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पूँजीवाद ने जलवायु संकट पैदा किया; समाजवाद इस आपदा को टाल सकता है

byTricontinental Institute for Social Research
September 14, 2022
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जॉर्ज बहगौरी (मिस्र), शीर्षकहीन, 2015

प्यारे दोस्तों,

ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।

नवंबर 2022 में, संयुक्त राष्ट्र के अधिकांश सदस्य देश वार्षिक संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (सीसीसी) के लिए मिस्र के एक शहर शर्म अल शेख़ में इकट्ठा होंगे। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ़्रेमवर्क कन्वेंशन का आकलन करने के लिए पार्टियों का यह 27वाँ सम्मेलन है। इस सम्मेलन का संक्षिप्त नाम है COP27। 1992 में, रियो डी जनेरियो में अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण संधि पर हस्ताक्षर किया गया था। 1995 में बर्लिन शहर में उसका पहला सम्मेलन हुआ। इस संधि के समझौते आगे चलकर 2005 के क्योटो प्रोटोकॉल में और 2015 के पेरिस समझौते में शामिल किए गए। जलवायु संकट कितना बड़ा है इसके बारे में अब ज़्यादा कहने की ज़रूरत नहीं है। हमारे सामने बड़े पैमाने पर प्रजातियों के विलुप्त होने का ख़तरा मौजूद है। कार्बन आधारित ईंधन से दूर जाने के रास्ते में तीन बड़ी रुकावटें हैं:

1. दक्षिणपंथी ताक़तें, जो यह मानती ही नहीं हैं कि जलवायु परिवर्तन हक़ीक़त में हो रहा है।

2. ऊर्जा उद्योग का वह वर्ग जो अपने स्वार्थ के लिए कार्बन आधारित ईंधन का इस्तेमाल जारी रखना चाहता है।

3. पश्चिमी देश, जो यह स्वीकार करने से इंकार करते हैं कि समस्या के लिए मुख्य रूप से वे ज़िम्मेदार हैं और इसलिए उन्हें जलवायु ऋण चुकाना चाहिए। वे यह भी नहीं मानते हैं कि उन्हें विकासशील देशों की, जिनकी संपत्ति वे लगातार लूट रहे हैं, ऊर्जा के स्रोत बदलने में वित्तीय मदद करनी चाहिए।

जलवायु आपदा पर होने वाली सार्वजनिक बहस में, 1992 के रियो सम्मेलन और वहाँ पर हुए अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण समझौते का बमुश्किल कोई ज़िक्र मिलता है। इस समझौते के तहत ‘जलवायु परिवर्तन की वैश्विक प्रकृति के कारण सभी देशों के ज़्यादा से ज़्यादा व्यापक सहयोग तथा विभिन्न देशों की सामान्य लेकिन अलग-अलग ज़िम्मेदारियों और संबंधित क्षमताओं और उनकी सामाजिक व आर्थिक स्थितियों के अनुसार एक प्रभावी तथा उपयुक्त अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया में उनकी भागीदारी की ज़रूरत है’। ‘सामान्य लेकिन अलग-अलग ज़िम्मेदारियाँ’ जैसा वाक्यांश दर्ज करने का मतलब है, इस तथ्य की पुष्टि करना कि जलवायु परिवर्तन की समस्या सभी देशों के लिए समान है और कोई भी इसके हानिकारक प्रभाव से सुरक्षित नहीं है, लेकिन इसे हल करने में देशों की ज़िम्मेदारियाँ समान नहीं है। डीकार्बनाइज़्ड (कार्बन-रहित) ऊर्जा प्रणाली की ओर दुनिया को ले जाने में, सदियों से उपनिवेशवाद और कार्बन ईंधन से लाभ उठाते रहे देशों की ज़िम्मेदारी बड़ी है।

रोजर मोर्टिमर (आओटेरोआ/न्यूजीलैंड), वारीवारांगी, 2019

मामला स्पष्ट है: पश्चिमी देशों ने अपने विकास के स्तर को प्राप्त करने के लिए उपनिवेशवाद और कार्बन ईंधन दोनों से असाधारण रूप से लाभ उठाया है। अमेरिकी ऊर्जा विभाग के अब निष्क्रिय हो चुके कार्बन डाइऑक्साइड सूचना विश्लेषण केंद्र के नेतृत्व में चले ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट के डेटा से पता चलता है कि संयुक्त राज्य अमेरिका 1750 के बाद से कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) का सबसे बड़ा उत्सर्जक रहा है। अकेले संयुक्त राज्य अमेरिका ने पूरे यूरोपीय संघ से ज़्यादा CO2 का उत्सर्जन किया है, चीन से दोगुना ज़्यादा और भारत से आठ गुना ज़्यादा। मुख्य कार्बन उत्सर्जक सभी औपनिवेशिक शक्तियाँ थीं।  यानी अमेरिका, यूरोप, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया, जहाँ वैश्विक आबादी का केवल दसवाँ हिस्सा रहता है, जो कुल वैश्विक उत्सर्जन के आधे से भी अधिक हिस्से के लिए ज़िम्मेदार हैं। 18वीं शताब्दी के बाद से, इन देशों ने न केवल वातावरण में सबसे ज़्यादा कार्बन छोड़ा है,  बल्कि ये देश आज भी वैश्विक कार्बन बजट के अपने हिस्से से कहीं अधिक कार्बन उत्सर्जन करते हैं।

उपनिवेशवाद के माध्यम से चुराई गई संपत्ति से समृद्ध हुए कार्बन-संचालित पूँजीवाद ने यूरोप और उत्तरी अमेरिका के देशों को अपनी आबादी के जीवन-स्तर को बढ़ाने और विकास के अपने अपेक्षाकृत उन्नत स्तर को प्राप्त करने में सक्षम बनाया है। 74.8 करोड़ की आबादी वाले यूरोप में एक औसत व्यक्ति के जीवन स्तर और 140 करोड़ की आबादी वाले भारत में एक औसत व्यक्ति के जीवन स्तर के बीच का अंतर पिछली एक सदी में सात गुना बढ़ा है। हालाँकि चीन, भारत और अन्य विकासशील देशों में कार्बन, और विशेष रूप से कोयले पर निर्भरता काफ़ी ऊँचे स्तर तक बढ़ गई है, लेकिन उनका प्रति व्यक्ति उत्सर्जन संयुक्त राज्य अमेरिका के उत्सर्जन से अब भी काफ़ी कम है। अमेरिका का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन चीन से लगभग दोगुना और भारत से आठ गुना ज़्यादा है।  2010 में हुई COP16 में कार्बन-संचालित सामाजिक विकास की प्रक्रिया को तेज़ी से पार करने में विकासशील देशों की मदद करने के लिए ग्रीन क्लाइमेट फ़ंड जुटाने का लक्ष्य लिया गया था। लेकिन इस फ़ंड में ज़रूरत अनुसार संसाधन नहीं डाले जा रहे हैं। इसका एक ही कारण है कि जलवायु साम्राज्यवाद की वास्तविकता को स्वीकार नहीं किया जा रहा है।

वैश्विक स्तर पर, जलवायु संकट को संबोधित करने के बारे में बहस ग्रीन न्यू डील (हरित समझौतों) के विभिन्न रूपों के इर्द-गिर्द घूमती है। जैसे कि यूरोपीय ग्रीन डील, उत्तरी अमेरिकी ग्रीन न्यू डील और ग्लोबल ग्रीन न्यू डील। विभिन्न देश, अंतर्राष्ट्रीय संगठन और पर्यावरण संरक्षण से जुड़े आंदोलन इस तरह के समझौतों को बढ़ावा देते हैं। इस चर्चा को बेहतर ढंग से समझने और इसे मज़बूत करने के लिए, ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान के अर्जेंटीना कार्यालय ने, अलग-अलग हरित समझौतों के बारे में और जलवायु तबाही को रोकने के लिए एक वास्तविक परियोजना की संभावनाओं पर विचार करने के उद्देश्य के साथ प्रमुख पर्यावरण-समाजवादी विद्वानों को संवाद के लिए आमंत्रित किया। जोस सेओने (अर्जेंटीना), थिया रियोफ्रांकोस (संयुक्त राज्य अमेरिका), और सबरीना फ़र्नांडीस (ब्राज़ील) के साथ हुई हमारी चर्चा अब नोटबुक संख्या 3 (अगस्त, 2022), ‘The Socioenvironmental Crisis in Times of the Pandemic: Discussing a Green New Deal’ के रूप में उपलब्ध है।

इन तीनों विद्वानों का तर्क है कि पूँजीवाद जलवायु संकट का समाधान नहीं कर सकता, क्योंकि पूँजीवाद ही इस संकट का प्रमुख कारण है। दुनिया के सौ सबसे बड़े निगम वैश्विक औद्योगिक ग्रीनहाउस गैसों (मुख्य रूप से कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन) के कुल उत्सर्जन के 71% के लिए ज़िम्मेदार हैं। कार्बन ऊर्जा उद्योग के नेतृत्व में चलने वाले ये निगम, ऊर्जा संक्रमण को तेज़ करने के लिए तैयार नहीं हैं। जबकि इनके पास सिर्फ़ पवन ऊर्जा का इस्तेमाल कर वैश्विक बिजली की माँग का अठारह गुना उत्पादन करने की तकनीकी क्षमता मौजूद है। सतत विकास या सस्टेनेबिलिटी जैसे शब्द का सार्वजनिक चर्चा में कोई अर्थ नहीं रह गया है, क्योंकि इन निगमों के लिए यह सिद्धांत लाभदायक नहीं है। जैसे, उदाहरण के लिए, एक सामाजिक नवीकरणीय ऊर्जा परियोजना, जीवाश्म ईंधन की कंपनियों को बहुत अधिक फ़ायदा नहीं देगी। नये हरित समझौते में कुछ पूँजीवादी फ़र्मों की रुचि का कारण यह है कि दुनिया को प्रदूषित करने वाली इन निगमों के पूँजीपति अपने निजी एकाधिकार का विस्तार करने के लिए इन समझौतों पर लगने वाले सार्वजनिक धन को अपने क़ब्ज़े में करना चाहते हैं। पर रियोफ्रांकोस नोटबुक में बताती हैं कि, ”हरित पूँजीवाद” का अर्थ है संचय और खपत के मॉडल को बदले बिना पूँजीवाद के लक्षणों – जैसे ग्लोबल वार्मिंग, प्रजातियों का व्यापक स्तर पर विलुप्त होना, पारिस्थितिक तंत्र का विनाश आदि – का समाधान करना जबकि जलवायु संकट का असल कारण यह मॉडल ही है। यह एक तरह का “टेक्नो-फिक्स” है: बिना कुछ बदले सब कुछ बदलने की कल्पना।

गोंजालो रिबेरो (बोलीविया), पूर्वज, 2016

सेओने बताते हैं कि नये हरित समझौते पर मुख्यधारा की चर्चा की शुरुआत 1989 की पीयर्स रिपोर्ट ‘ब्लूप्रिंट फ़ॉर ए ग्रीन इकोनॉमी’ जैसी पहलों में देखी जा सकती है। यह ब्लूप्रिंट यूके की सरकार के लिए तैयार किया गया था और इसमें पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं के सामने उपस्थित व्यापक संकट के एक समाधान के रूप में नयी तकनीकों के उत्पादन हेतु सार्वजनिक धन को निजी कंपनियों को देने का प्रस्ताव रखा गया था। ‘हरित अर्थव्यवस्था’ की अवधारणा का उद्देश्य अर्थव्यवस्था को हरा-भरा करना नहीं बल्कि पूँजीवाद को पुनर्जीवित करने के लिए पर्यावरणवाद के विचार का उपयोग करना था। 2009 में, विश्व वित्तीय संकट के दौरान, पीयर्स रिपोर्ट के सह-लेखक एडवर्ड बारबियर ने ग्लोबल ग्रीन न्यू डील (नया वैश्विक हरित समझौता) के नाम से संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के लिए एक नयी रिपोर्ट लिखी थी। इस रिपोर्ट में ‘हरित अर्थव्यवस्था’ के विचारों को ‘ग्रीन न्यू डील’ के रूप में फिर से पैक किया गया। इस नयी रिपोर्ट ने एक बार फिर से पूँजीवादी व्यवस्था में अशांति को स्थिर करने के लिए सार्वजनिक धन के उपयोग का तर्क दिया।

लेकिन हमारे नोटबुक में शामिल तर्क टिक्विपया, बोलीविया में हुई वर्ल्ड पीपुल्स कॉन्फ़्रेंस ऑन क्लाइमेट चेंज एंड द राइट्स ऑफ़ मदर अर्थ (2010), पीपुल्स वर्ल्ड कॉन्फ़्रेंस ऑन क्लाइमेट चेंज एंड द डिफ़ेन्स ऑफ़ लाइफ़ (2015) से निकला है। यह अवधारणा उसके बाद ऑल्टर्नेटिव वर्ल्ड वॉटर फ़ोरम (2018), पीपुल्स समिट (2017), और पीपुल्स नेचर फ़ोरम (2020) जैसे समारोहों में विकसित हुई। लैटिन अमेरिका में लोकप्रिय संघर्षों से विकसित हुई इस अवधारणा का केंद्रीय घटक है buen vivir (बेहतर तरीक़े से जीना)। पूँजीवाद को बचाने के बजाय, जो कि ग्रीन न्यू डील की चिंता है, हमारी नोटबुक का तर्क है कि हमें समाज को व्यवस्थित करने के तरीक़े को बदलने के बारे में सोचना चाहिए, यानी, एक नयी प्रणाली के निर्माण के बारे में सोचना चाहिए। फ़र्नांडीस कहती हैं, इन विचारों के निर्माण में ट्रेड यूनियनों और किसान संगठनों को शामिल करना ज़रूरी है, क्योंकि कई ट्रेड यूनियन कार्बन से नवीकरणीय ऊर्जा में संक्रमण से नौकरियों पर पड़ने वाले असर को लेकर चिंतित हैं जबकि कई किसान संगठन इस तथ्य से चिंतित हैं कि ज़मीन पर कुछ लोगों का क़ब्ज़ा प्रकृति को नष्ट कर देता है और सामाजिक असमानता पैदा करता है।

केल कासेम (मिस्र), मरमेड की शादी, 2021

फ़र्नांडीस कहती हैं कि हमें व्यवस्था को बदलना चाहिए, ‘लेकिन आज की राजनीतिक परिस्थितियाँ इसके अनुकूल नहीं हैं। कई देशों में दक्षिणपंथ मज़बूत है, और जलवायु विज्ञान का खंडन भी जारी है’। इसलिए, जन आंदोलनों को जल्द ही एक डीकार्बोनाइजेशन एजेंडा मेज़ पर रखना चाहिए। हमारे सामने चार लक्ष्य हैं:

1. पश्चिमी देशों की डी-ग्रोथ: संयुक्त राज्य अमेरिका में दुनिया की आबादी का 5% से भी कम हिस्सा रहता है लेकिन वह दुनिया का एक तिहाई काग़ज़, एक चौथाई तेल, लगभग एक चौथाई कोयला और एक चौथाई एल्यूमीनियम की खपत करता है। सिएरा क्लब का कहना है कि अमेरिका में ऊर्जा, धातु, खनिज, वन उत्पादों, मछली, अनाज, मांस और यहाँ तक ​​​​कि ताज़े पानी की प्रति व्यक्ति खपत के सामने विकासशील दुनिया में रहने वाले लोगों की खपत बहुत मामूली है। पश्चिमी देशों को अपने समग्र उपभोग में कटौती करने की आवश्यकता है। जेसन हिकेल के शब्दों में उसे ‘अनावश्यक और विनाशकारी’ (जैसे कि जीवाश्म ईंधन और हथियार उद्योग, मैकमेन्शन और निजी जेट का उत्पादन, औद्योगिक गोमांस उत्पादन का तरीक़ा और नियोजित रूप से प्रचलन से बाहर व्यापार का संपूर्ण व्यवसाय दर्शन) उद्योगों को छोटा करने की ज़रूरत है।

2. ऊर्जा उत्पादन के प्रमुख क्षेत्र का समाजीकरण करें: जीवाश्म ईंधन उद्योग को सब्सिडी देना समाप्त करें और एक ऐसे सार्वजनिक ऊर्जा क्षेत्र का निर्माण करें जो कि कार्बन-रहित ऊर्जा प्रणाली में निहित हो।

3. ग्लोबल क्लाइमेट एक्शन एजेंडा को फ़ंड करें: सुनिश्चित करें कि पश्चिमी देश ग्रीन क्लाइमेट फ़ंड का समर्थन करने में अपनी ऐतिहासिक ज़िम्मेदारियों को पूरा करते हैं, जिसका उपयोग विशेष रूप से दक्षिणी गोलार्ध के देशों में ऊर्जा के उचित संक्रमण के लिए वित्तपोषण के रूप में किया जाएगा।

4. सार्वजनिक क्षेत्र को बढ़ावा दें: निजी उपभोग की बजाए सामाजिक उपभोग के लिए बेहतर बुनियादी ढाँचे का निर्माण करें। निजी कारों के उपयोग को कम करने के लिए उच्च गति वाली रेल और इलेक्ट्रिक बसें चलाएँ। दक्षिणी गोलार्ध के देशों को अपनी अर्थव्यवस्थाओं का निर्माण करना होगा, जिसमें उनके संसाधनों का दोहन भी शामिल है। यहाँ मुद्दा इन संसाधनों का दोहन करने तक सीमित नहीं है, बल्कि सवाल यह है कि क्या उन संसाधनों का खनन सामाजिक और राष्ट्रीय विकास के लिए किया जाता है, या केवल पूँजी के संचय के लिए। beun vivir (बेहतर जीवन) का अर्थ है भूख और ग़रीबी, अशिक्षा और बीमारी का हल निकालना, जिसे सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा ही विकसित किया जा सकता है।

कोई भी जलवायु नीति सार्वभौमिक नहीं हो सकती। जो लोग दुनिया के संसाधनों को हड़प रहे हैं उन्हें अपनी खपत कम करनी चाहिए। दो अरब लोगों के पास साफ़ पानी नहीं है। दुनिया की आधी आबादी के पास पर्याप्त स्वास्थ्य देखभाल की सुविधा नहीं है। उनके सामाजिक विकास की गारंटी दी जानी चाहिए, लेकिन यह विकास एक स्थायी, समाजवादी नींव पर आधारित होना चाहिए।

स्नेह-सहित,
विजय।

Read this in English here.

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