राहत, इस मुश्किल समय में कहां चल दिए….तुमने ही तो कहा था-
वो गर्दन नापता है नाप ले
मगर ज़ालिम से डर जाने का नहीं
अब कौन तुम्हारी तरह आसमान में शेर उछाल देगा। और उंगली उठाकर कह देगा-
अगर ख़िलाफ़ हैं, होने दो, जान थोड़ी है
ये सब धुआं है, कोई आसमान थोड़ी है
कौन इतना बेख़ौफ़ है जो इस सच्चाई को मंच से कह देगा-
जो आज साहिब-इ-मसनद हैं कल नहीं होंगे
किराएदार हैं जाती मकान थोड़ी है
लगेगी आग तो आएंगे घर कई ज़द में
यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है
कौन देगा हुक्मारान को चुनौती-
सभी का ख़ून है शामिल यहाँ की मिट्टी में
किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है
ये शेर, ये अशआर…न जाने कितने डूबते दिलों की आस थे। तुम्हारा एक-एक शेर एक-एक आंदोलन की जान था। हिन्दुस्तान की आवाज़ था। बहुत तीखे थे तुम्हारे सवाल, अब कौन पूछेगा-
सरहदों पर बहुत तनाव है क्या,
कुछ पता तो करो चुनाव है क्या
ख़ौफ़ बिखरा है दोनों सम्तों में,
तीसरी सम्त का दबाव है क्या
तुम कहां पैदा हुए, कहां पले-बढ़े-पढ़े ये तो आज सब बता रहे हैं, मैं इस बारे में और क्या बताऊं। सब जानते हैं कि तुम कहां पैदा हुए या कहां के हो। तुम्हारे नाम में जो इंदौरी है, वही तो है तुम्हारा वतन। उर्दू शायरों ने ये अच्छी रवायत निकाली है कि अपने शहर, अपने वतन का नाम साथ लिए चलते हैं। तुम्हारा जन्म एक जनवरी, 1950, को इंदौर में हुआ। अब तुम 70 बरस के हो गए थे। लेकिन 70 बरस बहुत ज़्यादा नहीं होते। तुम्हे पहले से दिल की बीमारी थी। शायर जो ठहरे…! शुगर भी था, लेकिन आजकल शुगर किसे नहीं होता। जब तुम्हारे कोरोना संक्रमित होने की ख़बर मिली तो तुम्हारे चाहने वालों ने सोचा कि इस बार कोरोना ने ग़लत आदमी से पंगा ले लिया है। ख़ैर…
40-50 बरस से तुम मुशायरे पढ़ रहे थे। मैंने भी शायद 25-30 बरस पहले पहली बार तुम्हे रूबरू सुना होगा। जब तुम मंच पर आते थे हर तरफ़ शोर उठता था — राहत भाई… राहत भाई।
कोई कहेगा कि ये कैसा लेखक है राहत को ‘तुम’ कहकर संबोधित कर रहा है और ऐसे बात कर रहा जैसे राहत उसकी सुन रहे हों….उनका तो निधन हो गया। तो आप ही बताइए कि कोई अपने प्रिय, अपने महबूब शायर से कैसे बात करे, आप-आप करके तो न बात होगी। और न मुझे यक़ीन है कि वो हमें छोड़कर चले गए। और जाएंगे भी कहां इसी मिट्टी में तो दफ़्न होंगे तो उनसे इसी तरह बेतकल्लुफ़ी में बात की जा सकती है। और मुझे यक़ीन है कि राहत बुरा नहीं मानेंगे। उन्हें करीब से जानने वाले कहते हैं कि वे काफ़ी यारबाश आदमी थे।
मुझे तो उनकी शायरी से सरोकार था…वो शायरी जो दिलों को रौशन कर दे, एक आग भर दे, मोहब्बत की।
उस की याद आई है सांसों ज़रा आहिस्ता चलो
धड़कनों से भी इबादत में ख़लल पड़ता है
लेकिन उनके प्यार में भी तेवर था-
बहुत ग़ुरूर है दरिया को अपने होने पर
जो मेरी प्यास से उलझे तो धज्जियां उड़ जाएं
‘इनके-उनके’ से फिर लौटता हूं राहत पर
राहत, तुम्हारे शेर पढ़ने का अंदाज़ भी निराला था, लेकिन मुझे उससे कभी-कभी कोफ़्त होती थी, बहुत ड्रामाई लगता था, बेहद नाटकीय। एक ही ग़ज़ल में काफ़ी समय भी चला जाता था। और इस तरह तुम हल्के-फुल्के शेर पर भी दाद लूट ले जाते थे। ख़ैर मंच पर इसी का ज़ोर है, कविता के मंच से लेकर राजनीति के मंच तक, और बहुत लोग इस ‘अदाकारी’ पर फ़िदा भी रहते हैं। ख़ैर अपना-अपना तौर-तरीक़ा है।
कहने वाले कहते हैं कि तुम्हारे पास तीन तरह की शायरी थी। एक मंच की, एक किताब की और एक फ़िल्मों की। वैसे अक्सर बड़े लोगों के बारे में ऐसा ही कहा जाता है। मंचों से ऐलान किया जाता है- इल्म और फ़िल्म के शायर…हालांकि मुझे तुम्हारे कुछ बुरे शेर भी याद हैं।
राहत, वैसे तुमने कभी सत्ता से सीधा झगड़ा नहीं लिया, लेकिन तुम्हारे शेर कमबख़्त ऐसे थे जो सीधे हुक्मरान से उलझ जाते थे।
वो चाहता था कि कासा ख़रीद ले मेरा
मैं उस के ताज की क़ीमत लगा के लौट आया
राहत तुम दग़ा कर गए, धोखा दे गए, जबकि तुमने ही तो कहा था-
बुलाती है मगर जाने का नहीं
वो दुनिया है उधर जाने का नहीं
जनाज़े ही जनाज़े हैं सड़क पर
अभी माहौल मर जाने का नहीं
लेकिन तुम चले गए- ख़ैर… अब भी हमेशा वतन की मिट्टी में ही रहोगे-
है दुनिया छोड़ना मंज़ूर लेकिन
वतन को छोड़ कर जाने का नहीं
तुम्ही ने कहा-
मैं जब मर जाऊं तो मेरी अलग पहचान लिख देना,
लहू से मेरी पेशानी पे हिन्दुस्तान लिख देना
पर पता नहीं मुझे वाकई लग रहा है कि तुम सारे सितारे नोच कर ले गए हो-
सितारे नोच कर ले जाऊंगा
मैं ख़ाली हाथ घर जाने का नहीं
…