• About Us
  • Contact Us
  • Copyright, Terms and Conditions
  • Events
  • Grievance Redressal Mechanism
  • Home
  • Login
Indian Cultural Forum
The Guftugu Collection
  • Features
    • Bol
    • Books
    • Free Verse
    • Ground Reality
    • Hum Sab Sahmat
    • Roundup
    • Sangama
    • Speaking Up
    • Waqt ki awaz
    • Women Speak
  • Conversations
  • Comment
  • Campaign
  • Videos
  • Resources
  • Contact Us
    • Grievance Redressal Mechanism
  • About Us
No Result
View All Result
  • Features
    • Bol
    • Books
    • Free Verse
    • Ground Reality
    • Hum Sab Sahmat
    • Roundup
    • Sangama
    • Speaking Up
    • Waqt ki awaz
    • Women Speak
  • Conversations
  • Comment
  • Campaign
  • Videos
  • Resources
  • Contact Us
    • Grievance Redressal Mechanism
  • About Us
No Result
View All Result
Indian Cultural Forum
No Result
View All Result
in Comment

तथागत : एक चालाक नाटक

bySatyam Tiwari
June 17, 2019
Share on FacebookShare on Twitter

“वर्षों से मेरी भी चुप रहने की अवस्था रही है। सिर्फ़ पत्थर से बोलता था, आज उसका भी दोष गिना आपने। मृत्यु की घोषणा के साथ एक पूरी रात निकाल चुका हूँ महाराज। तथागत कह गए हैं कि मृत्यु कुछ नहीं है। सच है! मृत्यु कुछ नहीं है, परंतु प्रत्येक दिन मृत्यु मुक्ति है। आपने मुझे निर्वाण दे दिया महाराज, मैं आपका आभारी हूँ।”

15 जुलाई 2018 को जब “तथागत” की पहली रिहर्सल हुई थी, तब से ही मेरे ज़ेहन में ये सवाल है कि हरिदास ने ये बात राजा से किस हाल में कही होगी? एक मूर्तिकार, जिसने सारी ज़िंदगी महज़ पत्थरों से बात करते हुए गुज़ार दी, एक ऐसा इंसान जो ख़ुद में रहने वाला था, जो एक इंट्रोवर्ट था, उसको कितनी हिम्मत लगी होगी ये कहने में कि “आपने मुझे निर्वाण दे दिया महाराज!” उसके ज़ेहन की कैफ़ियत क्या रही होगी! उसे कैसा लगा होगा जब सिर्फ़ एक मूर्ति बनाने के लिए, जो महज़ एक मूर्ति थी भी नहीं। एक विद्रोह था, विद्रोह था उस जातीय हिंसा के ख़िलाफ़ जो विष्णुसेन के राज्य में सदियों से चली आ रही थी। और विद्रोह का  ज़रिया था, एक मूर्ति; तथागत की मूर्ति; सफ़ेद संगमरमर की जगह काले पत्थर से बनाई तथागत की मूर्ति।

आज मैं बात कर रहा हूँ जन नाट्य मंच (जनम) के नाटक “तथागत” की, जिसे लिखा और निर्देशित किया था अभिषेक मजूमदार ने, और नाटक में संगीत दिया था एमडी पल्लवी ने। मैं जनम में 2016 में आया था। ये वो समय था जब मैंने एक साल पहले ही अपनी स्कूल की पढ़ाई पूरी की थी, और समाज-राजनीति के बारे में मेरी समझ ना के बराबर थी। मैं पूरे होश-ओ-हवास के साथ अक़्सर ये बात कहा करता हूँ कि “जनम में आने के बाद मेरी बारहवीं सही मायनों में पूरी हुई थी!” जन नाट्य मंच ने 45 साल से लगातार जनता से जुड़े मुद्दों पर नाटक बनाए और खेले हैं। उसी सिलसिले में “तथागत” पिछले साल जुलाई में बनाया गया था, और 1 अगस्त को इसका पहला मंचन किया गया था। क़रीब 40 मिनट के इस नाटक में, प्राचीनकाल के एक बौद्ध राज्य के राजा, रानी, दासी, दासी का पति एक दलित मूर्तिकार, राज्य की धम्म सभा के मंत्री “नल्य” के इर्द-गिर्द चल रही एक कहानी को, देश के वर्तमान राजनीतिक स्थिति पर कड़ा हमला किया गया है। देश में उस वक़्त भी एक दक्षिणपंथी सरकार का “राज” था, और उस सरकार के राजा नरेंद्र मोदी की नीतियों के ख़िलाफ़ दलितों, अल्पसंख्यांकों और महिलाओं में ग़ुस्सा क़ायम था। नाटक में मुखर तौर पर “राज्य” और “राष्ट्र” की बहस को ज़िंदा किया गया था, और बहुत सहज तरीक़ों से दक्षिणपंथ पर हमले किए गए थे।

नाटक की शुरुआत होती है राजा विष्णुसेन के महल से, जहाँ राज्य की महारानी तथागत का हवाला देते हुए राजा से सवाल करती हैं कि हरिदास को सिर्फ़ एक मूर्ति बनाने के लिए क्यों सज़ा सुनाई गई है, और उससे पूछा क्यों नहीं गया कि उसने ऐसा क्यों किया है। ये कहानी एक बौद्ध राज्य की है। रानी, जो पहले किसी और धर्म की थीं, उन्होंने बौद्ध धर्म तक पहुँचने के लिए तथागत को समझते हुए एक सफ़र तय किया है। राजा, जो एक पित्रसत्तात्मक सोच वाला इंसान है; वो ज़ाहिर तौर पर रानी को मूर्ख समझता है, और कहता है कि उसे पता है कि उसका और धम्म सभा का निर्णय सही है, और उचित है। इसी सिलसिले में दासी भी है, जो गर्भवती है और मूर्तिकार हरिदास की पत्नी है। जब दासी राजा से अपने पति के प्राणों को बख़्श देने की मांग करती है, उसी लम्हे में राजा के अंदर का पुरुष बाहर आता है और महल में खड़ी दोनों महिलाओं पर हावी होने की कोशिश करता है।

“तथागत” कई मुद्दों पर बात करता है। जाति, लिंग, पुरुष-महिला के रिश्ते, राज्य-राष्ट्र की बहस; तमाम चीज़ें इस नाटक का हिस्सा हैं। नाटक में पहला विद्रोह का स्वर रानी की तरफ़ से उठता है जब वो सवाल करती है; और उसके साथ ही, दासी जिसके सामने अपने पति की जान दांव पर लगी हुई है, वो एक बड़े स्तर पर जा के सवाल करती है। मैं याद दिला दूँ कि नाटक एक “दलित” मूर्तिकार के बारे में है। और हालांकि ये बौद्ध राज्य है, लेकिन क्योंकि ‘जाति नहीं जाती’ सो जातिवाद यहाँ भी क़ायम है। एक लम्हा आता है जब राजा ग़ुस्से से कहता है, “अगर मुझे पहले ज्ञात होता कि वो बच्चे जनने वाला है, तो पहले ही उसे मृत्युदंड दे देते! देखो, कैसे एक महारानी कि छांव में बैठी है , एक राजा के कमरे में!”

दासी कहती है, “मैं महारानी की छांव में नहीं हूँ महाराज, आप हमारी छांव में हैं! समूचा गाँव आपको छांव देता है। हमारी जात में वर्ना एक हाथ से चट्टान चीर देते हैं, मनुष्य का तो आप सोच लीजिये!”

दासी की इस बात से नाटक का मोड़ यूँ बदलता है, कि अब बात सिर्फ़ एक इंसान को बचाने की नहीं, एक समुदाय को बचाने की है। उस सोच को बचाने की है, जो समाज का सबसे निचला तबक़ा हो कर भी सोच में उच्चतम है।

नाटक की कहानी आगे बढ़ती है, आख़िरकार रानी हरिदास का भरी सभा में पक्ष रखने का फ़ैसला करती है और राजा को हैरत होती है, वहशत होती है। राजा के सामने अब महज़ एक समुदाय का विद्रोह का नहीं, बल्कि अपने परिवार का भी विद्रोह है। अगले दिन हरिदास को बुलाया जाता है, धम्म सभा के वकील नल्य को बुलाया जाता है, और हरिदास को ले कर बैठक होती है।
हरिदास जिसने आज तक किसी से शायद बात तक नहीं की, वो अपने इस किए को ले कर शर्मिंदा भी नहीं है, ख़ुश भी नहीं है। उसने कुछ बहुत अनोखा भी नहीं किया है, कुछ बहुत ग़लत भी नहीं। हरिदास, जो ख़ुद को किसी का नेता नहीं समझता, आख़िरकार ख़ुद को, अपनी पहचान को, अपने समुदाय को लगातार चले आ रहे शोषण से बचाने के लिए बात करता है, वो बोलता है। नाटक का अंत राजा और नल्य के भागने से होता है। प्रजा राजा का दोगलापन समझ जाती है, और आख़िरकार राजा को “विदेश यात्रा” पर जाना पड़ता है।

यह नाटक जो कि गंभीरता से शुरू हुआ था, ख़त्म होता है मज़ाक़ से, व्यंग्य से और समकालीन भारत में चल रही राजनीति पर प्रहार से।

मैंने हमेशा से “तथागत” के बारे में सोचते हुए ये बात समझी है, कि ये एक चालाक नाटक है। नाटक का आख़िरी सीन, जो एक कॉमेडी सीन है; उसमें वर्तमान सरकार पर ऐसे तंज़ कसे गए हैं, ऐसे प्रहार किए गए हैं; जो सीधे सामने आते भी हैं और नहीं भी आते हैं। एक राजा, जो धर्म के नाम पर बड़ी-बड़ी बातें करता है; तानाशाह रवैया अपनाता है, धीरे-धीरे उसका खोखलापन सामने आ ही जाता है। कई बार ऐसा हुआ कि लोगों ने नाटक देखने के बाद कहा; “ये तो आप मोदी के ख़िलाफ़ नाटक दिखा रहे हैं!” और जब उनसे पूछा गया कि आपको वो राजा नरेंद्र मोदी लगे? तो उनके पास कोई जवाब नहीं होता था। ये नाटक, जो सीधा प्रहार है भी और नहीं भी है; उसके बारे में कोई ये बात का एतराफ़ नहीं कर सकता कि ये उनके विरोध में है।

“तथागत” के अब तक 65 शो हो चुके हैं। इस नाटक के शोज़ हर तरह की जगह पर हुए हैं। नाटक में शामिल जाति का पहलू ऐसा है, कि वो लोगों पर सीधा असर करने में कामयाब होता है। मुझे याद है कि मयूर विहार के किसी शो में एक परिवार नाटक के बीच में आया और जनम की एक साथी जो दासी का किरदार अदा कर रही थीं, उनके पैर छूने लगा। पैर छूने से हमको एहसास हुआ कि कैसे नाटक ने एक संस्कृति को छूआ है; और यही नाटक की ताक़त थी।

अंत में मैं नाटक के “protagonist” के बारे में बात करना चाहता हूँ। 65 शोज़ में से करीब 50 बार मैंने हरिदास का किरदार अदा किया है। इस किरदार को समझने, जीने का एक पूरा सफ़र था जो बहुत ज़रूरी था और बहुत कुछ सिखाने वाला था। नाटक की रिहर्सल के दौरान समाज में हो रहे भेद-भाव, देश में अरसे से चली आ रही जातीय हिंसा के बारे में मेरी समझ लागतार बढ़ती रही थी, और एक संवेदनशील स्तर पर मैंने इस किरदार को समझने की हर मुमकिन कोशिश की। इसके दौरान मुझे देश की वर्तमान सरकार जिसने लगातार दलित-विरोधी क़दम उठाए हैं; उसके बारे में भी सोचने के लिए नए आयाम हासिल हुए।

“तथागत” एक चालाक नाटक है जिसने सारी बातें कहते हुए भी कुछ नहीं कहा; और कुछ ना कहते हुए भी सभी कुछ कह दिया।


फोटो सौजन्य सत्यम् तिवारी।

Related Posts

Jiban Narah’s Poetry, A True Voice of Assam
Comment

Jiban Narah’s Poetry, A True Voice of Assam

byA J Thomas
“The missing person” slips into his own words.
Comment

“The missing person” slips into his own words.

byDurga Prasad Panda
For Saleem Peeradina
Comment

For Saleem Peeradina

bySamreen Sajeda

About Us
© 2023 Indian Cultural Forum | Copyright, Terms & Conditions | Creative Commons LicenseThis work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License
No Result
View All Result
  • Features
  • Bol
  • Books
  • Free Verse
  • Ground Reality
  • Hum Sab Sahmat
  • Roundup
  • Sangama
  • Speaking Up
  • Waqt ki awaz
  • Women Speak
  • Conversations
  • Comment
  • Campaign
  • The Guftugu Collection
  • Videos
  • Resources
  • About Us
  • Contact Us
  • Grievance Redressal Mechanism

© 2023 Indian Cultural Forum | Creative Commons LicenseThis work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Create New Account!

Fill the forms bellow to register

All fields are required. Log In

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In