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प्रेम के अधिकार के लिए अभियान चलाना होगा

byअपूर्वानंद
October 23, 2020
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जब तनिष्क के उस विज्ञापन को हटा लेने पर बहस चल रही थी जिसमें एक हिंदू बहू की गोदभराई की रस्म उसकी मुसलमान ससुराल हिंदू रस्मोरिवाज़ से मनाती है, हम दिल्ली के आदर्श नगर में राहुल राजपूत के घर पर बैठे उसके माँ-पिता, फूफा से बात कर रहे थे। राहुल राजपूत को 7 अक्टूबर की शाम उसकी दोस्त के भाइयों ने मिलकर इतना मारा था कि उसी रात उसकी मौत हो गई।

राहुल की दोस्त मुसलमान थी। उसके भाइयों को उन दोनों की दोस्ती सख्त नागवार गुजरी थी। वैसे ही जैसे हिंदू दर्शकों को वह विज्ञापन बर्दाश्त न था, जिसमें एक हिंदू स्त्री एक मुसलमान के घर की बहू दिखलाई जा रही हो।

Image Courtesy: The Hindu

दोस्ती की ज़ुर्रत!
राहुल पर हमला करनेवाले उसकी मुसलमान दोस्त के भाई और उनके साथी संगी थे। कई गिरफ़्तार हो चुके हैं। उनसे बात किए बिना ही समझा जा सकता है कि उनके हमले की वजह क्या रही होगी। राहुल ने उनकी बहन से दोस्ती की जुर्रत कैसे की! आम तौर पर भाइयों को अपनी मर्जी से दोस्ती करती या प्रेम करती बहन सहन नहीं होती। उसपर से राहुल हिंदू था। एक अन्य धर्म को माननेवाला। उसकी यह मजाल कि वह उनके धर्म की एक लड़की से क़रीबी रिश्ता बनाने की सोचे! इसकी उसको सज़ा दी जानी थी। और वह उन्होंने मिलकर उसे दी।

राहुल का घर दिल्ली के आदर्श नगर की अनेक गलियों में से एक में है। आर्थिक स्थिति बहुत मामूली। पिता टैक्सी चलाते हैं। जिस कमरे में राहुल के फूफा ने हमें बिठाया, वह बहुत तंग है। लेकिन राहुल का दिल बहुत बड़ा था। राहुल के फूफा ने बातचीत के दरम्यान पीछे से थर्मोकोल का एक टुकड़ा निकाला। उस पर रंग बिरंगे अक्षरों में एक कोचिंग सेंटर का विज्ञापन था। भूगोल, अंग्रेज़ी की पढ़ाई की कोचिंग। यह राहुल की कमाई का ज़रिया न था। वह पढ़ाने का काम मुफ़्त ही किया करता था। इसी कोचिंग के दौरान उसकी दोस्ती उस लड़की से हुई थी।

दूसरे धर्म में दोस्ती!
राहुल ज़ाहिर है, सिर्फ़ अपने बारे में, अपनी तरक़्क़ी के बारे में सोचनेवाला नौजवान न था। उसमें सामाजिकता, दूसरों के प्रति ज़िम्मेदारी का एक भाव था। उसकी मित्रता जब सहबा (नाम बदला हुआ) से हुई तो क्या उसने सोचा होगा कि यह मित्रता न करनी चाहिए क्योंकि दोनों दो धर्मों के माननेवाले हैं?

अंकित की हत्या
सहबा को क्या इसका अंदाज़ न होगा कि आम तौर पर अपनी मर्ज़ी से लड़कियों का रिश्ते बनाना ही बुरा माना जाता है, कि प्रायः भाई अपनी बहनों को आज़ाद देख नहीं सकते और ख़ासकर किसी दूसरे मज़हब के लड़के के साथ उसकी दोस्ती उन्हें किसी भी क़ीमत पर बर्दाश्त न होगी? क्या वह कुछ बरस पहले दिल्ली में ही एक मुसलमान लड़की से मित्रता के कारण अंकित सक्सेना की हत्या के बारे में वाक़िफ़ न होगी?  फिर भी उसने राहुल से दोस्ती की।

ख़तरे के बावजूद प्रेम
किसी ने ठीक कहा है, दिलों के सोचने के तरीक़े ही निराले होते हैं। इस देश में, जो खुद को दुनिया में सबसे अधिक सभ्य समझता है, नौजवान अपनी ज़िंदगी का फ़ैसला लेने को आज़ाद नहीं, यह सामान्य जानकारी होने के बावजूद राहुल और सहबा ने दोस्ती की। इस रिश्ते में ख़तरा है, जानते हुए उन्होंने शायद प्रेम किया।

दूसरे धर्म की लड़की
दूसरे धर्म की लड़की हो, तो उससे प्रेम के नाम पर उसे अपने में मिला लेना बुरा नहीं। हाँ! अपने धर्म की लड़की नहीं जानी चाहिए। यह एक आम समझ है और आज से नहीं, अनेक दशकों से इस देश में लोगों के दिल दिमाग़ों को इसने इसी तरह विकृत कर दिया है। यह समझ क्या सिर्फ़ हिंदुओं की होगी या सिर्फ़ मुसलमानों की है? अपनी लड़की का इस रास्ते चले जाना अक्सर एक पराजय के रूप में देखा जाता है।यह समझ बहुत पुरानी है। प्रेमचंद ने शरर और सरशार की तुलना करते हुए शरर की आलोचना इस कारण की थी कि उनके उपन्यासों में हीरो तो मुसलमान होते हैं, लेकिन हीरोइनें या तो हिंदू या ईसाई हुआ करती हैं। इसका कारण एक सामाजिक मनोविज्ञान है। लड़केवाले खुद लड़कीवालों से ऊपर मानते हैं। प्रेमचंद को इस तरह के प्रेम संबंध के चित्रण में सांप्रदायिक द्वेष नज़र आता है।

प्रेमचंद की दुविधा
क्या यह ख़याल प्रेमचंद का भी था? आश्चर्य नहीं कि उनके कथा साहित्य में इस प्रकार के ‘विषम’ प्रेम संबंध का कोई प्रसंग नहीं आता! ‘कर्मभूमि’ में अमरकांत सकीना की तरफ़ झुकता है और सकीना भी उसे दिल दे बैठती है और थोड़ी देर के लिए उपन्यास में तूफ़ान आता है, लेकिन प्रेमचंद उसका उपाय निकाल लेते हैं। एक तो अमरकांत विवाहित है,  इसलिए इस संबंध को दूसरा मोड़ देना ही था। अमरकांत का मित्र सलीम मौजूद है जो सकीना को क़बूल कर इस उलझन का अंत कर देता है। दूसरे मामलों में साहसी प्रेमचंद प्रेम की इस कठिन राह पर पाँव नहीं धरते। ‘रंगभूमि’ में एक ईसाई सोफ़िया आकर्षित होती है एक हिंदू विनय के प्रति। लेकिन यह ज़रूरी था कि साथ ही वह हिंदू धर्म और दर्शन की तरफ़ भी खिंचाव महसूस करे। उसे ईसाइयत से अधिक हिंदू धार्मिक विचार आकर्षित करते हैं। और साथ ही विनय भी। प्रेमचंद की यह दुविधा क्या आर्य समाज के उनके आरंभिक संस्कारों के कारण आई होगी? तो क्या मुसलमानों में इसी तरह का खयाल प्रचलित न होगा? अपनी लड़की न जानी चाहिए, उनकी भले ले आओ, यह ख़याल!

मुसलमानों पर दोष नहीं लगाया
राहुल के फूफा और माँ-पिता से बात करने के बाद आपको इस तरह की चर्चा विकृत मालूम होगी। उनका बेटा इस तरह की विचारधारा के कारण मारा गया है, यह कहीं भीतर होगा उनके, लेकिन उन्होंने लड़की पर भी कोई इल्ज़ाम नहीं लगाया।मारनेवाले मुसलमान थे, इस कारण सारे मुसलमान इस हत्या के लिए जवाबदेह हैं, यह वे नहीं मानते। जो हत्या में शामिल थे, उन्हें सज़ा मिले, उससे अधिक वे कुछ नहीं चाहते। वे राहुल की मित्र की सुरक्षा के लिए भी चिंतित हैं। जो राहुल के माँ-पिता कह रहे हैं,  वही अंकित सक्सेना के पिता कह रहे थे। वे उनके बहकावे में नहीं आए जो उन्हें समझाना चाहते थे कि अंकित की हत्या के लिए सिर्फ़ वे लोग नहीं जो हत्या में शामिल थे बल्कि पूरा मुसलमान समाज ज़िम्मेवार है। उन्होंने मुसलमानों के ख़िलाफ़ इसी बहाने घृणा अभियान को बढ़ावा देने से इनकार कर दिया। अब तक राहुल के परिवार ने भी इस तरह के प्रलोभन में पड़ने से खुद को रोका है।

मुसलमान भी हमदर्दी दिखाएं
हमें मालूम हुआ कि एकाध मुसलमान संगठन के लोग भी हमदर्दी के नाते राहुल के स्वजनों से मिलने गए थे। यह न सिर्फ़ मानवीयता के नाते आवश्यक है, बल्कि आज की राजनीतिक ज़रूरत भी है। यह ज़रूरी होगा कि और भी मुसलमान संगठन और वे भी जो किसी संगठन के नहीं है, इस परिवार के पास जाएँ, उनके करीब बैठें, उनका हाथ थामें। यह प्रस्ताव कई लोगों को ग़ैरज़रूरी लग सकता है। वे कह सकते हैं कि पूरा मुसलमान समाज क्यों इसके लिए बाध्य महसूस करे कि वह इस हत्या से खुद को दूर करता हुआ दीखे और इसके लिए ज़िम्मेदारी महसूस करे! क्यों उसपर यह दबाव डाला जाए! यह प्रस्ताव कई लोगों को ग़ैरज़रूरी लग सकता है।

प्रेम का अधिकार
वहाँ भी ऐसे रिश्ते अमूमन पसंद नहीं किए जाते। वहाँ भी लड़कियों पर अपने समाज में ही रहने का, अपनी हद के भीतर रहने का दबाव होता है, इसे स्वीकार करना चाहिए। उसके अलावा प्रेम करना, अपनी मर्ज़ी से अपने साथी चुनना हर लड़की का अधिकार है, इस बात को आज भी बार-बार कहने की आवश्यकता है। जब आप राहुल के परिवार के पास बैठते हैं, तो राहुल की मित्र सहबा को भी हौसला दे रहे होते हैं। वह भी अभी शोक में है। उसका भी कुछ उससे छीन लिया गया है। और वह अभी एकदम अकेली है, नारी निकेतन में। वह किसी ‘पिंजरा तोड़’ की सदस्य नहीं, लेकिन उसी की शहादत (गवाही) के चलते राहुल के हमलावरों को पहचाना और पकड़ा जा सका है। उसके इस ‘सहज’ साहस को जो इतना अजनबी जान पड़ता है कि साहस कहना पड़ता है उसे, हम सबका सहारा चाहिए। उसके नाम जैसेवाले लोगों का और भी।

आख़िरी हत्या?
सहबा का परिवार अब कौन होगा? कौन सा समाज उसका अपना होगा? इस सवाल में वह अकेली नहीं छोड़ दी जानी चाहिए। क्या हम यह निश्चित कर सकते हैं कि राहुल की मौत, जो वास्तव में हत्या है, इस तरह की आख़िरी हत्या हो? आप उन नाबालिग लड़कों के बारे में भी सोचिए जो हत्यारों में बदले जा रहे हैं। ऐसे तमाम किशोरों को, वे हिंदू हों या मुसलमान, बचा लिया जाना ज़रूरी है। उसके लिए नौजवानों के अपने जीवन पर अधिकार, उनके प्रेम करने के अधिकार के लिए, एक धर्मनिरपेक्ष सामाजिकता, सामाजिक संवेदना का अभियान चलाना ही होगा।

First published in Satya Hindi
अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाते हैं।

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