इस दशक में गाय के नाम पर भीड़ की कातिलाना हिंसा के जितने वारदात हुए, उनका 98 फ़ीसद 2014 के बाद भाजपा के निज़ाम में घटित हुआ है। आरएसएस के सरसंघचालक का मानना है कि लिंचिंग हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं है और हिंदू एक निहायत अहिंसक समुदाय है। लिंचिंग की घटनाएँ न सिर्फ़ इससे उलट सच बयान करती हैं बल्कि यह भी बताती हैं कि इन्हें अंजाम देने वालों को हमारे देश का यह कुख्यात ‘सांस्कृतिक’ संगठन कैसे प्रेरणा, प्रोत्साहन, प्रशिक्षण और सुरक्षा प्रदान करता है। हिंदुत्ववादी गिरोह भीड़ की शक्ल में जो कांड कर रहे हैं, वह सिर्फ़ क़ानून और व्यवस्था पर नहीं, लोकतंत्र पर भी हमला है। यह लोकतंत्र की मॉब लिंचिंग है।
निम्नलिखित है वक़्त की आवाज़ श्रृंखला की चौथी किताब, लोकतंत्र की मॉब लिंचिंग से एक अंश।
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत का मानना है कि ‘लिंचिंग’ शब्द पाश्चात्य धर्मग्रेथों से आता है। और चुँकि ‘हमारी’ धर्मिक पुस्तकों में यह शब्द नहीं है, इसलिए इसकी परिभाषा में ही निहित है कि भारतीय लिंचिंग की वारदात को अंजाम नहीं दे सकते। इतिहास और धर्म दोनों के संबंध में भागवत की अज्ञानता से किसी को हैरान नहीं होना चाहिए। लेकिन उनका दावा इससे जुड़े गंभीर सवाल तो उठाता ही है कि इस शब्द की उत्पत्ति और ख़ुद यह शब्द किस सामाजिक परिघटना को दर्शाते हैं?
यह शब्द 780 के दशक में तब प्रख्यात हुआ जब युनाइटेड स्टेट्स (युएस) के स्वतंत्रता के युद्ध के दौरान न्यायलयों तक पहुँचना मुश्किल हो गया था तो वर्जीनिया के एक बगान मालिक और दास-मालिक, चार्ल्स लिंच ने त्वरित न्याय किया। युएस गृह युद्ध और दास प्रथा के औपचारिक रूप से ख़त्म कर दिए जाने के बाद, श्वेत आबादी के एक बड़े हिस्से ने, ख़ास तौर से दास रखने वाले दक्षिणी क्षेत्रों में, महसूस किया कि आज़ाद हुए दासों को “क़ाबू’ में रखना होगा। परिणामस्वरूप उन्हें समानता हासिल करने से रोका गया। रंग के आधार पर असमानता और नागरिकों के विभिन्न वर्ग तैयार करने के लिए लिंचिंग को हथियार के तौर पर चुना गया। इसे जिम क्रो कहे जाने वाले क़ानूनों की मद॒द से लागू किया गया, यानी ऐसे राज्य और केंद्रीय क़ानून जो विद्यालयों, रिहायशी इलाक़ों, यातायात और तमाम सार्वजनिक क्षेत्रों में अलगाव स्थापित करते थे।
लिंचिंग के साथ नस्लीय दंगे भी करवाए जाते थे, ख़ास तौर से तब जब अश्वेत आबादी या आर्थिक रूप से बेहतर हुए अपने अधिकारों का प्रयोग करते थे। पहले विश्व युद्ध में अश्वेत सैनिकों को युद्ध में भेजा गया, जो अनमने वापस लौटे और उनसे कहा गया कि युद्ध में अपने देश के लिए मरने को तैयार होने के बावजूद वे युएस में सार्वजनिक क्षेत्रों में समानता का दावा नहीं कर सकते | न ही वे कारोबार या तमाम दुसरे व्यवसायों में शामिल मध्य वर्ग का हिस्सा बन सकते हैं। लिंचिंग और बाद में नस्लीय द॑गे, दोनों ही सामृहिक हिंसा के औज़ार थे जिनकी मद॒द से अश्वेत लोगों को उनके संवैधानिक अधिकार हासिल करने से रोका गया।
युएस में लिंचिंग और भारत में लिंचिंग, दोनों को एक-दुसरे से जो कड़ी जोड़ती है, वह है संवैधानिक प्रावधानों को बलपुर्वक पलटने के प्रयास | दोनों ही असमानता को बनाए रखने के लिए बहुसंख्यक समुदाय की तरफ से ढाँचागत हिंसा और सामूहिक भागीदारी का इस्तेमाल करते हैं। विधि के सामने समानता बरक़रार रहती है, लेकिन हिंसा के भय से इसे छीन लिया जाता है : यह भय कहता है, ‘शांति’ के अपने अधिकार का बलिदान करो; और इससे भी ज़रूरी यह है कि राजनीति में कोई दावा पेश मत करो।’
और पढ़ें: NRC-CAB: अधिकार होने के अधिकार की अस्वीकार्यता
भारत में यह भय दो अल्पसंख्यकों — मुसलमानों और दलितों — के लिए है। अगर मुसलमान किसी ख़ास पार्टी के लिए वोट करते हैं, तो वह पार्टी मुस्लिम तृष्टीकरण करने वाली पार्टी हो जाती है। मुसलमानों को वोट का अधिकार है, लेकिन उन्हें इस अधिकार का प्रयोग नहीं करना चाहिए। दलितों के पास राजनीतिक और सामाजिक अधिकार हैं, लेकिन उन्हें इनका इस्तेमाल नहीं करना चाहिए और न ही समाज में अपनी जगह भूलनी चाहिए। अगर वे ऐसा करते हैं तो उन्हें ‘सबक़ सिखाने के लिए सामृहिक हिंसा का सहारा लिया जाता है।
दंगों और लिंचिंग का प्रयोग दो उद्देश्यों से किया जाता है: बहुसंख्यक समुदाय को लामबंदु करने के साथ-साथ अल्पसंख्यकों को मताधिकार से वंचित करना। लिंचिंग और सामूहिक हिंसा का प्रयोग बहुसंख्यकों में बहुसंख्यक चेतना पैदा करने के लिए भी किया जाता है, जो अन्यथा उसमें नहीं होती क्योंकि वे जाति, भाषा और अन्य पहलचानों में बैंटे होते हैं। जैसा कि सावरकर ने चिह्नित किया था, हिंदुत्व का विचारधारात्मक आधार है दूसरों के लिए नफ़रत पैदा करना, और यह हिंदू धर्म से अलग है।
लिंचिंग जैसे नफ़रत प्रेरित अपराध सिर्फ़ धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए ही सीमित नहीं। इसका निशाना वे सब समुदाय भी हैं जो ब्राह्मणवादी योजना के तहत बाहर किए गए हैं। जिन समुदायों ने पीढ़ीगत हिंसा को झेला है, उनके लिए संविधान में दिए गए सकारात्मक प्रावधानों — सरकारी शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में आरक्षण — को हटाने, या इन समुदायों के ख़िलाफ़ भेदभाव या जातिगत अत्याचार से सुरक्षा देने वाले क़ानूनों को निरस्त करने के पक्ष में बात करना तो मुश्किल है। उद्देश्य यह है कि वे तमाम लोग जो सम्मान के, शिक्षित होने के, नौकरी या छोटे कारोबार करने के अधिकार का दावा पेश करते हैं, उनके विरुद्ध सामूहिक हिंसा का प्रयोग कर इन संवैधानिक उपायों को पलट दिया जाए।
यह कोई चौंकाने वाली बात नहीं कि मोहन भागवत यहाँ या युएस में लिंचिंग के इतिहास के बारे में नहीं जानते । अगर वे जानते तो उन्हें इन दोनों के बीच की समानताओं को भी स्वीकार करना पढ़ता कि कैसे विभिन्न प्रकार की सामूहिक हिंसा बहुसंख्यकों को अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ लामबंद करती है ताकि उन असमानताओं को असल ज़िंदगी में लागू किया जा सके जो कि सरासर गैर- क़ानूनी हैं। यह असंभव होता अगर आरएसएस की किस्म के इतिहास में मिथक को तथ्य और सबूतों से ऊपर न रखा जाता है।
[…]
नफ़रत की राजनीति, लिंचिंग और गौ-रक्षा
अगर दक्षिण (युएस) में दासों को आज़ाद करने का परिणाम था अलगाव और लिंचिंग, तो आज जो सामूहिक हिंसा और सार्वजनिक लिंचिंग हम भारत में देख रहे हैं, उनका कारण क्या है? और यहाँ भी जवाब एक़दम स्पष्ट है। बहुसंख्यक समुदाय के जाति आधारित वर्चस्व को चुनौती देना इन सार्वजनिक लिंचिंग की मूल वजह है।
स्वतंत्रता आंदोलन सिर्फ़ भारत को ब्रिटिश राज से आज़ाद करने के लिए नहीं था, इसने एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य की भी घोषणा की | वर्चस्ववादी ब्राह्मणवादी योजना के तहत जिन दुसरे समुदायों का बहिष्कार किया गया, उनके लिए इस गणराज्य ने विश्व में पहली बार सकारात्मक क़दम उठाए – उन्हें शिक्षा और नौकरी में आरक्षण देकर | योजना और योजनाबद्ध विकास सिर्फ़ कृषि और उद्योगों की उत्पादक शक्तियों के लिए नहीं था। संविधान लागू करने के दौरान, अम्बेडकर और नेहरू दोनों ने राजनीतिक और आर्थिक लोकतंत्र के महत्व पर ज़ोर दिया। आरक्षण और योजना, विकास और आर्थिक लोकतंत्र के साधन थे।
और पढ़ें: 2020: नए साल में तेज़ होगा साझा संघर्ष
पुरे स्वाधीनता आंदोलन के दौरान लक्ष्य था, एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक भारत। यही भारतीय संविधान में दर्ज है, जिसकी हम गणतंत्र दिवस पर ख़॒शियाँ मनाते हैं। इस भारतीय संविधान का आरएसएस ने बहुत विरोध किया। इसका मत था कि (द ऑर्गनाइज़र, 30 नवंबर 1949) भारत का संविधान, भारत की प्राचीनतम किताब मनुस्मृति पर आधारित होना चाहिए। वही मनृस्मृति जो जाति पर आधारित सामाजिक विभाजन का आधार है, एक किताब जिसका मूल ही जातियों के बीच, पुरुषों और महिलाओं के बीच असमानता को सैंजोए हुए है।
आज एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक भारत की अवधारणा ही दाँव पर लगी है। इसलिए मुसलमानों और आरक्षण के ख़िलाफ़ “नए जातीय आंदोलन’ खड़े किए जा रहे हैं। गौ-रक्षा सिर्फ़ लामबंदी का ज़रिया है, लक्ष्य नहीं। ऐसे ही जैसे अलगाव पैदा करना असल लक्ष्य था, आज भारत में हो रही सामृहिक हिंसा के ज़रिए देश को उच्च जातियों के अधीन एक हिंदू बहुसंख्यकवादी राष्ट्र बनाने की कोशिश की जा रही है। इसी कारण आज सार्वजनिक तमाशे के रूप में लिंचिंग करवाई जा रही है, सेल फ़ोन पर रिकॉर्ड की जा रही हैं और ज़्यादा से ज़्यादा फैलाई जा रही हैं। इसके मुख्य तत्व हैं : बहुसंख्यक समुदाय को एकरूपीय साबित करना और अल्पसंख्यकों के मनोबल को तोड़ देना। उस समय भी प्रौद्योगिकी का प्रयोग नफ़रत फैलाने के साधन के रूप में हो रहा था और आज भी हो रहा है; लेकिन यह लक्ष्य नहीं है। संयोगवश, जहाँ से लिंचिंग की शुरुआत हुईं थी, वहीं यानी युएस में वहाँ की सेनेट ने एक क़ानून पारित किया — The Justice for Victims of Lynching Act — जिसके तहत लिंचिंग को पूरे देश में एक अपराध बना दिया गया, जो अन्य इल्ज़ामों के साथ एक इल्ज़ाम होगा। भारत में भी राजनीतिक दलों और सामाजिक आंदोलनों ने लिंचिंग के ख़िलाफ़ एक क़ानून के लिए आवाज़ उठाई है। अब देखना यह है कि भारत में लिंचिंग कब रुकती हैं और कब एक लिंचिंग विरोधी क़ानून बनता है? इन दोनों के लिए जनता के प्रतिरोध और हिंदुत्व के समर्थक जो बहुसंख्यक व्यवस्था बनाना चाहते हैं, उसके ख़िलाफ़ एक व्यापक स॑युक्त मोर्चा तैयार करने की ज़रूरत है।
सफ़दर हाश्मी स्प्रति व्याख्यान, जन नाट्य मंच, 16 नवंबर 2018