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मज़हबों के मोती जहाँ पिरोये गए हैं तहज़ीब में,
मैंने सुना है के वो हिंदुस्तान है ।
करो हिफाज़त मिल कर अपने वतन की दोस्तों,
शहीदों ने दिया इसके लिए बलिदान है ।
तमन्ना थी बानी-ए-आईन की ऐसा मुल्क़ बनाएंगे,
मज़हब नहीं, इंसानियत जहाँ की मीज़ान है ।
ये ज़ुल्म-ओ-सितम का सैलाब जो आया है,
दरसगाहें बन चुकी यहाँ की ज़िन्दान है ।
फैल रहा है तशहददुद इस सरज़मीं पे,
किसको पुकारे हम, अब कौन हमारा पासबान है ।
पैरोकार कहते हैं अब खुद को वतन परस्त,
गाँधी के देश में अब गोडसे भगवान है ।
क्यों दिखाएं कागज़ और साबित करे शहरियात,
हम हैं मोहिब्बे वतन हमारी यही पहचान है ।
हिलने लगे हैं तख़्त अब अमीरों के,
तलबा ने जो कर दिया एहतजाज का ऐलान है ।
घबरा गए हैं यह आज़ादी के नारों से,
ख़ल्क़े खुदा पे जबर, यह कौन सा संविधान है ।
सबकी तरक़्क़ी सबका साथ और होगा विकास,
कोई याद दिलाये उन्हें ये वादा, बनते जो अंजान है ।
होगा अमन-ओ-चैन और खुशहाली हर सू ,
मुन्तज़िर हैं “अली”, अहले सियासत अब क्या प्लान है ।
शब्द कोष: बानी-ए-आईन (संविधान के निर्माता), मीज़ान (मापक, स्तर), दरसगाहें (विद्यालय), ज़िन्दान (कारागार, जेल), तशहददुद (हिंसा), पासबान (रक्षा करने वाला), पैरोकार (अनुयायी), मोहिब्बे वतन (देश प्रेमी), अमीर (शासक), तलबा (छात्र), एहतजाज (विरोध), ख़ल्क़े खुदा (लोग, जनता), जबर (अत्याचार), मुन्तज़िर (प्रतीक्षा करनेवाला), अहले सियासत (राजनीतिज्ञ)