उर्दू शायरी का जब भी ज़िक्र होता है, दिल्ली शहर की बात उसमें करना लाज़मी हो जाता है। दिल्ली में उर्दू के मुशायरों का एक बेहद पुराना और बा-तहज़ीब इतिहास रहा है। ग़ालिब, मोमिन के दौर में आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र की जानिब से कराये जाने वाले मुशायरे आज भी उर्दू अदब की तहज़ीब का एक अहम नमूना साबित होते हैं। लेकिन मुग़लों के पतन के बाद और दिल्ली के आख़िरी शायर कहे जाने वाले दाग़ देहलवी के बाद मुशायरों का फ़ॉर्म भी बदला और शायद उसकी तहज़ीब भी।
ऐन मुमकिन है कि इतिहास की बात करते वक़्त मैं 100 प्रतिशत सही नहीं हूँ, लेकिन यहाँ मैं तारीख़ की बात नहीं, वर्तमान की बात बताने जा रहा हूँ।
आज दिल्ली में मुशायरों की बाढ़ सी आ गई है। यहाँ के कुछ बड़े मुशायरे जो आज़ादी के बाद या उसके 10 बरस बाद शुरू हुए थे, उनको आज भी अहम मुशायरों की श्रेणी में रखा जाता है। जैसे लाल क़िले का मुशायरा, मॉडर्न स्कूल का शंकर-शाद मुशायरा या डीपीएस, मथुरा रोड का ‘जश्न ए बहार’ मुशायरा।
इसके अलावा पिछले कुछ सालों में जब से शायरी लिखना-सुनाना ‘कूल’ हो गया है, और Yourquote जैसी कंपनियों ने शायरी के नाम पर कुछ भी बेचने का धंधा शुरू किया है, तब से हर छोटे-बड़े स्तर पर मुशायरे होते रहते हैं। मुशायरों के इस इज़ाफ़े में एक बड़ा हाथ रेख़्ता फाउंडेशन (Rekhta foundation) का भी है, जिसकी वजह से आज लोग उर्दू को ज़्यादा से ज़्यादा सीखने को उत्सुक हैं। इन सब मंचों से शायरी का जितना नुक़सान हुआ है, उतना फ़ायदा भी हुआ, इससे किसी को ऐतराज़ नहीं हो सकता।
लेकिन हम आज बात करेंगे उस ‘तहज़ीब’ की, जिसके नाम पर ये सभी मुशायरे मुनक़्क़िद किए जाते हैं।
ये एक आम सी बात है कि उर्दू शायरी में हमेशा से शायर (पुरुष शायर) ज़्यादा रहे हैं, और शायरा (महिला शायर) कम। इसकी वजह हमारा पुरुषवादी समाज है, जिसने एक अरसे तक महिलाओं को अपने जागीर समझ के रखा और उन सब कामों को करने से रोका जो वो ख़ुद सदियों से करता आ रहा था। इस पुरुषवादी समाज ने महिलाओं को अपनी जागीर आज भी समझा हुआ है, लेकिन उसे ज़ाहिर करने में फ़र्क़ पैदा हो गए हैं, क्योंकि अब ये समाज ख़ुद को ‘प्रगतिशील’ और मॉडर्न क़रार दिया करता है। और जब मुशायरों की बात आती है, तो मर्दों की ये पुरुषवादी मानसिकता ज़ाहिर तो होती है, लेकिन ‘तहज़ीब’ के साथ।
हम आज बात कर रहे हैं दिल्ली में होने वाले मुशायरों की, और कैसे हर मुशायरे में मर्द शायरों द्वारा हर शायरा को harrass किया जाता है, उनका हज़ार लोगों की भीड़ के बीच शोषण किया जाता है।
और ये बात सिर्फ़ मुशायरों तक ही सीमित नहीं है। बरसों से होते आ रहे कवि सम्मेलनों में भी इसी तरह की हरकतें होती हैं। और अब तो ये कवि सम्मेलन न्यूज़ चैनलों का एक अहम प्रोग्राम बन गए हैं, जिसमें कवि, टीवी एंकर कवयित्रियों (महिला कवि) का मज़ाक़ बनाते हैं, और भद्दे चुटकुले सुनाते हैं।
इसी कड़ी में आता है एक मज़ाहिया शायर या हास्य कवि। इन हास्य कवियों को तो जैसे बदतमीज़ी करने का लाइसेंस मिला होता है। ये लोग हास्य कविता के नाम वो सारे महिला-विरोधी पति-पत्नी वाले चुटकुले सुनाते हैं जो व्हाट्सएप्प पर भेजे जाते हैं और जिन्हें verbal abuse की श्रेणी में रखा जाता है।
मुशायरों-कवि सम्मेलनों में इस समय ये सारी बातें आम हो चुकी हैं, जिनको एक बड़ा तबक़ा misogyny मानता है।
मैं पहले आपको कुछ वाक़यात से वाकिफ़ करा रहा हूँ :
18 फ़रवरी 2016 : दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज दीन दयाल उपाध्याय कॉलेज में एक मुशायरा (लिंक पर जाएँ और 00:51 सेकंड पर सुनें) हुआ। वहाँ की सोसाइटी “Kalamkaar” ने इसका एहतमाम किया था। मंच पर 4-5 शायर थे, और एक शायरा थीं। कॉलेज का ऑडिटोरियम भरा हुआ था और सामईन में ज़्यादातर छात्र थे। शेर पढ़ने के लिए माइक पर मध्यम सक्सेना नाम के शायर आए। माइक से echo हुआ और सीटी जैसी आवाज़ आई।
मध्यम सक्सेना ने कहा, “मुझे देख कर सीटी बजा रहा है! सीटी मारने वाली अभी पीछे बैठी है।” उनका इशारा पीछे बैठी शायरा पर था। सामईन में ठहाके गूंज गए, मध्यम सक्सेना के इस जुमले को सबने सराहा। पीछे बैठी शायरा ने चेहरे पर कोई भाव नहीं लाते हुए, इस बदतमीज़ी को ज़रा भी encourage नहीं किया।
हाल ही में दिल्ली के India Habitat Centre में मुशायरा हुआ। इसका एहतमाम डॉ. रकशंदा जलील ने करवाया था। मुशायरे की निज़ामत कर रहे थे अज़हर इक़बाल। मुशायरे में 7 शायर थे, एक शायरा थीं। जब नाज़िम ने शायरा को बुलाने से पहले उनका तार्रुफ़ करवाया और साथ ही बड़े ही ज़हीन तरीक़े से एक भद्दी बात भी कही। नाज़िम अज़हर इक़बाल ने शायरा के बारे में कहा, “और इन पर शेर तो तसनीफ़ (एक अन्य शायर का नाम) कहेंगे!” इस बात को सुन कर मंच पर बैठे शायर और सामाईन में बैठे लोग हँसने लगे, नाज़िम को अपने जुमले के सफ़ल होने का सुख भी मिल गया।”
इस वक़्त के ‘सबसे महंगे कवि’ के रूप में मशहूर हो चुके डॉ. कुमार विश्वास ने पिछले 15 सालों में कई जगहों पर परफ़ोर्म किया है और हर छोटे बड़े स्तर पर उन्होंने महिलाओं पर कई भद्दे जुमले कसे हैं, और ऐसी बातें कही हैं जो देश के 80 प्रतिशत से ज़्यादा मर्द whatsapp पर एक-दूसरे को भेजते हैं। कुमार विश्वास ने कपिल शर्मा शो, मीडिया चैनलों, भारत-दुबई के मुशायरों हर जगह ऐसी हरकतें लगातार की हैं।
ये कुछ क़िस्से हैं, लेकिन ये सिर्फ़ उदाहरण हैं। आप किसी भी मुशायरे में जाइए और देखिये कि कैसे शायरात पर तंज़ कसे जाते हैं, कैसे मज़ाक़ किया जाता है। आपको ये बात हर जगह दिख जाएगी।
मुशायरों के बारे में एक हक़ीक़त ये भी है कि शायरात की संख्या हमेशा कम होती है। हालांकि सिर्फ़ शायरात के मुशायरे भी होते हैं, लेकिन कितने?
आम मुशायरों में यूं होता है कि अगर 10 शायर हैं, तो एक या दो ही शायरा होंगी। ऐसा क्यों होता है? क्या शायरात की ऐसी भारी कमी है?
रेणु नय्यर, जो ख़ुद एक शायरा हैं ने न्यूज़क्लिक से बात करते हुए कहा, “ऐसा नहीं है कि शायरात की कमी है या वे अच्छी शायरी नहीं कर रही हैं, बात ये है कि जो organisers होते हैं, वे शायरात पर भरोसा कम करते हैं। ये हमारे पुरुषवादी समाज की दिक़्क़त है, कि वो औरतों के बारे में सोचता है कि उन्हें कुछ आता ही नहीं है।”
उन्होंने आगे कहा, “अगर शायरा बाहर की है, दूर से आने वाली है तो उसे नहीं बुलाया जाता है।”
मुशायरों में शायरा की इस क़दर कमी हमेशा से रही है, और शायरा होती भी है तो सिर्फ़ हाज़िरी के लिए होती है। बाज़ औक़ात मुशायरों की लिस्ट बनती है तो लिखा जाता है, “10 शायर, एक महिला”
और जब शायरा मुशायरे में पहुँच जाती है, तो उसके साथ वैसा सुलूक होता है जैसा कॉलेज में, habitat centre में हुआ, या कुमार विश्वास के द्वारा हर जगह होता है।
ये सिर्फ़ नए शायरों, छोटे मुशायरों की बात नहीं है, ये बदतमीज़ी रेख़्ता (rekhta) के मंच पर भी हुई है। और अज़हर इक़बाल जैसे नए नाज़िम से ले कर मुनव्वर राना जैसे पुराने शायर, सबने की है।
मुझे आज भी याद है जब मुनव्वर राना ने रेख़्ता के किसी पैनल में तवायफ़ों को ले कर एक घटिया सा जुमला कसा था।
ऐन मुमकिन है कि हर मर्द के पास इस बात का एक explaination मौजूद है, ये मुमकिन है कि वो कह देंगे कि ‘मज़ाक़ में ही तो कहा था’ या ‘वो मेरी दोस्त हैं, मैं कुछ भी कह सकता हूँ’।
इन बातों पर मेरा कहना है कि वो अगर आपकी दोस्त हैं भी, तो वो आपकी दोस्त हैं, मुशायरे में बैठे अन्य हज़ार लोगों की नहीं हैं। आपके ऐसे बोलने से हज़ारों छात्र ये समझेंगे, कि लड़कियों को देख कर सीटी बजाना ठीक है, या स्टेज पर खड़े हो कर भद्दे मज़ाक़ करना उचित है।
जिन घटनाओं का ज़िक्र मैंने किया है, वो इन मर्दों के लिहाज़ से बड़ी शालीन घटनाएँ हैं, आप यूट्यूब पर जाइए और देखिये कि कैसे एक शायरा को मुशयरे के मंच पर खिलौना समझा जा रहा है, और उसके बारे में बात कर के हँसा जा रहा है।
मैं कवि-शायर नहीं हूँ, मुझे तहज़ीब वगैरह का न तो ‘उनकी तरह’ ज्ञान है न ही उसकी ज़रूरत। मुझे कवि सम्मेलन-मुशायरों की भाषा भी नहीं आती। मुझे सिर्फ़ इतना समझ में आता है कि किसी महिला का इस क़दर मज़ाक़ बनाना, उसे objectify करना; सही नहीं हैं। न ही कविता/शायरी में, न ही असल ज़िंदगी में।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)