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वर्कर्स फ्रोम होम, युनाईट!

byJaidev DoleandGorakh Thorat
May 26, 2021
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Representative image taken from woot.com

वर्कर्स फ्रोम होम, युनाईट! हैव यू नथिंग टु लूज  बट युवर ‘एलिनेशन’!!

आपका कोई कार्यकर्ता मित्र कब आपको झमेले में फंसा देगा, कहा नहीं जा सकता। उसका यह आदेश कि ‘भाषण देने के लिए आइए’, दो कारणों के लिए टालना कठिन हो जाता है। पहली चिंता इस बात की कि यदि हम नहीं गए तो कहीं संगठन में उसकी जगह खतरे में न पड़ जाए। दूसरी चिंता इस बात की कि कहीं उसे यह न लगे कि हम उसके समर्थकों को महत्व नहीं देते। इसलिए हमें जाना ही पड़ता है। हमारा मित्र कार्यकर्ता होने के कारण उसके पास पढ़ने, सोचने, अध्ययन का पर्याप्त समय नहीं होता। थोड़ी-बहुत पढ़ाई और अध्ययन उसे भी करना पड़ता है, लेकिन उसे लगता है कि हम उससे ज्यादा अध्ययनशील और विचारशील हैं। ऐसे में अपने अहंकार और उसके रोष मुक्त होने का एकमात्र रास्ता यही बचता है कि आप चुपचाप चले जाओ और दिए गए विषय पर बात करो।

कुछ दिन पहले, भारत संचार निगम लिमिटेड के हमारे कार्यकर्ता मित्र रंजन दानी ने अचानक मुझे प्रस्ताव दिया कि किसी अध्ययन वर्ग की तरह मैं ‘अलगाव’ यानी ‘एलिनेशन’ ( जिसे मराठी में ‘परात्मता’ कहा जाता है) विषय पर कुछ बोलूं। हे भगवान! मेरे सामने यह प्रश्न उठा कि मार्क्सवाद से ‘एलिनेट’ हुई दुनिया मार्क्सवाद के उस सिद्धांत में दिलचस्पी लेगी! मैंने लगभग 35-40 साल पहले भी इस विषय का अध्ययन किया था। बाद में दुनियादारी में इस कदर डूब गया कि पीछे मुड़कर देखना ही नहीं हुआ। लेकिन कोरोना आया और समूचे संसार को परात्मता, अलगाव, वियोग या टूटन का अनुभव करना पड़ा। जिन लोगों को कंप्यूटर पर बहुत ज्यादा काम नहीं करना पड़ता, उनका संसार यथावत था। उन्होंने दुनिया को थोड़ा-बहुत जोड़े रखा था, लेकिन कंप्यूटर सेवाओं में काम करने वाले लोगों को वैसे भी आभासी दुनिया से संपर्क बनाना पड़ता है। कोविड का संक्रमण फैलने के बाद तो उनके लिए इंटरनेट की तरह स्थल-कालातीत रहना अनिवार्य ही हो गया। आखिरकार है तो नौकरी, उसके लिए कार्यालय और मेज-कुर्सी क्या जरुरत? कंप्यूटर खोलकर कनेक्ट करो और काम शुरू। बाकी तामझाम किसलिए? मालिक का बैठे-ठाले लाभ। इमारत  का किराया, पानी और बिजली का खर्च, परिवहन, सुरक्षा, रेस्तरां, यात्रा, भत्ते, रखरखाव और मरम्मत, मेज और कुर्सियां, सफाई …. सब की बचत की उन्होंने। ऊपर से वेतन भी कम कर दिया। यह सब घटा दिया, लेकिन काम के घंटे असीम कर डाले। एक-एक को दो-दो काम सौंपे गए।

पहले तो ‘वर्क फ्रॉम होम’ का आइडिया कुछ इस तरह रंगाया था कि क्या कहें! घर पर ही काम। और वह भी अपने पसंदीदा लोगों के साथ। वाह! चाहे जैसा, चाहे जब और चाहे जहाँ बैठो और काम करो। टाई पहनकर आना और समय पर अपनी उपस्थिति की सूचना देने की अनिवार्य खत्म। घर के खाने के लालच ने तो बहुतों को ऐसा ‘श्रमिक’ बनने के लिए प्रेरित किया! दूसरे शहर में रहने का कितना सारा खर्च बच गया। किराया, यात्रा, भोजन, पेट्रोल, पार्टियां, खरीदारी और घूमना, सबकी बचत। समय का पालन करो और छुट्टियों के लिए चिरौरी करो – सवाल ही नहीं।

काम की जगह से दूर, घर पर आराम से काम करने का अनुभव पहले तो कई लोगों के लिए राहत दे गया। एकांत, अकेलापन, शांति और अनुशासन, सामूहिक कार्य पद्धति से मुक्ति ने भी कई लोगों का मन मोह लिया।

काम शुरू हुआ। देखते ही देखते एक साल खत्म हो गया। लेकिन साल क्यों, चौथे-पांचवें महीने में ही सारा कल्पना-जगत धराशायी हो गया। घर में होकर भी न होने जैसा। घर में ही घर की तरफ पीठ फेरकर बैठने की नौबत आई। न कोई गपशप, न सान्निध्य, न घर के काम और न ज़िम्मेदारियों का पालन। जो जगह काम के लिए चुनी, उसी पर मानो इन मजदूरों का कब्जा हो गया। छोटे बच्चे उधर नहीं जाएंगे, और बड़े भी बीच-बीच में आकर खलल नहीं डालेंगे। भोजन की अनुमति लेकर जैसे-तैसे दो निवाले पेट में धकेलना और दोबारा डेस्कटॉप या लैपटॉप के सामने बैठना। मुझे बकासुर की कहानी ही याद आने लगी। पूरी गाड़ी भरकर अनाज खाने के  बावजूद उसका पेट नहीं भरा था। ऊपर से साबुत आदमी खाने के लिए भी तैयार। इतना-सा वह कांच का पर्दा, लेकिन 70mm परदे पर पेंसिल से लिखने के लिए बिठाएं, ऐसा महाकाय काम। फोन करते रहो, बोलते-सुनते रहो और इस विंडो से उस विंडो में जाओ। बिल्कुल ‘गोविंडो’ बन गया सबका! कभी रेंज गायब, तो कभी कॉल ड्रॉप। ऑफिस में सिर उठाकर, ‘ए ब्रो’ कहकर कुछ पूछने की आदत। वह चली गई तो चली ही गई। वह समय और इस समय के बीच का फर्क महसूस हुआ। बाहर लॉकडाऊन, भीतर लॉकअप।

बिजली के जाने पर कम्प्यूटर की जैसी निरुपाय दशा होती है, वैसी ही लड़के और लड़की के घर आने पर मां-बाप को खुशी हुई। इन्वर्टर या बैकअप के रूप में मातृत्व और पितृत्व भी कितनी देर तरोताजा रखें? बच्चों के घर लौट आने की सारी ताजगी अस्त हुई। दोस्तों की बातें, सहेलियों की और गपशप, चीख-पुकार, गाना-बजाना, सारा शोर खामोश हुआ। सारे जीव से अकेले।

क्या कहें इस अवस्था को? टूटन, दूरी, अलिप्तता, फासला, अलगाव, अजनबीपन या परात्मता? सन 1844 में कार्ल मार्क्स ने ‘द इकोनॉमिक एंड फिलॉसॉफिकल मैनुस्क्रिप्ट्स’ नामक एक पुस्तक लिखी थी। यह 1932 में प्रकाश में आयी। इसमें उन्होंने ‘एलिनेशन’ अर्थात ‘परात्मता’ सिद्धांत प्रस्तुत किया है। पूंजीवादी व्यवस्था का अध्ययन करते हुए उन्होंने पाया कि एक श्रमिक जो कुछ भी उत्पादन करता है, वह उसका हुए बिना उससे दूर चला जाता है। उस पर उसका कोई अधिकार नहीं रहता। बल्कि यह उत्पादन श्रमिकों पर ही हावी होने लगता है। यही नहीं, वह श्रमिक को प्रकृति और मनुष्य से अलग भी करता है। अंत में, चाहे उत्पादन अतिरिक्त हो जाए और बाजार में पड़े रहे, तब भी श्रमिक यानी उत्पादक में उससे दूर होने की भावना बनी रहती है। यही है ‘परात्मभाव’।

जिस उत्पादन और उत्पादन प्रक्रिया में हमने अपना थोड़ा-बहुत स्वत्व उडेला है, वही प्रक्रिया न केवल हमारा स्वत्व छीनती है, बल्कि हमें विशुद्ध रूप से अमानवीय, शुष्क और यांत्रिक बना देती है; कोई खरीद मूल्य वाली वस्तु ही बना देती है। इस प्रक्रिया में श्रमिक उस उत्पादन से परात्म बनता है। पराया हो जाता है। श्रम आनंद और नवनिर्माण का एक बहुत ही स्वाभाविक कार्य है, यह अनुभूति नष्ट हो जाती है। श्रम हमेशा समुदाय के भीतर आकार ग्रहण करता है। श्रम यानी सामूहिक क्रिया। लेकिन उत्पादन की इस प्रणाली में, यह मानवीय स्थिति गायब हो गई है।

मार्क्स ने अपनी युवावस्था में परात्म के बारे में सोचा था। हालांकि उससे पहले हेगेल ने भी इस पर विचार किया था। लेकिन मार्क्स कहता है कि मैंने उसे पैरों पर खड़ा किया है, तो सिर के बल खड़ा था। मार्क्स ने अपने ‘द इकोनॉमिक एंड फिलॉसॉफिकल मैनुस्क्रिप्ट्स’ में मालिक, श्रमिक, पूंजी, निजी संपत्ति, स्वतंत्रता, रचनात्मकता आदि कई मुद्दों पर विचार किया है। यह बताते हुए कि उत्पादन की पूंजीवादी व्यवस्था निजी स्वामित्व के आधार के बिना खड़ी नहीं हो सकती, मार्क्स टोटल मैन, ह्युमनिझम जैसे नए विचार भी प्रस्तुत करता है। उसने सन 1844 में कहा था कि यह शोषक उत्पादन प्रणाली अवांछित है और वह इसे समाजवादी उत्पादन प्रणाली में बदलना चाहता है। तदनुसार, सन 1848 में कम्युनिस्ट घोषणा पत्र प्रकाशित हुआ था। मार्क्स की दुनिया में दार्शनिक, समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री और मनोवैज्ञानिक आदि अनेक आयाम एक साथ आते हैं। लेकिन अंततः आर्थिक विचारों ने सभी को मात दी। इसलिए, बाद के जीवन में मार्क्स परात्मता को विस्तृत रूप नहीं दे सका।

‘वर्क फ्रॉम होम’ की अवधारणा या योजना मालिक वर्ग के लिए फायदेमंद है।

सोवियत रूस, पोलैंड, हंगरी, यूगोस्लाविया, अल्बानिया, रोमानिया, ऑस्ट्रिया, पूर्वी जर्मनी आदि देशों में, समाजवादी अर्थव्यवस्था राजनीतिक सत्ता के कारण अवतरित हुई। इस बात पर भी बहस हुई कि क्या वहाँ श्रमिक परात्मता को महसूस कर रहे हैं। लेकिन यह बहस बहुत आगे नहीं बढी।

अब हमें इलेक्ट्रॉनिक क्रांति की संतान के रूप में परात्मता पर चर्चा करनी है। लगभग 40 वर्षों से यह विषय वर्जित रहा है, जिसके कारण हैं – उत्पादन तकनीकों, उत्पादन साधनों, उत्पादन विधियों, उत्पादन प्रेरणा में तेजी से आते गए बदलाव। इन बदलावों में श्रमिक का स्थान गौण हो गया। इसके पीछे कंप्यूटर, रोबोट, तकनीकी प्रणाली से किया जाने वाला उत्पादन, आधुनिक यंत्र जैसे कई कारकों का प्रभाव था। ‘मॉडर्न टाइम्स’ में चार्ली चैपलिन ने जिस ‘असेंबली लाइन’ उत्पादन पद्धति का मजाक उड़ाया था, वह अभी भी प्रचलित है। लेकिन अब इसमें कर्मचारी ही कम लगते हैं। डिजिटलीकरण की प्रगति के साथ ही उत्पादन पैटर्न बदल गया। लेकिन आदमी या श्रम की तो जरूरत होती ही है। इसीलिए आज का कंप्यूटर के सामने बैठा सुशिक्षित, उच्चशिक्षित विशेषज्ञ, इंजीनियर, शोधकर्ता या तकनीशियन परात्मभाव से अछूता नहीं है। श्रम, कल्पकता, इच्छा और खुशी के बीच एक अटूट संबंध होता है। हम यंत्रवत और वस्तुगत हो गए हैं, यह भावना सन 1844 के आसपास भी थी और 2021 में भी है।

‘वर्क फ्रॉम होम’ की अवधारणा या योजना मालिक वर्ग के लिए फायदेमंद है। लेकिन वह बहुत बड़ा एलिनेशन करती है, जो बहुत जल्द समझ में आ गया है। कई सर्वेक्षणों और परीक्षणों के माध्यम से यह बात सामने आ रही है कि इसका कारण संभवतः यह नहीं है । एक दूसरे से सीखने का सिलसिला थम गया। बातचीत से काम आसान हो जाने की व्यवस्था थम गई। आपात स्थिति में अनुभवी और स्मार्ट सहयोगियों से मिलने वाले सुझाव सूख गए। मुक्त और हल्का-फुल्का वातावरण समाप्त हो गया। हाल-ए-दिल कहना बंद हो गया। नए विचार, मित्र, अनुभवों की आपूर्ति घट गई। ‘घर से काम’ या ‘काम से घर’ की दुविधा का समाधान मुश्किल हो गया।

महिलाओं की व्यावसायिक और व्यक्तिगत जिंदगी को इसने इतना परेशान किया कि क्या कहें! मातृत्व, अभिभावकत्व, जिम्मेदारियां चरमराने लगीं। महिलाओं का स्वतंत्र परात्मभाव एक श्रमिक के रूप में होता ही नहीं। लेकिन उनकी परात्मता और भी परेशान करने वाली हो गई। ‘वर्क फ्रॉम होम’ की अवधि के दौरान, घरेलू हिंसा, मनमुटाव, कटुता, तलाक आदि की समस्याओं में भारत भी फंस गया। पूंजीवादी व्यवस्था ऐसे मजदूर वर्ग को कैसे सह सकती है जो एकाकी, आलसी, चिड़चिड़ा, क्रोधी और अनुत्साही है? पूंजीपतियों ने पहले ही तरह-तरह की साजिशें रचकर मजदूर यूनियनों को उखाड़ फेंका और ऐसा माहौल बनाया कि उनके बारे में सोचा भी न जा सके। ऐसे में शिकायत और न्याय के बारे में कैसे सोचेंगे? सरकार मालिकों के साथ, कानून भी उनके साथ। शिकायत करते ही काम से निकाल दिया जाएगा। घर पर रहकर परिवार के सामने बहस, झगड़ा या संघर्ष भी कितना करें?

अधिकांश घरों में ‘वर्क फ्रॉम होम’ का आभास होता है, लेकिन वास्तव में ये श्रमिक बहुत बेचैन, असंतुष्ट और लाचार हैं। माना कि उनकी यह टूटन इस नई बीमारी के कारण उत्पन्न हुई है, लेकिन काम करने के तरीके आए बदलाव के कारण मुखर हुई परात्मता ने उनके कलेजे पर चोट की है। पूंजीवादी शोषण, मुनाफाखोरी, श्रम विभाजन जैसी कई चीजें समाजवादी या कम्युनिस्टों के भाषणों से सबकी समझ में आई हैं। मार्क्स को किसी ने नहीं पढा है। वे नहीं जानते कि यह परात्मता क्या बला है। लेकिन स्कूल में रटा मुहावरा ‘अनुभव ही सच्चा गुरु है’ आज इन सभी को नया ज्ञान दे रहा है। न कोई हड़ताल, न कोई धरना, न कोई यूनियन और न ही सरकार से कोई शिकायत कर सकते हैं। इस दुविधा और काम के बदले स्वरूप के कारण लोकतंत्र में उनका विश्वास डावांडोल होने लगा है।

इस ‘होम वर्कर’ को यह बात समझ में आई है  कि वर्तमान में उत्पादन की पूंजीवादी व्यवस्था अनियंत्रित हुई है और उसका यह साहस शासकों के सहयोग और अनुमोदन के बिना नहीं हुआ है।

पूंजीवाद और लोकतंत्र में कोई खास दोस्ती नहीं होती। पूंजीवाद को हमेशा से नरेंद्र मोदी जैसा एकाधिकारवादी नेता पसंद होता है। लेकिन एक ओर कोविड का प्रकोप और दूसरी ओर ‘वर्कर्स फ्रॉम होम’ का प्रकोप पूंजीवाद के लिए भी किफायती नहीं है। इसलिए 70% मालिक कारखानों और कार्यालयों को दोबारा खोलने और पुरानी व्यवस्था को बनाए रखने की सोच रहे हैं। इसके अलावा, इतना बड़ा समुदाय घर के भीतर कैद होने के कारण उसका उपभोक्तापन भी समाप्त हो रहा है, जिसका नुकसान पूंजीपति ही सह रहे हैं।

अभिव्यक्ति के कारण ही पूंजीवाद को लोकतंत्र की आवश्यकता है। नए विचार, योजनाएं, उत्पादन, सेवाओं का जन्म खुले वातावरण में होता है। इन पूंजीपतियों के लिए मोदी का दौर बहुत कठिन है। ‘मेक इन इंडिया’, ‘आत्मनिर्भर भारत’, ‘स्मार्ट इंडिया’ जैसी तमाम परियोजनाओं को जन्म देकर इसी तानाशाही शासन ने उनकी हत्या कर दी। कोविड के दौर में कई लोगों ने रचनात्मकता, एकता और सहयोग दिखाकर माहौल को सहनीय बनाया। तानाशाही विचारधारा के संघ और भाजपा से ऐसा क्यों कुछ करते नहीं बना।

परात्मता से मुक्ति का मार्ग यानी रचनात्मक श्रम, स्वतंत्रता की गारंटी देने वाली उत्पादन प्रणाली है! इसलिए, राजनीतिक अर्थव्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जो श्रम और व्यक्ति का सम्मान करे। लेकिन क्या मौजूदा शासक ऐसा होने देंगे? हर्गिज नहीं। उन्होंने यानी भाजपा और उसकी आड में सत्ता चलाने वाले संघ ने सत्ता की राजनीति का बेहद खतरनाक मिश्रण कर दिया है। धर्म, राष्ट्रवाद, भय और घृणा के चार स्तंभों पर अपनी सत्ता प्राप्त की है। मुसलमानों, दलितों, आदिवासियों और महिलाओं के बारे में आक्रोश और नाराजगी पैदा कर उन्हें बाकी आबादी से बाहर कर दिया है। यानी ‘एलिनेट’ किया है। भयानक अफवाहें, भ्रांतियां और असत्य पैदा कर यह अलगाववादी बारूद बनाया गया है। सोशल मीडिया पर अपना दबदबा कायम करने वाली यह पार्टी इन चारों तत्वों को और इस बहाने कांग्रेस पार्टी को भी इस मीडिया से मानो बेदखल कर दिया है।

अब मजे की बात यह है कि जो लोग सोशल मीडिया के कारण यह समझते हैं कि हम कनेक्टेड, कमिटेड और कन्व्हिन्स्ड हैं, उन्हें बाकी समाज ने बहिष्कृत किया है, जिन्हें इसका एहसास भी नहीं है। वरना वे समझ जाते कि बंगाली, तमिल और मलयालम वोटरों ने धर्म-राष्ट्रवाद-भय- घृणा की केमिस्ट्री को फेंक दिया है। एक ओर यह टूटन और अलगाव और दूसरी ओर ‘वर्क फ्रॉम होम’ से उत्पन्न खंडितता। राजनीति पर इसका बहुत गहरा असर पड़ रहा है। साफ-साफ कहें तो सत्ताधारी दल ने भारतीय नागरिकों और श्रमिकों को विभाजित करने का जघन्य और असामाजिक कार्य किया है। साथ ही यह दल पूंजीवाद का प्रबल समर्थक भी है। 

हमारा यह श्रमिक कुछ साल पहले मोदी के प्यार में डूबा हुआ था। आज उसे अपनी ही हालत पर तरस आ रहा है और इसके लिए वह मोदी की कार्य पद्धति को जिम्मेदार मानता है। इस ‘होम वर्कर’ को यह बात अब समझ में आई है  कि वर्तमान में उत्पादन की पूंजीवादी व्यवस्था अनियंत्रित हुई है और उसका यह साहस शासकों के सहयोग और अनुमोदन के बिना नहीं हुआ है। अब उसके पास अगले संकट के खिलाफ एकजुट होने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है।

कोई भी अकेला नहीं लड़ सकता। एक भारतीय के रूप में उन्हें एक दूसरे से दूर किया गया और उसमें यह कोविड कालीन परात्मता आकर जुड़ गई। ऐसा दोबारा न हो, इसलिए संगठन, एकता और गठबंधन की बहुत जरूरत है।

लेकिन क्या ये वर्कर्स परात्मता से आत्मीयता की ओर मुडेंगे … देखते हैं। 

(गोरख थोराट द्वारा हिंदी में अनुवादित)

Image © Woot.com
Jaidev Dole is a retired professor of journalism who has taught at Pune and Aurangabad varsities. He was a journalist for 20 years and is also the author of 9 books. He writes regularly for various publications and web portals.
Gorakh Thorat is an associate professor at the Sir Parashurambhau College, Pune.

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