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in Features, Roundup

उसके आने की आहट मुझे जगाती है और मैं अपनी ज़मीन की तबाही समझने लगता हूँ

byVijay Prashad
September 21, 2021
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मृणमय देबबर्मा (त्रिपुरा, भारत), पहले यह जंगल था, 2015.

प्यारे दोस्तों,

ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।

बुधवार, 8 सितंबर को, भारत की सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के कार्यकर्ताओं ने अगरतला (त्रिपुरा) के मेलरमठ क्षेत्र में तीन इमारतों पर हमला किया। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी), कम्युनिस्ट अख़बार दैनिक देशार कथा, और दो निजी मीडिया संस्थानों -प्रतिबदी कलाम व पीएन-24- के कार्यालय उनके प्रमुख निशाने थे। यह हिंसा दिनदहाड़े हुई और पुलिस खड़ी देखती रही। पूरे त्रिपुरा में, इन कार्यालयों के अलावा कम्युनिस्टों के चौवन अन्य कार्यालयों पर हमला किया गया था।

कम्युनिस्ट पार्टी – सीपीआई (एम) – और ये मीडिया संस्थान भाजपा के नेतृत्व वाली राज्य सरकार से सवाल पूछते रहे हैं। सीपीआई (एम) और अन्य संगठनों ने कई नीतियों का विरोध करने के लिए प्रदर्शन किए थे; इन विरोध प्रदर्शनों को जनता का काफ़ी समर्थन मिला। त्रिपुरा में 1978 से 1988 तक और 1993 से 2018 तक वाम मोर्चा की सरकार रही थी, जिसमें सीपीआई (एम) एक प्रमुख घटक था।

 

अर्पिता सिंह (भारत), आप यहाँ क्या कर रहे हैं? 2000.

हमलों से कुछ दिन पहले, पूर्व मुख्यमंत्री और सीपीआई (एम) नेता माणिक सरकार को अपने निर्वाचन क्षेत्र धनपुर (सिपाहीजाला) में जनसभा करनी थी। भाजपा कार्यकर्ताओं ने माणिक सरकार की कार को धनपुर में प्रवेश करने से रोकने की कोशिश की। माणिक सरकार ने, सीपीआई (एम) कार्यकर्ताओं के साथ, छ: किलोमीटर पैदल चलकर भाजपा द्वारा लगाए गए दो बैरिकेड पार किए। यह जनसभा भाजपा के ख़िलाफ़ चल रहे व्यापक कम्युनिस्ट अभियान का हिस्सा थी।

2018 से, सीपीआई (एम) पर हमले नियमित हो गए हैं। त्रिपुरा के कम्युनिस्टों की रिपोर्ट है कि मार्च 2018 से सितंबर 2020 के बीच, 139 पार्टी कार्यालयों में आगज़नी हुई, 346 पार्टी कार्यालयों में तोड़फोड़ की गई, जन संगठनों के 200 कार्यालयों में तोड़फोड़ की गई, 190 सीपीआई (एम) सदस्यों के घरों में तोड़-फोड़ की गई, 2,871 पार्टी कार्यकर्ताओं के घरों पर हमला किया गया, 2,656 पार्टी कार्यकर्ताओं पर शारीरिक हमले किए गए, और 18 सीपीआई (एम) नेता व कार्यकर्ताओं की हत्या हुई।

इंटरनेशनल पीपुल्स असेंबली सहित दुनिया भर के संवेदनशील लोगों और संगठनों ने भारत के वामपंथियों पर हुए इन हमलों की निंदा की।

 

गोपाल डग्नोगो (कोटे डी आइवर), मुर्गियों के साथ स्थिर वस्तु-चित्र, 2019.

भारत के उत्तर-पूर्व में लगभग 36 लाख की आबादी वाले इस राज्य में जो हुआ, वह हमारे मौजूदा समय में लोकतंत्र का एक सामान्य हिस्सा बन चुका है। जनता की आवाज़ बुलंद करने की कोशिश करने वालों के ख़िलाफ़ दक्षिणपंथियों द्वारा राजनीतिक हिंसा अब आम बात हो गई है।

त्रिपुरा में हुए इस हमले से कुछ ही हफ़्ते पहले, हिंसा के एक भयानक कृत्य ने दक्षिण अफ़्रीका के एक ट्रेड यूनियन नेता को ख़ामोश कर दिया। मालीबोंग्वे म्दाज़ो, 19 अगस्त को रस्टेनबर्ग (दक्षिण अफ़्रीका) में कमिशन फ़ोर कन्सिलीएशन, मीडीएशन एंड आर्बिट्रेशन के दरवाज़े पर खड़े थे, वहीं उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई। म्दाज़ो दक्षिण अफ़्रीका के नेशनल यूनियन ऑफ़ मेटलवर्कर्स (नुमसा) के एक नेता थे, और सिर्फ़ एक महीने पहले उन्होंने दुनिया के दूसरे सबसे बड़े प्लैटिनम उत्पादक -इम्पाला प्लेटिनम होल्डिंग्स- के ख़िलाफ़ 7,000 कर्मचारियों की हड़ताल आयोजित की थी।

म्दाज़ो की राजनीतिक हत्या से नौ साल पहले एक ब्रिटिश खनन कंपनी लोनमिन द्वारा संचालित प्लैटिनम खदानों में 34 खनिक मारीकाना हत्याकांड में मारे गए थे। दक्षिण अफ़्रीका की प्लेटिनम बेल्ट में तनाव का कारण केवल म्दाज़ो की हत्या और मारीकाना हत्याकांड नहीं है, बल्कि खनन कम्पनियों के सहयोगी -और यहाँ तक कि प्रतिद्वंद्वी यूनियनें भी- औद्योगिक विवादों को सुलझाने के लिए वहाँ गंभीर हिंसा का सामान्य रूप से प्रयोग करते हैं।

 

कुदज़ानई-वायलेट ह्वामी (ज़िम्बाब्वे), एडम पर एक सिद्धांत, 2020.

डोजियर नं. 31 (अगस्त 2020), ”ख़ून की राजनीति’: दक्षिण अफ़्रीका में राजनीतिक दमन’ में हमने उस राजनीतिक हिंसा के बारे में लिखा था जो दक्षिण अफ़्रीका में सामान्य हो गई है। उस रिपोर्ट का एक अंश ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए:

ट्रेड यूनियन नेताओं की हत्याएँ जारी हैं। एएनसी से अलग स्वतंत्र रूप से काम करने वाले दक्षिण अफ़्रीका के डेमोक्रेटिक म्यूनिसिपल एंड एलाइड वर्कर्स यूनियन ऑफ़ साउथ अफ़्रीका (डेमावुसा) की डिप्टी चेयरपर्सन बोंगानी कोला की 4 जुलाई 2019 को पोर्ट एलिज़ाबेथ शहर में हत्या कर दी गई।

बहु-राष्ट्रीय खनन कंपनियों, पारंपरिक प्राधिकरण और राजनीतिक अभिजात वर्ग के बीच के गठजोड़ के कारण खनन-विरोधी सामुदायिक कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ हिंसा निरंतर जारी है। 26 जनवरी 2020 को, ग्रामीण क्वाज़ुलु-नटाल के एक कोयला खनन शहर डैनहॉज़र में सफामंडला फुंगुला और म्लोंडोलोज़ी ज़ुलु की हत्या कर दी गई। 25 मई 2020 को, क्वाज़ुलु-नटाल के एक छोटे से तटीय शहर सेंट लूसिया में फ़िलिप मखवानाज़ी को मार दिया गया; फ़िलिप खनन विरोधी कार्यकर्ता थे और एएनसी के पार्षद भी थे। एक महीने बाद, क्वाज़ुलु-नटाल के उत्तरी तट पर म्पुकुन्योनी ट्राइबल अथोरिटी द्वारा शासित क्षेत्र में, म्जोथुले ब्येला की हत्या करने की कोशिश की गई।

ये ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता, राजनीतिक नेता और सामुदायिक संगठनों के कार्यकर्ता ऐसे लोग हैं जो लोगों में विश्वास जगाना चाहते हैं, उन्हें आगे बढ़ाने की ललक रखते हैं। जब इन नेताओं की हत्या कर दी जाती है या जब उनके कार्यालयों को जला दिया जाता है, तो एक रौशनी मद्धिम होने लगती है। जो लोग हिंसा और हमलों को अंजाम देते हैं, वे सोचते हैं कि प्रतिरोध की ज्वाला बुझ जाएगी और टूटे हुए विश्वास के साथ लोगों को अधीन बनाए रखना जारी रहेगा। लेकिन यह इस तरह की राजनीतिक हिंसा का केवल एक परिणाम है। दूसरा परिणाम भी उतना ही मुमकिन है, और वो यह है कि ये हत्याएँ और हिंसा लोगों में हिम्मत भरती हैं। फुंगुला, ज़ुलु, मखवानाज़ी, और अब म्दाज़ो ऐसे नाम हैं जो हमें झकझोर देते हैं, जो हमें संघर्षों की लौ को फिर से जलाने के लिए मजबूर करते हैं।

 

 

जब भाजपा कार्यकर्ताओं ने सीपीआई (एम) कार्यालय पर हमला किया, तो उन्होंने दशरथ देब (1916-1998), जिन्होंने त्रिपुरा के अंतिम राजा के ख़िलाफ़ मुक्ति संघर्ष का नेतृत्व किया था, की प्रतिमा को तोड़ने की भी कोशिश की। देब का जन्म एक ग़रीब किसान परिवार में हुआ था, जिसकी जड़ें त्रिपुरा की स्वदेशी संस्कृति में गहराई से जमी हुई थीं। देब एक सम्मानित कम्युनिस्ट नेता थे, जिन्होंने 1993 से 1998 तक राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में त्रिपुरा में जीवन के सभी पहलुओं का लोकतंत्रीकरण करने के लिए संघर्ष किया। यह देब के नेतृत्व वाले संघर्षों और फिर माणिक सरकार के नेतृत्व वाली वाम मोर्चा सरकार के कामों का ही नतीजा है कि त्रिपुरा राज्य ने अपने मानव विकास सूचकांक को उल्लेखनीय रूप से आगे बढ़ते देखा। जब 2018 में कम्युनिस्टों ने पद छोड़ दिया, तो राज्य की साक्षरता दर 97% थी, जो कि स्कूल की मुफ़्त किताबें, सार्वभौमिक मुफ़्त शिक्षा और बड़े पैमाने पर विद्युतीकरण अभियान (राज्य के 90% घरों में बिजली है) जैसे प्रावधानों से संभव हुई थी।

 

अविनाश चंद्र (इंडिया), शुरुआती आँकड़े, 1961.

त्रिपुरा में जब भाजपा सरकार में आई, तो उसके कार्यकर्ताओं ने दशरथ देब की कई प्रतिमाएँ तोड़ीं, और उनके नाम पर स्थापित संस्थानों के साइनबोर्डों को ख़राब करने की कोशिशें की। देब एक आदिवासी नेता थे; इसलिए इन हमलों को केवल वामपंथियों पर हमले की तरह नहीं देखना चाहिए, बल्कि भाजपा इन हमलों के द्वारा आदिवासी समूहों और उत्पीड़ित जातियों को एक कड़ा संदेश देना चाहती है कि उन्हें ऐतिहासिक रूप से शक्तिशाली समुदायों की उपस्थिति में अपने कंधे झुकाकर रखने चाहिए। यह केवल राजनीतिक हिंसा नहीं है, बल्कि यह सामाजिक हिंसा भी है। यह सामाजिक हिंसा होंडुरस के गारिफुना नेताओं और कोलंबिया के एफ्रो-वंशज नेताओं जैसे लोगों के ख़िलाफ़ है, जो अपने सिर को ऊपर उठाने और अपनी छवि में दुनिया का निर्माण करने का साहस दिखाते हैं। ग्लोबल विटनेस, लास्ट लाइन ऑफ़ डिफेंस की एक नई रिपोर्ट से पता चला है कि 2020 में बड़ी संख्या में आदिवासी कार्यकर्ता मारे गए (227 लोग, यानी एक सप्ताह में चार से अधिक कार्यकर्ता); और इनमें से आधे सिर्फ तीन देशों (कोलंबिया, मैक्सिको और फिलीपींस) के रहने वाले थे और ये सभी मनुष्यों की गरिमा और प्रकृति को बचाने का संघर्ष कर रहे थे।

त्रिपुरा के महान कवियों और कम्युनिस्ट नेताओं में से एक, अनिल सरकार ने अपने साहित्यिक और राजनीतिक जीवन का अधिकांश समय राज्य के दलितों की आवाज़ उठाने और उनकी नियति बदलने में बिताया। सरकार की बुलंद कविताएँ कहती हैं कि पुरानी सामाजिक ताक़तें अब समाज पर उस तरीक़े से हावी नहीं हो पाएँगी जैसा कि वो एक समय पर थीं। उनके पास न केवल महान नेता डॉ. बी.आर. अम्बेडकर का उदाहरण था, बल्कि उनके पास कार्ल मार्क्स और वामपंथ की विरासत भी थी। ‘मार्क्सेर प्रति’ में मार्क्स को पढ़ने के बारे में सरकार ने लिखा है कि ‘उसके आने की आहट मुझे जगाती है और मैं अपनी ज़मीन की तबाही समझने लगता हूँ’। किसी और कविता में, सरकार एक दलित हीरा सिंह हरिजन से कहते हैं कि तुम्हें सत्ता अपने-आप नहीं मिल जाएगी; ‘तुम्हें, बड़े होकर, उसे छीनना पड़ेगा’।

स्नेह-सहित,

विजय।

Disclaimer: The views expressed in this article are the writer's own, and do not necessarily represent the views of the Indian Writers' Forum.

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