अपनी अकादमिक रुचि विकसित की। उदाहरण के लिए, जब मेरे (इंजीनियर) पति, जो केंद्र सरकार के कर्मचारी थे और एक वक्त में उत्तर-पूर्वी राज्यों में तैनात थे तो मुझे भी वहां रहने का मौका मिला। मैंने पाया कि वहां रहने वाले लोग जातीय रूप से (एथ्निक्ली) अलग होते हैं और केंद्र सहित शेष भारत उनके गुस्से और आकांक्षाओं के प्रति पूरी तरह से लापरवाह है। जब हम वापस दिल्ली लौट आए, तो मेरे मन में उन विषयों पर पत्रकारीय लेखन करने की तीव्र इच्छा हुई जिनसे तमिल भाषा के पाठक वाकिफ नहीं थे। मैं तमिल में कथा-साहित्य की एक सफल लेखिका बन चुकी थी, और जब एक तमिल पत्रिका ने मुझे राजधानी में घटने वाले घटनाक्रमों – जिसमें इंदिरा गांधी की हत्या से जुड़ा घटनाक्रम भी शामिल था –  के बारे में लिखने का अनुरोध किया, तो मैंने अपने गल्प लेखन के साथ-साथ तमिल में कुछ पत्रकारीय लेखन भी शुरू किया। वह सीखने की एक प्रक्रिया थी। राजनीतिक संसार में चीजें किस तरह से खुलती हैं और दुनिया किस तरह से लगातार बदलती रहती है, इसने मुझे उनके बारे में गहराई से जानने में मदद की। उस वक्त से मैंने यह महसूस करना शुरू किया कि कोई भी लेखक अराजनीतिक नहीं रह सकता है।

मुसलमानों को आतंकवादी के रूप में बदनाम करने की बात ने मुझे बहुत गहरे तक आक्रांत किया है – यह एक ऐसी तोहमत की तरह है जो समुदाय पर जानबूझकर लगाई जा रही है। मैंने अपने तमिल/कन्नड़ मुस्लिम दोस्तों की खौफ और अलगाव की भावना को महसूस किया है;  उनकी मानसिक वेदना और सदमा उनकी खामोश निगाहों में कितना स्पष्ट है; उनकी असुरक्षा की भावना कई गुना बढ़ गई है :  एक लेखक इस सबके बारे में कैसे नहीं लिखता, इस तरह के सामाजिक संकट का वर्णन और उसका विश्लेषण कैसे नहीं करता? कोविड की तालाबंदी के दौरान अपने गांवों की ओर पैदल लौटते प्रवासी मजदूरों की छवियों ने मुझे पूरी तरह से हिला कर रख दिया – मैं इस हद तर संतप्त थी कि उसका मैं वर्णन नहीं सकती। मुझे अपनी भावनाओं को व्यक्त करना ही था। इसे खबरों को लेकर सचेत होना कहें या कुछ और, एक संवेदनशील लेखक जो चीजों को अपने दिल पर लेता है, उसकी यह एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी। 

जी.एच. : इस संग्रह में, मुझे शहरी और ग्रामीण परिवेश में आश्चर्यजनक विषमता की पुनरावृत्ति देखने को मिली है। वास्तव में, पूरे संग्रह में विस्थापित ‘आप्रवासी’ का विषय एक जोड़ने वाले धागे की तरह चलता है, निश्चित रूप से, जेंडर, समुदाय और वर्ग के साथ एक-दूसरे को काटते हुए। क्या आप इस पर टिप्पणी करना चाहेंगी?     

वी. : हमारा देश काफी विषमताओं वाला देश है। शहरी और ग्रामीण के बीच में बहुत बड़ा विभाजन है, इसके अलावा लैंगिक विभाजन है, सांप्रदायिक विभाजन है, वर्ग का विभाजन है – देश में विभाजन सर्वत्र व्याप्त है, चाहे आप कोई भी भाषा बोलते हों। एक समाज जो हर तरह से अधिक से अधिक असमान बनता जा रहा है, वहां पहले परिवार में, फिर वंश और कबीले में और फिर राज्य में हम लाक्षणिक रूप से (मेटफॉरिक्ली) आप्रवासी बन जाते हैं – सीमाओं को पार करते हैं, नियंत्रण रेखा को लांघते हैं और व्यवस्था द्वारा निर्मित दीवारों को तोड़ते हैं। सीमाओं को पार करना एक निरंतर प्रयास है जो अवज्ञा के कई रूपों में प्रकट होता है; विरोधाभाषी रूप से, इन रूपों में से कुछ कायरतापूर्ण या पराजयवादी प्रतीत हो सकते हैं। लेकिन हकीकत यह है कि जो हमें आश्वस्त करता है हम उसका प्रयास करते हैं।

जी.एच. :  अब एक प्रश्न शिल्प को लेकर : बहुत सारी कहानियों, यदि अधिकांश में न भी हो तो, का अंत न सुखांत होता है और न ही दुखांत, वह किसी भी दिशा में जा सकती है (कहानियां ओपन एन्डिड होती हैं), उसके बाद कहानी यह भी हो सकती है या वह भी हो सकती है। क्या यह पाठक के सामने सचेत रूप से रखी गई चुनौती है?    

वी. : मुझे कहानियों को ओपन-एन्डिड छोड़ना पसंद है। बेशक, यह उस विषय पर निर्भर करता है जिससे आप जूझ रहे होते हैं। मेरी ज्यादातर कहानियों का अंत स्वयं ही निकल कर आता है – कहानियां जैसी होती हैं वे अपना अंतिम वाक्य वैसा ही लिखती हैं। मुझे और किसी तरह से सामप्त करना नहीं आएगा। सच कहें तो किसी के जीवन में किसी कहानी का कोई अंत नहीं होता। जीवन चलता रहता है। और जो नहीं कहा गया है उसकी कल्पना पाठक जैसा चाहे वैसे कर सकता है। 

जी.एच. : कहानियां पूरे भारत की यात्रा करती हैं और समकालीन भारत के बारे में पूरजोर तरीके से बात करती हैं। क्या आप यह कहेंगी कि जो परिवर्तन आप चित्रित करती हैं वे आमतौर पर बदतर स्थिति के लिए होते हैं? गरीबी से लेकर असमानता तक और लोगों के सक्रिय बहिष्करण तक, आपकी कहानियां वर्तमान समय के देश के बारे किस तरह का आकलन करती हैं?

वी. : मेरे लिए रचनात्मक लेखन न केवल एक कलात्मक और सुंदर शिल्प है बल्कि एक राजनीतिक कार्य भी है। मैं खुशनसीब हूं कि मैंने भारत के अधिकतर हिस्सों की यात्रा की है, और अलग-अलग क्षेत्रों के लोगों, अलग-अलग भाषा बोलने लोगों के साथ अपनेपन की भावना से अभिभूत रही हूं। मैं कर्नाटक में आश्चर्यजनक रूप से एक धर्मनिरपेक्ष समावेशी माहौल में पली-बढ़ी हूं और अभी भी मैं अपने हृदय में उस अनुभव की समृद्धि लिए हुए हूं। लेकिन, मुझे तकलीफ होती है कि जब मैं देखती हूं कि माहौल बदल गया है। एक पत्रकार और रचनात्मक लेखक के रूप में, मैं अपने कर्तव्य के प्रति गहरे रूप से सचेत हूं। मैं इससे वाकिफ हूं कि मेरे आसपास क्या चल रहा है – आर्थिक और लैंगिक असमानता; अल्पसंख्यकों द्वारा अनुभव किए जाने वाले भय का बढ़ना; या फिर क्रूर राजद्रोह के कानून जो औपनिवेशिक काल से आज तक चले आ रहे हैं और जिनका राज्य द्वारा अक्सर दुरुपयोग किया जाता है। लेखक उसके बारे लिखते हैं जो उन्हें गहरे रूप से प्रभावित करता है; वे जो अनुभव करते हैं उसका अर्थ समझने का प्रयास करते हैं। इन कहानियों में मेरी यही कोशिश है – मैं यह समझने का प्रयास कर रही हूं कि लोग वैसा व्यवहार क्यों करते हैं जैसा कि वे करते हैं। यह एक आकर्षक यात्रा है, विनम्र और चकित करने वाली। मैं यह मानती हूं कि लेखक के दिमाग में हमेशा ही उम्मीद की एक किरण होती है। हम हमेशा मुक्ति और प्रतिकार की एक झलक की तलाश में रहते हैं। मेरी कहानियों के बारे में एक समीक्षक ने कहा कि वे ‘पक्के विश्वास के विजय के स्वर के साथ समाप्त होती हैं – कभी-कभी गहरे अंधकार की छाया में भी – (लेकिन) फिर भी एक तरह की विजय के साथ।’ मानवता, एक रूप में या दूसरे रूप में न केवल पात्रों को बल्कि पाठकों को भी मुक्ति दिलाती है। मुझे आज के युवा पर विश्वास है जो हमारे मुकाबले जब हम युवा थे, ज्यादा बुद्धिमान हैं और बेहतर जानकारी रखते हैं। वे राजनीतिक रूप से जागरुक हैं और क्या सही है तथा क्या गलत है, इसके बारे में सचेत हैं। मुझे यह उम्मीद है और विश्वास है कि हर सुरंग के अंत में और उसके परे प्रकाश है। मैं निरंतर लिखती हूं, क्योंकि मैं उम्मीद करने का हौंसला रखती हूं।

कृष्ण सिंह द्वारा हिंदी में अनुवादित। अंग्रेज़ी में यहाँ पढ़ें।

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