यूपी में योगी जी की वापसी को लेकर बहुत दिन से प्रसन्न हमारे पड़ोसी जी आज बेहद गुस्से में दिखाई दे रहे थे।
मैं सामने पड़ गया तो आक्रोश से बोल उठे— देख लिया, मुसलमान कैसे होते हैं?
कैसे!, मैं कुछ अकबकाया, घबराया…कि अब क्या नया कांड हो गया, हमारे पड़ोसी महाराज क्यों नाराज़ हैं।
रोज़ रोज़ मेरे सामने आते ही मुस्कुरा कर गुनगुनाते थे कि “आएंगे तो योगी जी…”। और 10 मार्च यानी नतीजे आने के बाद तो उनकी खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा था। 11 मार्च से तो वो ज़ोर-ज़ोर से गाने लगे थे कि “आएंगे तो मोदी जी…”
मैंने कहा- महाराज, आपके गुस्से का कारण क्या है, क्या हुआ है जो आप इतने नाराज़ दिख रहे हैं। अब तो सबकुछ आपकी योजनानुसार हो रहा है। योगी जी दोबारा जीत गए, आपके कहे अनुसार मोदी जी भी तिबारा जीत जाएंगे, आपका ‘हिंदू राष्ट्र’ जल्द ही निर्मित होने वाला है, तो कष्ट क्या है बंधु, काहे परेशान हो…
नहीं….वो बात नहीं है
तो क्या बात है- मैंने उनका मुंह ताका
क्या तुमने कश्मीर वाली पिक्चर नहीं देखी
मैंने कहा- नहीं
हां, तुम कहां देखोगे, ऐसी फ़िल्में…तुम तो गंगूबाई देखोगे
जी जी…आगे बताइए हुआ क्या है?
पड़ोसी जी उबल पड़े— क्या बताइए, जैसे आपको मालूम ही नहीं है कि कश्मीर में क्या हुआ सन् नब्बे में। कैसे कश्मीरी पंडित मारके भगाए गए।
तो आपको आज पता लगा है?
नहीं, लेकिन पिक्चर देखकर गुस्सा आ रहा है कि…
महाराज, इतिहास जानने-समझने के लिए सिर्फ़ पिक्चर देखने से काम नहीं चलता, कुछ किताबें भी पढ़नी होती हैं…राजनीति को भी समझना पड़ता है।
नहीं…नहीं आप यह बताइए, क्या आप कश्मीर में पंडितों के नरसंहार के लिए, उनके पलायन के लिए मुसलमानों को ज़िम्मेदार नहीं मानते—पड़ोसी ने गोली की तरह सवाल दागा।
मैंने कहा- हां, उतना ही जितना तुम गुजरात नरसंहार के लिए हिंदुओं को।
मतलब….पड़ोसी जी बिफ़र ही गए…कैसे….कैसे
मैंने कहा- पहले ज़रा शांत हो जाइए महाराज, और फिर ठंडे दिमाग़ से मेरी बात का जवाब दीजिए कि क्या आप गुजरात दंगों के लिए सारे हिंदुओं को दोषी मानते हैं।
नहीं, ऐसे कैसे हो सकता है। सारे हिंदुओं को दोषी कैसे माना जा सकता है…
मैंने कहा- बिल्कुल ऐसे ही कश्मीर पंडितों की हत्या और पलायन के लिए सारे मुसलमानों को दोष देना ठीक नहीं है।
नहीं…नहीं ये तर्क ठीक नहीं है। गुजरात दंगा तो क्रिया की प्रतिक्रिया थी। गोधरा का बदला थी।
अच्छा, तो फिर कश्मीर समस्या भी ग़लत नीतियों की प्रतिक्रिया क्यों नहीं हो सकती है। मैंने भी तुर्की ब तुर्की जवाब दिया।
नहीं, वहां बेचारे पंडितों ने मुसलमानों का क्या बिगाड़ा था। वे तो तादाद में बेहद कम थे। अल्पसंख्यक।
दोस्त, मैंने धीमे स्वर में गंभीरता से कहा, जब धर्म का नशा चढ़ता है, गुमरही बढ़ती है, सरकारी उपेक्षा और प्रताड़ना मिलती है, एक वर्ग विशेष में उन्माद पैदा किया जाता है। तो ऐसा ही परिणाम होता है। आज ही देशभर में धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ क्या किया जा रहा है, ये मुझसे ज़्यादा अच्छी तरह तो आप जानते हैं महाराज। आपकी ही सरकार है।
क्या किया जा रहा है? कुछ भी तो नहीं, सब मज़े में हैं। आप तो ऐसे ही कहते रहते हैं।
अच्छा!, अजान, नमाज़ से लेकर हिजाब-तलाक़ आप नियंत्रित करना चाहते हैं। उनकी नागरिकता आप तय करना चाहते हैं। कौन क्या खाएगा, क्या पिएगा, क्या पहनेगा। आप चाहते हैं कि ये सब आपकी मर्ज़ी से हो। और फिर कहते हैं…आप तो कोरोना में भी ‘तबलीग जिहाद’ ढूंढ लाए थे।
नहीं..नहीं आप बात को घुमा रहे हैं गुजरात दंगों से कश्मीर की तुलना नहीं हो सकती।
तुलना नहीं कर रहा। पूछ रहा हूं कि क्या गुजरात में हिंदुओं ने सिर्फ़ गोधरा में ट्रेन जलाने वाले लोगों को ही मारा। क्या उनकी पहचान हो गई थी। और अगर पहचान हो गई थी, तो सज़ा अदालत देगी या भीड़, और कितने लोगों ने ट्रेन जलाई थी, 10…20…50….100….और गुजरात दंगों में कितने मुसलमान मारे गए। कितने बेघर हुए। कुछ हिसाब है। आपके या सरकार के पास।
कुछ आंसू इनके लिए भी, एक पिक्चर इनके लिए भी…।
कई रिपोर्ट बताती हैं गुजरात नरसंहार में 2000 से ज़्यादा लोग मारे गए। एक हज़ार के करीब तो सरकार ही स्वीकार करती है, जिनमें ज़्यादातर मुसलमान थे। इस दौरान उनके हज़ारों दुकान-मकान जला दिए गए। लोग दर-बदर हो गए और आज तक नहीं पनप पाए हैं।
नहीं—नहीं, तुम बकवास करते हो (इस बार पड़ोसी ने काफ़ी गुस्से से ‘तुम’ कहा)
कश्मीरी पंडितों ने वहां मुसलमानों का क्या बिगाड़ा था। ये बताओ।
तो बिगाड़ा तो तुम्हारा दलितों ने भी कुछ नहीं है। फिर तुम क्यों उनके ऊपर अत्याचार करते हो?
मतलब—पड़ोसी जी अकबका गए। ये क्या कह रहे हो। पहले तो इस बात का यहां कोई मतलब नहीं। दूसरा मैं तो बिल्कुल भेदभाव नहीं करता।
आप नहीं करते, लेकिन बहुत लोग तो करते हैं।
लेकिन आप इसके लिए सबको क्यों दोष दे रहे हैं—पड़ोसी ने काउंटर तर्क रखा
बिल्कुल मैं यही तो समझा रहा हूं कि आप किसी एक घटना के लिए सारे मुसलमानों को कैसे दोष दे सकते हैं। और वहां, जहां अपनी सरकार की नीतियों के अलावा विदेशी ख़ासकर पड़ोसी मुल्क का भी बहुत दख़ल हो। घाटी में आग लगाने में पाकिस्तान के दख़ल से कौन इंकार कर सकता है।
शांत वादियां बार-बार क्यों सुलगीं, इसका गंभीरता से विवेचन करना होगा, न कि एक फ़िल्म के नाटकीय संवाद और नारेबाज़ी कर कुछ हासिल होगा।
कश्मीर की घटना के लिए कोई कैसे सारे देश के मुसलमानों को कठघरे में खड़ा कर सकता है। और देश क्या, कश्मीर के ही सारे मुसलमानों को कैसे दोषी कह सकते हैं आप, जबकि वहां न जाने कितने पंडितों को बचाते हुए मुस्लिम भी कुर्बान हो गए। आम लोगों के अलावा एक से एक बड़े मुस्लिम नाम हैं। इनमें नेता हैं, सूफी-संत तक हैं, जो भी उस पागलपन के ख़िलाफ़ बोला, मारा गया। जिसने भी अम्न-भाईचारे की बात की मारा गया।
जबकि बताओ गुजरात में मुसलमानों को बचाते हुए कितने हिंदू मारे गए।
नहीं—नहीं…ये सब बकवास है। मुसलमान होते ही ऐसे हैं, निर्दयी, कट्टर। पड़ोसी अपनी बात पर कायम थे।
मतलब आपके तर्क के हिसाब से सोचा जाए तो महिलाओं पर अत्याचार के लिए, उनके बलात्कार के लिए सारे पुरुष दोषी हैं। यानी पुरुष का होना ही महिला अत्याचार की जड़ है।
नहीं, नहीं, आप यह बार-बार कैसे तर्क ला रहे हैं।
मैं तो यह बार बार कहूंगा
कि कश्मीरी पंडितों के कत्लेआम के लिए सारे मुसलमान उतने ही दोषी हैं जितने गुजरात में मुसलमानों के कत्लेआम के लिए सारे हिंदू।
जितने सिख नरसंहार के लिए सारे हिंदू।
जितने दलित उत्पीड़न के लिए सारे सवर्ण।
जितने महिला उत्पीड़न के लिए सारे मर्द।
तब तक ऐसे तर्क दूंगा जब तक तुम एक घटना विशेष के लिए सारे मुसलमानों को टार्गेट करना नहीं छोड़ेगे।
मैं आपको समझाना चाहता हूं कि जैसे महिलाओं पर अत्याचार के लिए पुरुष नहीं बल्कि पुरुषवाद, पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था ज़िम्मेदार है। दलितों पर अत्याचार के लिए मनुवादी ब्राह्मणवादी व्यवस्था ज़िम्मेदार है। उसी तरह कश्मीर समस्या के लिए अपनी सरकार की नीतियां और पड़ोसियों की दख़ल भी ज़िम्मेदार है, आम मुसलमान नहीं। वे तो आज भी पंडितों के साथ प्रेम से रहना चाहते हैं।
तो चलिए आप इतना तो मानते हैं कि कश्मीर समस्या के लिए नेहरू-गांधी ज़िम्मेदार हैं। कांग्रेस ज़िम्मेदार है। पड़ोसी सवाल उछालकर विजेता की तरह मुस्कुराया।
मैंने कहा- हां, बिल्कुल, नेहरू-गांधी न होते तो न कश्मीर भारत का हिस्सा होता, न यह समस्या होती।
मतलब….पड़ोसी जी अकबकाए
मतलब यह कि पूरे देश की आज़ादी के लिए ही कांग्रेस ज़िम्मेदार थी। दूसरी पार्टी कहां थी। आपकी हिंदू महासभा, आपकी आरएसएस कहां आज़ादी के आंदोलन में साथ थी। वे तो इसके विरुद्ध थे। अंग्रेजों के साथ थे। वरना बताइए कि किस महासभाई ने, किस संघी ने देश की आज़ादी के लिए शहादत दी।
ये कैसी बात कर रहे हैं आप…वीर सावरकर का नाम तो आप जानते ही होंगे।
जी, मैं इस माफ़ीवीर को कैसे भूल सकता हूं। क्या अंग्रेजों ने उन्हें फांसी दी, क्या गोली मारी। उनकी मौत कैसे हुई।
नहीं..मैं कह रहा हूं उन्हें कालापानी की सज़ा तो दी गई थी।
जी, बिल्कुल इसी वजह से आप आज उनका कुछ नाम ले पाते हैं। वीर कह पाते हैं….लेकिन आपको देखना होगा कि उनके जीवन के दो हिस्से हैं। कालापानी की सज़ा से पहले वे एक क्रांतिकारी हैं, लेकिन कालापानी की सज़ा के बाद वे रिहाई के लिए अंग्रेजों से बार-बार माफ़ी मांगने वाले, उनके प्रति वफादार रहने वाले और अन्य लोगों को भी आज़ादी के आंदोलन से दूर ले जाने का वादा करने वाले एक कमज़ोर व्यक्ति हैं। रिहाई के बाद उनका पूरा जीवन अंग्रेज़ों की वफादारी में बीता। हिंदू-मुस्लिम बंटवारे में बीता। अंग्रेज़ों से मिलनी वाली पेंशन पर बीता। अगर वे एक क्रांतिकारी होते तो अंग्रेज उन्हें पेंशन देते। वही पहले व्यक्ति थे जिन्होंने जिन्ना से पहले द्विराष्ट्र का सिद्धांत दिया।
आप कश्मीर की बात को कहां से कहां ले गए। ये तो कोई बात नहीं हुई।
आप ही ले गए इतना दूर….चलिए मुद्दे पर लौटते हैं। आप मानते हैं कि कश्मीर की समस्या कांग्रेस की देन है। नेहरू-गांधी की देन है। तो आपको यह भी जानना चाहिए कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने भारत में रहने का फ़ैसला ही नेहरू-गांधी की वजह से लिया। वरना अंग्रेज़ों ने तो उन्हें आत्मनिर्णय का अधिकार दिया था। शुरू में वे अलग रियासत के तौर पर ही रहना चाहते थे। बाद में कबायली हमले के बाद उन्होंने भारत की मदद मांगी और भारत के साथ रहना चुना। उस समय ये क्या आरएसएस की वजह से हुआ या सावरकर की वजह से?
हां, उसी समय इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन यानी विलय पत्र पर हस्ताक्षर हुए और स्थिति सामान्य होने पर जनमत संग्रह का वादा भी किया गया। जिसे कभी पूरा नहीं किया गया।
जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा दिया गया। और जिस धारा (अनुच्छेद) 370 को आप विवाद का विषय मानते हैं, यही अनुच्छेद उस पुल की तरह था जो भारत और कश्मीर को जोड़ता था।
नहीं….हमने इतना इतिहास नहीं पढ़ा।
नहीं पढ़ा तो पढ़ना चाहिए। क्या सारा ज्ञान वाट्सऐप से ही लोगे। एक फ़िल्म देखकर ही उबाल खाते रहोगे।
आप बात लंबी खींच रहे हैं।
जी नहीं, अभी तो बहुत बाकी है। अगर विस्तार से बताऊं तो पूरी किताब लिखी जाएगी। कैसे एक मुस्लिम बहुल रियासत का राजा हिंदू था। कैसे तमाम संसाधनों और पदों पर कश्मीरी पंडित विराजमान थे। कैसे शेख अब्दुल्ला का उदय हुआ। कैसे कश्मीर आगे बढ़ा। कैसे कश्मीर समस्या पैदा हुई और उसका कैसा नासमझी भरा हल निकाला गया।
तो क्या आप कश्मीर समस्या के लिए कांग्रेस को बिल्कुल भी दोषी नहीं मानते
मानता हूं। कांग्रेस के बहुत दोष हैं। लेकिन सिर्फ़ कांग्रेस के दोष गिनवाकर कुछ नहीं होगा। आपको उस समय की सत्ता से भी सवाल पूछने होंगे जिस समय कश्मीरी पंडितों का कत्लेआम और पलायन हुआ।
आपको मालूम है उस समय केंद्र में किसकी सत्ता थी
सन् 90 में जब यह सब हुआ उस समय केंद्र में बीजेपी के समर्थन से जनता दल की सरकार थी। प्रधानमंत्री थे वीपी सिंह। और बीजेपी के सर्वेसर्वा थे आपके प्रिय अटल बिहारी वाजपेयी और आपके ‘लौह पुरुष’ लालकृष्ण आडवाणी। और कश्मीर में राज्यपाल थे अटल-आडवाणी के प्रिय, आरएसएस से जुड़े जगमोहन। जिन्हें बहुत सख्त राज्यपाल माना जाता था। उन्हीं का शासन था वहां। जैसे अन्य राज्यों में ऱाष्ट्रपति शासन लगता है, कश्मीर में राज्यपाल शासन होता था। लेकिन इन सब ने उस समय क्या किया हालात खराब हुए, जब पंडितों पर हमला हुआ। पलायन हुआ। आपके प्रिय आडवाणी जी तो इससे पहले मंदिर अभियान में जुटे थे। और बाद में मंडल की काट में कमंडल लेकर सोमनाथ से अयोध्या तक की रथयात्रा पर निकल गए। उनके सारथी थे आपके प्रिय यही मोदी जी।
90’ की जनवरी में जब सब यह हुआ अटल-आडवाणी ने कश्मीर को लेकर कोई चिंता नहीं जताई। उसके बाद भी उन्होंने इस पर कोई संज्ञान नहीं लिया। अगस्त से उनकी मुख्य चिंता हो गई थी कि वीपी सिंह ने कैसे पिछड़ों के उत्थान के लिए मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू कर दिया। उन्हें तो बस अपने सवर्ण वोटर्स की नाराज़गी का डर था। उन्हें नहीं चिंता थी कि कश्मीर में क्या कुछ हुआ या हो रहा है।
बीजेपी ने कश्मीर को लेकर वीपी सिंह को कोई चेतावनी नहीं दी। चेतावनी दी तो सिर्फ़ यही कि अगर आडवाणी का रथ रोका गया तो सरकार से तत्काल समर्थन वापस ले लिया जाएगा। और ऐसा ही किया गया। बिहार की सीमा में प्रवेश करते ही लालू प्रसाद यादव ने आडवाणी का रथ रोक दिया और बीजेपी ने समर्थन वापस लेकर सरकार गिरा दी।
तो यह किस्सा है उस समय सत्ता की भागीदार और कश्मीर को अपने अनुसार सेना के बल पर कंट्रोल में रखने का मंसूबा पालने वाली आपकी तथाकथित राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी का। उसने कश्मीर मुद्दे पर सरकार नहीं गिराई, बल्कि रथयात्रा रोकने पर सरकार गिराई।
‘एक देश और दो विधान, दो निशान नहीं चलेंगे’ का नारा देने वाली आपकी पार्टी ने उसी मुफ्ती मोहम्मद सईद की पार्टी पीडीपी से गठबंधन करके 2015 में जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाई, जिसे आप फिल्म देखकर गालियां दे रहे हैं और उन्हें और उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती को आतंकवादियों-अलगाववादियों का सरपरस्त बता रहे हैं।
कश्मीर पंडितों को लेकर राजनीति करने वाली आपकी पार्टी के पुराने बड़े नेता (आडवाणी) का रोते हुए वीडियो देखकर आप भावविह्वल हो रहे हैं (हालांकि कहा जा रहा है कि वे ‘कश्मीर फाइल्स’ नहीं बल्कि ‘शिकारा’ फिल्म देखकर रो पड़े थे।) लेकिन उन्होंने क्या किया, आपने नहीं पूछा। और आपके आज के ही बड़े नेता ने क्या किया। पूरे कश्मीर को नज़रबंद करके चुपके से अनुच्छेद 370 और 35A हटा दी। और क्या कहा कि अब वहां के हालात बदल जाएंगे। विकास होगा। लेकिन आज तीन साल बाद भी वहां ज़िंदगी पटरी पर नहीं लौटी। सारा कारोबार ठप है। पहले 370 के लिए लॉकडाउन और फिर कोविड के चलते लॉकडाउन। सबकुछ तबाह-बर्बाद है।
और आपके लिए जो जुमला उछाला गया था कि अब वहां कोई भी प्लाट खरीद सकता है। तो आज तीन साल बाद इनकी नीतियों की वजह से कश्मीर में प्लाट खरीदना तो दूर, आपके दिल्ली, यूपी के फ्लैट तक बिकने की नौबत आ गई है।
और आज के कश्मीरी के आंसू देखे बिना, आप सन् 90 के कश्मीर पर रो रहे हैं। इन 30-32 सालों में कितने कश्मीरी नौजवान मारे गए, लापता हो गए, कोई गिनती नहीं, कोई रिकार्ड नहीं। चलिए यही बताइए कि पलायन करने वाले कश्मीरी पंडितों का ही हाल पूछने आज तक कितने नेता उनके पास गए, जम्मू में, दिल्ली में उनकी बस्तियों में जाकर हाल लिया। उनके पुनर्वास के लिए क्या किया, कुछ बताइए। अब तो आपकी बड़ी मजबूत सरकार है अब क्यों नहीं लौट पा रहे कश्मीरी पंडित।
फिर मैं आपसे पूछूंगा, बार-बार पूछूंगा कि
ये भी बताइए Mr. Hypocrite, आपके यह आंसू न गुजरात दंगों के समय बहते हैं, न भागलपुर। न मेरठ के मलियाना और हाशिमपुरा नरंसहार के समय। जब पीएसी के जवानों ने मुसलमानों को जबरन ट्रक में ले जाकर सरेआम गोली से उड़ा दिया और लाशों को हिंडन नदी में बहा दिया।
ये आंसू नेल्ली नरसंहार (असम) के समय भी नहीं बहते, जहां सरकारी आंकड़ों के हिसाब से ही 2 हजार के आसपास मुस्लिम 18 फरवरी, 1983 की सुबह कुछ ही घंटों में मार दिए गए। गैरसरकारी आंकड़ा तो बहुत ज़्यादा है।
ये आंसू उस समय भी नहीं बहते जब महाराष्ट्र के खैरलांजी में दलितों की हत्या होती है और उनकी महिलाओं को सरेआम नंगा कर पूरे गांव में घुमाया जाता है।
चाहे सन् 84 में सिखों का कत्लेआम हो, या 90 में कश्मीरी पंडितों का या 2002 में गुजरात में मुसलमानों का। या 92 में बाबरी मस्जिद ढहाकर पूरे देश को दंगों की आग में झोंककर बेगुनाह हिंदू-मुसलमानों को मौत के घाट उतारने का। दो आंसू तो इनके लिए भी बनते हैं।
आंसू तो हाथरस की बेटी को इंसाफ़ न मिलने पर भी बहने चाहिए और दिल्ली की गुड़िया मामले में भी। और कठुआ की बच्ची के लिए भी। आंसू तो हर ऐसी घटना पर बहने चाहिए।
लेकिन आपके आंसू सेलेक्टिव (Selective) हैं संघी महाराज। कभी बहते हैं, और अक्सर नहीं।
और सिर्फ़ आंसू बहाने से क्या काम होगा? अपनी सरकारों से पूछना होगा कि उसके रहते ऐसा क्यों हुआ, उसने ऐसा कैसे होने दिया या ये सब उसने ही प्रायोजित किया।