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2020: नए साल में तेज़ होगा साझा संघर्ष

bySubodh Varma
February 3, 2020
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गुज़रे हुए पाँच-छह साल अगर सांप्रदायिक-नवउदारवादी गठजोड़ की ज़्यादतियों और ज़ुल्मों के साल रहे हैं, तो उनके ख़िलाफ़ भारतीय जन-गण की संघर्षप्राण एकजुटता के भी साल रहे हैं। किसान, मज़दूर, आदिवासी, दलित, स्त्री, विद्यार्थी, कलाकार, कलमकार – सबने यह दिखा दिया और लगातार दिखा रहे हैं कि इस गठजोड़ को अपना एजेंडा पूरा करने की इजाज़त नहीं दी जा सकती। बिना इजाज़त भी एजेंडे पूरे किए जा सकते हैं/जाते हैं, लेकिन यह साफ़ हो गया है कि ऐसी हसरत पालने वाली भाजपा-आरएसएस को लोहे के चने चबाने पड़ेंगे।​

निम्नलिखित है वक़्त की आवाज़ श्रृंखला की पांचवी किताब,  संघर्ष हमारा नारा है से एक अंश।

भारत के लिए एक उठापटक वाला साल खत्म हुआ। कई बार तो लगता है कि देश और उसके लोग, टूटे रिश्तों, खत्म होती स्वतंत्रता से पैदा हुए गुस्से, अविश्वास और आपसी दुश्मनी की एक गहरी-काली सुरंग में पहुंच गए हैं। यह सब आर्थिक समस्या से जुड़े हुए हैं, जिसके चलते जिंदगी और भविष्य खतरे में पड़ गया है। 2019 में वापस सत्ता में आई नरेंद्र मोदी सरकार की शासन प्रवृत्ति के चलते यह सारी परेशानियां खड़ी हुई हैं।

अपनी विरासत और प्रकृति के हिसाब से यह सरकार, हिंदू कट्टरपंथी संगठन आरएसएस के दृष्टिकोण के मुताबिक़ देश ढालने का औज़ार मात्र है। लेकिन साथ साथ , यह बड़े औद्योगिक घरानों, बड़े व्यापारियों, बड़े ज़मींदारों और अमीरों के हितों को साधने का हथियार भी है। और यह भी नहीं भूल सकते कि अपनी तमाम राष्ट्रवादी दिखावट के बावजूद मोदी, वैश्विक औद्योगिक घरानों और पूंजी पर कितने मोहित रहते हैं।

लेकिन मोदी सरकार और उसकी विनाशकारी नीतियां, हिंदुस्तान की कहानी का एक पहलू मात्र है। इतिहास हमें बताता है कि लोग आसानी से आत्मसमर्पण नहीं करते। वे लड़ते हैं। छोटे समूहों में या बड़े आंदोलनों में। शहरों में, कस्बों में और बड़े महानगरों में। यूनिवर्सिटीज़ में, स्कूलों में, फैक्ट्री में और खेतों में। तिलमिलाती गर्मी में, बर्फीली ठंड में। भारत में भी बीते साल यही हुआ। दिसंबर से जारी संघर्ष सिर्फ CAA-NRC की प्रतिक्रिया मात्र नहीं है। कोई शक नहीं कि आज जितने लोग सड़कों पर उतरे हैं, वो अभूतपूर्व है। लेकिन मोदी और जिस सोच के वो नेता हैं, उसके खिलाफ पिछले कुछ सालों से प्रतिरोध तेज होता जा रहा है – चाहे मीडिया उसे जितना भी छुपाता रहे।

 किसान और भूमिहीनों का संघर्ष

तमिलनाडु से पंजाब और गुजरात से पूर्वोत्तर तक किसान और कृषि मजदूर, जमीनों के अधिकार, कर्जमाफी, उत्पाद के लिए बेहतर मूल्य और FRA तथा वन क़ानून जैसे मुद्दों पर लड़ाई के लिए बड़ी संख्या में सड़कों पर उतर आये। इन सभी संघर्षों में उन्होंने मोदी सरकार, संघ परिवार और इसके समर्थकों द्वारा फैलाई जा रही सांप्रदायिकता के खिलाफ भी आवाज उठाई।

फरवरी 2019 में आदिवासियों, किसानों और मजदूरों ने नासिक से दूसरा ”लॉन्ग मार्च” निकाला। इस जुलूस की मुख्य मांग जमीन और कर्ज माफी पर पिछले सालों में हुए समझौतों को लागू करवाना था। उनका संख्याबल और तेवर कुछ इस तरह थे कि दो दिन के अंदर ही राज्य सरकार उनकी मांगों पर बात करने के लिए दौड़ी चली आई।

इंडियन फॉरेस्ट एक्ट (IFA),1927 में लाये जा रहे खतरनाक बदलावो और सुप्रीम कोर्ट द्वारा वन अधिकार  कानून (FRA) को सीमित करने के खिलाफ देश भर के आदिवासी और दलित संगठनों ने जुलाई में विरोध प्रदर्शन किए। इन कानूनी बदलावों के कारण, लाखों दलित और आदिवासियों परिवारों से उनके ज़मीन के अधिकार छिनने का खतरा बन गया था। यही कारण है कि महाराष्ट्र और झारखंड विधान सभा चुनावों में बीजेपी ज्यादातर आदिवासी बहुल सीटों पर हारी है।


और पढ़ें: NRC-CAB: अधिकार होने के अधिकार की अस्वीकार्यता


अगस्त में ऑल इंडिया किसान संघर्ष कोऑरडिनेशन कमेटी (AIKSCC), जो 100 किसान संगठनों का साझा मंच है, उसने देशव्यापी प्रदर्शन किए। मंच की मांग थी कि विपक्षी सांसदों द्वारा लाए गए दो विधेयकों को संसद से पास किया जाए। इन विधेयकों में पूरी कर्ज़माफी और ”उत्पाद के लिए लागत के साथ 50 फ़ीसदी मुनाफा” देने की बात थी। इन विधेयकों को पहली बार नवंबर 2017 में दिल्ली में किसान संसद ने पास किया था।

सितंबर में पश्चिम बंगाल के कोलकाता में 50,000 से ज्यादा किसानों व खेतिहर मज़दूरों ने रैली की। इसमें जाति, धर्म और पंथ की राजनीति की निंदा कर सभी कृषि हितग्राहियों से अपने अधिकारों के लिए मिल कर लड़ने का आह्वान किया गया।

नवंबर में AIKSCC के नेतृत्व में किसानों ने देश में 500 जगह भारत के RCEP में सदस्य न बनने की मांग पर आंदोलन किए। लोकविरोधी समझौते से बाद में सरकार ने हाथ खींच लिए।

कामग़ार और मज़दूरों का संघर्ष

2019 की शुरुआत में देश ने औद्योगिक मजदूरों की सबसे बड़ी कार्रवाई देखी। एक करोड़ अस्सी लाख कामगारों और मजदूरों ने 8 और 9 जनवरी को काम बंद रखा। यह बंद मुख्यत: मोदी सरकार की कामगार विरोधी नीतियों के खिलाफ था, जिसके तहत सरकार मजदूर कानूनों में भयावह बदलाव, न्यूनतम मजदूरी दर को बढ़ाने से इंकार, सामाजिक सुरक्षा निधि पर डाके की कोशिश और सार्वजनिक कंपनियों को बेचना शामिल था। मोदी सरकार के पहले कार्यकाल से ही 10 केंद्रीय ट्रेड यूनियन और कई स्वतंत्र महासंघों के नेतृत्व में देश के अधिकांश मजदूर, इन नीतियों का विरोध कर रहे हैं। पहले सितंबर 2015 में, और फिर एक साल बाद सितंबर 2016 में, देशव्यापी सफ़ल हड़तालें हो चुकी थीं। इसी क्रम में, जनवरी 2020  में, कामगारों की और बड़ी हड़ताल हुई। ग़ौर तलब है कि इस औद्योगिक हड़ताल को AIKSCC के नेतृत्व में देश भर के किसानों का भी समर्थन था और इसी दिन ग्रामीण बंद भी रखा गया।

मोदी सरकार ने सार्वजनिक कंपनियों को बेचने का रिकॉर्ड बना दिया है। पिछले साढ़े पांच साल में 2.97 लाख करोड़ रूपये की सार्वजनिक कंपनियों को निजी औद्योगिक घरानों में बेचा जा चुका है। वहीं 76,000 करोड़ रुपये की बिक्री का ऐलान भी हो चुका है। यहां तक कि फायदे में चल रही भारत पेट्रोलियम जैसी कंपनियों को भी बेचा जा रहा है। सरकार ने रक्षा उत्पादन क्षेत्र, रेलवे, बैंक आदि का विनिवेश करना शुरू कर दिया है। विदेशी एकाधिकार प्राप्त कंपनियों को लुभाने के लिए सरकार ने देश के रणनीतिक कोयले क्षेत्र में भी 100 फ़ीसदी FDI कर दिया। इस तरह देश के खनिज संपदा के दरवाजे विदेशी कंपनियों के लिए खुल गए।

परिणामस्वरूप, मोदी सरकार के छोटे से दूसरे कार्यकाल में ही ज़बरदस्त प्रतिरोध सामने आया है:

– रेलवे कामगारों और उनके परिवार वाले हजारों की संख्या में कुछ उत्पादन यूनिट के कॉरपोरेटाइजेशन के खिलाफ विरोध में उतरे। यह कॉरपोरेटाइज़ेशन निजीकरण के पहले की प्रक्रिया है।

– सितंबर 2019 में करीब 6 लाख कोयला मज़दूरों ने एक दिन की हड़ताल की। यह हड़ताल कोयला क्षेत्र में 100 फ़ीसदी FDI लाने के खिलाफ थी।

– 10 सार्वजनिक बैंको को आपस में विलय कर चार बैंकों में बदलने पर बैंक कर्मियों ने अक्टूबर 2019 में बहुत बड़ी हड़ताल की। इसे ऑफिसर्स यूनियन से भी समर्थन मिला। जिसके चलते बैंकिंग ऑपरेशन पूरी तरह बंद रहे।

– बीपीसीएल और एचपीसीएल के निजीकरण के खिलाफ सभी रिफाईनरियों के कर्मचारियों ने हड़ताल की।

इसके अलावा बड़ी संख्या में स्थानीय, क्षेत्रीय और औद्योगिक स्तर पर संघर्ष हुए, जिनमें हजारों कामगारों ने हिस्सा लिया। हाल ही में निर्माण क्षेत्र से जुड़े मजदूरों ने संसद तक मार्च निकाला।  इसमें श्रम कानून में हुए बदलावों का विरोध किया गया, जिसके तहत मजदूरों को प्राप्त सुरक्षा को खत्म कर दिया गया है। पत्रकारों ने भी इस कानून के खिलाफ प्रदर्शन किए, क्योंकि इसमें हुए कुछ बदलाव उन्हें भी प्रभावित कर रहे थे। आंगनवाड़ी कर्मचारियों और अन्य योजनाओं से जुड़े कर्मियों ने भी अलग-अलग राज्यों में बड़े विरोध प्रदर्शन किए।

ट्रेड यूनियनों का साझा मंच भी देश के लोगों की आवाज उठाने में एक अहम किरदार निभा रहा है। यह सिर्फ मज़दूरों और कर्मचारियों तक सीमित नहीं है। यह साझा मंच CAA-NPR-NRC षड्यंत्र के खिलाफ तेजी से सक्रिय है। मंच की मांग पर मज़दूरों से जुड़े कई केंद्रों में इनके खिलाफ प्रदर्शन भी हुए। वास्तविकता में कामगार संगठन, किसानों, कृषि मजदूरों, बेरोज़गारी, महिला हिंसा के खिलाफ़ आवाज उठा रहे हैं। यह संगठन स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण और शिक्षा पर भी सक्रिय हैं।

इन संगठनों ने ”अर्बन नक्सल” के नाम पर लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकारों के हनन के साथ-साथ दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों पर हुए हमलों पर भी प्रतिरोध किया है। इन संगठनों ने RTI एक्ट को कमजोर करने, UAPA को संशोधनों के ज़रिए ज़्यादा भयावह बनाने, कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने के विरोध में भी आवाज बुलंद की थी। संगठनों ने उन सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ भी मोर्चा छेड़ा है, जो टकराव की स्थिति बनाकर सरकार को मुख्य मुद्दे से ध्यान भटकाने में सहयोग कर रहे हैं। यह सांप्रदायिक संगठन संविधान की आत्मा पर हमला करते हैं।

संविधान पर हमले के ख़िलाफ़ जंग

कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाना और नागरिकता संशोधन अधिनियम (प्रस्तावित NRC के साथ) को लाना सरकार द्वारा आरएसएस के एजेंडे को आगे बढ़ाना है। दोनों कदम हिंदू कट्टरपंथी एजेंडे के अनुकूल हैं और आरएसएस के हिंदू राष्ट्र के सपने के प्रबल करते हैं। लेकिन दोनों के खिलाफ देश में प्रतिरोध की बड़ी लहर खड़ी हो गई है। CAA-NRC के खिलाफ प्रतिरोध की आवाजें अभूतपूर्व ऊंचाईयों पर पहुंच चुकी हैं। आरएसएस और बीजेपी को इनसे झटका लगा है। पूरे देश में, यहां तक कि हर जिले, हर शहर, 100 से ज्यादा यूनिवर्सिटीज़ में विरोध प्रदर्शन हुए हैं और अभी भी जारी हैं। 1970 के बाद से कभी इस तरह के छात्र आंदोलन नहीं हुए हैं। इस आंदोलन को लेफ्ट ने समर्थन दिया है। लेकिन अब यह काफी आगे तक चला गया है। यह विरोध उन गुमनाम पंथनिरपेक्ष आवाजों और लोकतांत्रिक नज़रियों की तरफ से उभरा है, जो हमारे देश के भीतर मौजूद हैं।

संघर्ष की जुड़ती धाराएं

आज भारत में कई तरह के संघर्ष आपस में जुड़ रहे हैं। आर्थिक संघर्ष, राजनीतिक संघर्ष में बदल रहा है। ऊंची फीस और शिक्षा के निजीकरण से परेशान छात्र (जैसे जेएनयू और दूसरी यूनिवर्सिटीज़ में) आज CAA-NRC के खिलाफ संघर्षरत् लोगों और मजदूरों-किसानों के साथ खड़े हैं। उच्च जाति के अत्याचारों के खिलाफ संघर्ष कर रहे दलित आज इस काले कानून के खिलाफ मोर्चे में आगे हैं। ज़मीन के लिए संघर्ष कर रहे आदिवासी, बुलेट ट्रेन योजना में ज़मीन अधिग्रहण या अडानी की खदानों का विरोध कर रहे किसानों के साथ खड़े हैं। रेप और हिंसा के खिलाफ लड़ रही महिलाएं अल्पसंख्यकों की रक्षा की कमान संभाल रही हैं।

नए साल में यह प्रक्रिया और तेज होगी। क्योंकि अर्थव्यवस्था का कुप्रबंधन और इसे हाइजैक करने की कोशिशें अशांति को आने वाले महीनों में बढ़ावा देंगी। सरकार को इससे निपटने का तरीका ही मालूम नहीं है। राष्ट्रवाद की भाषणबाजी अब कड़वी और कमजोर होती जा रही है।


यह अंश लेफ्टवर्ड के वाम प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तिका, संघर्ष हमारा नारा है, से लिया गया है। इस अंश को सम्पादकों की अनुमति से यहाँ साझा किया गया है।
सुबोध वर्मा न्यूज़क्लिक के लिए सामाजिक और आर्थिक मुद्दों पर लिखते हैं। वह ट्रेड-यूनियन और अन्य लेफ्ट संगठनों के साथ भी काम कर चुके हैं।

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