“वह था एक सच्चा कवि ” यह पंक्ति मेरे प्रिय कवि और मित्र मंगलेश डबराल की कविता ‘ मरणोपरांत कवि ‘की है. शायद मुक्तिबोध के बारे में लिखी गयी यह पंक्ति आज मैं मंगलेश के लिए दोहरा रहा हूँ. कितनी दुखद स्थिति है कि जहाँ ‘है’ होना चाहिए वहां ‘था’ लिखना है. कल तक जो वर्तमान था आज अतीत हो गया है. कल ही श्री. रवींद्र त्रिपाठी की ओर से मंगलेश के मेडिकल रिपोर्ट के बारे में विस्तार से जानकारी मिली थी, और आज का दिन ढलते ढलते मंगलेश के न रहने का दु:खद समाचार ! मंगलेश जैसे कवि का होना आज के अंधेरे समय में निहायत जरूरी था. यूं तो हमारे पुरखों ने कवि को निरंकुश कहा था, लेकिन आज कवियों पर अंकुश लगा कर सत्ताधीश ही निरंकुश हो गए हैं.
मंगलेश ने इस वर्ष १६ मई को आयु के ७२ वर्ष पूरे किये थे. टेहरी गढ़वाल (उत्तराखंड) जिले के एक छोटे से देहात से आए मंगलेश ने जीवनयापन के लिए काफी संघर्ष किया था. पेशे से वे पत्रकार थे. उन्हों ने लम्बे समय तक सांस्कृतिक पत्रकारिता ही की थी और कई पत्र-पत्रिकाओं के साहित्यिक स्तम्भ का संपादन किया था. उन की पत्रकारिता “हिंदी पेट्रियट” शुरू हुई थी. फिर “प्रतिपक्ष”, “आसपास”, आदि में कुछ समय बिता कर वे “जनसत्ता” में स्थिर हुए. कुछ समय लखनऊ में, कुछ भोपाल में भी थे. लखनऊ में “अमृतप्रभात” में साहित्य का संपादन किया, भोपाल में शायद अशोक वाजपेयी की विख्यात पत्रिका “पूर्वग्रह” या मध्य प्रदेश संस्कृति विभाग कि पत्रिका “कला-वार्ता” से जुड़े हुए थे. “जनसत्ता” के बाद “सहारा समय” में लगन के साथ काम किया. जब “सहारा समय” विवादों के घेरे में आ गया तो मंगलेश को उचित विकल्प नहीं मिला. उस वक़्त सुदीप बनर्जी ने नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया में एक विशेष परियोजना ‘स्वर्ण जयंती पुस्तक माला’ का निर्माण कर मंगलेश को विशेष संपादक के पद पर नियुक्त किया था. बाद में मंगलेश “पब्लिक एजेंडा” से संबद्ध हुए. ‘पब्लिक एजेंडा’ के ज़रिये मंगलेश ने भारत के कोने-कोने में चल रही साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों से पाठकों को अवगत कराया. जहाँ भी रहे, मंगलेश ने हमेशा ही साहित्यिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक परिवेश के संदर्भ में काफी सतर्कता से काम किया.
मंगलेश ने अपनी जिंदगी में कविता को ही अहमियत दी थी. “पहाड़ पर लालटेन” उनका पहला संकलन था. इस संग्रह से शुरू हुई उनकी कविता यात्रा अंत तक बरकरार रही. मंगलेश वैसे बहुप्रसवा कवि नहीं थे. उन के 6 संकलनों में कुल मिला कर 309 कविताएं हैं. उन की समग्र कविताओं का संकलन “सेतु समग्र : मंगलेश डबराल” छप कर तैयार है. शायद एकाध हफ्ते में उस का विमोचन होगा. अमिताभ राय जैसे साहित्य प्रेमी आलोचक को प्रकाशन संस्था की शुरुआत करने के लिए मंगलेश ने काफी प्रोत्साहन दिया था. अमिताभ के सेतु प्रकाशन द्वारा छपे विष्णु खरे की कविताओं का संपादन मंगलेश ने ही किया था,और एक बढ़िया भूमिका भी लिखी थी. विष्णु की कविताओं के प्रति मंगलेश का विशेष प्रेम था.
“पहाड़ पर लालटेन” शीर्षक से मंगलेश ने सूचित किया था कि वे पहाड़ी है और पहाड़ उन के जीवन में ख़ास मायने रखता है. एक सुखद संयोग कि विष्णु के पांचवें संकलन का नाम “लालटेन जलाना” है. इतना ही नहीं ,विष्णु का एक अन्य संकलन “खुद अपनी आँख से” है तो मंगलेश का संकलन ’ हम जो देखते है. विष्णु के और एक संकलन का शीर्षक है “सब की आवाज़ के पर्दे में”, और मंगलेश के संकलन का नाम है “आवाज़ भी एक जगह है”. देखना और सुनना दोनों जगह हैं, और सत्य जानने के लिए दोनों की आवश्यकता अनिवार्य है. मंगलेश द्वारा लिखी गयी भूमिका की अंतिम पंक्ति है : “दरअसल उन की (यानी विष्णु की )कविता अनवरत सत्य का पीछा करती हुई कविता है.“ स्वयं मंगलेश की कविता भी यही रास्ता अख्तियार करती है. फर्क इतना ही है कि विष्णु सत्य की खोज साक्षात तफसील के दूरबीन से करते है तो मंगलेश संदेह की ऐनक से.
मंगलेश की आरंभिक कविताएं देहात में बीती जिंदगी की स्मृतियों में उलझी हुई थी, लेकिन “नास्टैल्जिया” से ग्रस्त नहीं थी. अपने पूर्ववर्ती कवि लीलाधर जगूड़ी जैसे कवियों में दिखाई देता प्रकृति के सौंदर्य का आकर्षण इन कविताओं में कम ही था. इन कविताओं के केंद्र में मनुष्य ही था. इन कविताओं में पहाड़ में बसे देहातियों की रोज़मर्रा जिंदगी, बचपन के अनुभवों का रूपकीय प्रयोग, देहातियों का सहनशील रवैया आदि संकेतों का आधिक्य था. जैसे जैसे मंगलेश का शहरों-महानगरों से अधिकाधिक परिचय होता गया, वे गहराई तक धंसे अन्याय, असमानता, अभाव की जड़ों तक जाने का प्रयास करने लगे. नतीजतन मंगलेश वामपंथी विचारधारा की ओर आकृष्ट होने लगे. जाहिर है, उनकी कविताओं में भी बदलाव आने लगा. 1991 में वे अमेरिका के आयोवा विश्वविद्यालय के इंटरनेशनल राइटिंग प्रोग्राम में दाखिल हुए थे. यहां उनके विश्वबोध का, विश्वकविता तथा साहित्य के बोध का दायरा काफी विशाल हुआ. उनकी कवितायेँ अधिक परिपक्व होने लगी. भाषा चुस्त और अर्थगर्भित हुई, अभिव्यक्ति की सघनता में निखार आया,और जल्द ही वे अपनी पीढ़ी के अग्रणी कवि के रूप में चर्चित होने लगे. मंगलेश निश्चय ही धूमिल-देवताले-जगूड़ी-विष्णु खरे-नरेश सक्सेना आदि के बाद की पीढ़ी के बेमिसाल और लक्षणीय कवि है.
मंगलेश ने कविताओं के अलावा काफी महत्वपूर्ण गद्य भी लिखा है. कई विचारगर्भ निबंध लिखे है, यात्रा-संस्मरण लिखे हैं, आलोचनाएं लिखी है, साक्षात्कार दिए है, अंग्रेजी से विश्व की प्रतिभाशाली कवियों की कविताओं के अनुवाद किये है, फिल्म रिव्यूज भी लिखे है. उनकी प्रकाशित रचनाओं में साहित्यिक निबंधों के तीन संकलनों का, यात्रा-संस्मरणों की दो पुस्तकों का तथा साक्षात्कारों के एक संकलन का समावेश है. यात्रा-संस्मरण की पहली पुस्तक “एक बार आयोवा” काफी रोचक, पठनीय तथा विचारोत्तेजक है. इस में मंगलेश ने जिन बारीकियों के साथ अमेरिकी समाज और संस्कृति का यथार्थवादी विश्लेषण किया है, आयोवा के राइटिंग प्रोग्राम में सम्मिलित शायद ही अन्य भारतीय लेखक ने किया हो.
काफी पहले मंगलेश ने हरमन हेस के बहुचर्चित उपन्यास “सिद्धार्थ” का अनुवाद किया था. इस उपन्यास में बीसवीं सदी के व्यक्ति की आत्मशोध-यात्रा तथा तात्विक-आध्यात्मिक बोध का गहरा अन्वेषण है. इस की छाया मंगलेश की कुछ कविताओं में भी दिखाई देती है. अरुंधति रॉय के उपन्यास का मंगलेश द्वारा किया गया अनुवाद “अपार खुशी का घराना” भी चर्चा में है. विद्यमान राजनीतिक व्यवस्था का ज़बरदस्त विरोध करनेवाली अरुंधति रॉय का तथा मंगलेश का गोत्र एक ही था.
मंगलेश को संगीत से-ख़ास कर अभिजात शास्त्रीय संगीत से-बेहद प्यार था. अमीर खां उन के सबसे प्रिय गायक थे. मंगलेश किसी भी समय और कही भी दोस्तों के बीच अमीर खां की शैली में खरज में गा कर झूम उठते थे. अमीर खां की विशेषता गाते गाते चिंतन करना और अपने प्रिय रागों में अद्भुत सौंदर्य का निर्माण करना मंगलेश को अभिभूत करता था. संगीत को ले कर मंगलेश ने कईं कवितायेँ लिखी है, जैसे “अमीर खां”, “संगतकार”, “रचना प्रक्रिया”, “राग दुर्गा”, “केशवअनुरागी” आदि आदि. “संगतकार” हिंदी की महत्वपूर्ण समकालीन कविताओं में गिनी जा सकती है.
मंगलेश अजातशत्रु तो नहीं थे, लेकिन अपने कईं हिंदी तथा अन्यभाषिक कवि मित्रों से संगीत जैसा ही प्यार करते थे. मुझे याद है, दिल्ली के एक रेस्त्रां में उनके प्रिय मलयालम कवि के.जी.संकर पिल्लै और उतने ही प्रिय असमिया कवि नीलम कुमार से वे घंटों तक बातें करते रहे. केजीएस की बहुचर्चित कविता “कोची के दरख्त” (हिंदी अनुवाद : अरविंदाक्षन) को उन्होंने बातचीत के दौरान के कई बार दोहराया था. भारत भर के प्रतिभा संपन्न नए कवियों को,जो चाहे किसी भी भाषा के हो, मंगलेश ने लगातार प्रोत्साहित किया था. लेकिन मंगलेश मात्र “साहित्यजीवी” नहीं थे. प्रखर राजनीतिक समझ तथा प्रतिबद्धता के कारण वे हमेशा “एक्टिविस्ट” रहे. गुजरात के दंगे हो या नागरिकता संशोधन क़ानून, मंगलेश ने अपनी अद्भुत कविताओं के ज़रिये ही नहीं, हर प्रकार के संघर्ष के द्वारा अपना तीव्र विरोध जताया था. अभी अभी हुए बिहार विधान सभा के चुनाव के समय नीतीश कुमार (जो कभी राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण के अनुयायी होने का दावा कर रहे थे, सत्ताकांक्षा के कारण धर्म-जाति की तथा समाज-विभेदन की राजनीति करनेवालों की शरण में लीन हो रहे थे ) तथा उनके पक्ष के विरोध में एक बयान जारी किया था जिस पर भारत भर के कई साहित्यकारों ने हस्ताक्षर किये थे. यह मंगलेश के “एक्टिविस्ट” होने का सब से ताजा प्रमाण है. पता नहीं क्यों, इन दिनों मंगलेश राजनीति के बदलते तथा बदतर हालात को देख कर कभी कभी मायूस और हताश हुए नजर आते थे. .
मंगलेश जैसे प्रतिभाशाली कवि को कई पुरस्कारों से नवाजा जाना सहज और स्वाभाविक बात है. उनकी कविताओं के लगभग सभी भारतीय तथा विदेश की कई भाषाओं में अनुवाद हुए है और वे देश-विदेश में पुरस्कृत भी हुए है. साहित्य अकादमी का सम्मान उन्हें सन 2000 में प्राप्त हुआ था. लेकिन मंगलेश का महान सम्मान तो तब हुआ था जब उनकी एक कविता को जर्मनी के आइस्लिंजेन शहर के मुख्य द्वार पर उत्कीर्ण किया गया था.
अंत में मंगलेश की ही एक पंक्ति में थोडासा बदलाव कर मैं अपनी बात समाप्त करना चाहता हूँ :
“वक़्त के साथ बढ़ती जाएगी मरणोपरांत हमारे कवि की जरूरत”