इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट, दिल्ली में 30 मार्च को हुए कॉन्क्लेव में जिसका विषय “नेहरू की विरासत और समकालीन भारत में उसकी ज़रूरत” था, में भारतीय लेखिका नयनतारा सहगल ने “आइडिया ऑफ़ इंडिया” विषय पर अपनी बात रखी।
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इस कॉन्क्लेव का विषय है “नेहरू की विरासत और समकालीन भारत में उसकी ज़रूरत” और इस संदर्भ में मुझे “भारत का विचार” पर बोलने को कहा गया है। तो मैं इससे शुरू करती हूँ कि कैसे “आइडिया ऑफ़ इंडिया” (भारत की संकल्पना) का विषय सामने आया; कैसे ये हमारी आधुनिक विरासत का हिस्सा बना; और ये क्यों इसको नेहरू से अलग करके नहीं देखा जा सकता। हमें ये याद रखने की ज़रूरत है कि भारत के जिस विचार को हमने गंभीरता से नहीं लिया, उस पर आज उन विचारों का हमला जारी है जो सीधे तौर पर भारत के विचार के विरुद्ध हैं। विश्व के राजनीतिक माहौल में भारतीयों को इस सवाल का जवाब देना होगा कि क्या नेहरू की विरासत इस हमले को झेल पाएगी? यही माहौल भारत में है जहाँ लोकतंत्र, बहुलवाद और मानवाधिकारों को एक ज़बरदस्ती की थोपी गई एकरूपता और उन लोगों के अपराधीकरण के ज़रिये बदला जा रहा है जो इसके अनुरूप नहीं होंगे।
राजनीतिक निर्माण को देखा जाए, तो आज का भारत 1947 से शुरू होता है जब इतिहास में पहली बार उपमहाद्वीप एक राजनीतिक इकाई के बना था। उससे पहले इस पर अलग-अलग क्षेत्रीय ताक़तों ने राज किया था। अंग्रेज़ी साम्राज्य ने इसे ब्रिटिश भारत और महाराजा-शासित राज्यों में बाँट दिया था। और आख़िरकार विभाजन हुआ और इसे भारत और पाकिस्तान में बाँट दिया गया।
जो कांग्रेस पार्टी सबसे पहले सत्ता में आई, यही पहला राजनीतिक गठन था जिसने सबसे पहले ब्रिटिश राज से आज़ादी की मांग की थी और इस आज़ादी की ख़ातिर लड़ने के लिए गांधी के नेतृत्व में एक देशव्यापी आंदोलन स्थापित किया था। इस आंदोलन की तरफ़ निष्ठा और इसमें हर क्षेत्र, धर्म, वर्ग, आमजन, भाषा और लिंग की सक्रिय भागीदारी और इसकी समग्रता ने आंदोलन को एक अनोखा किरदार प्रदान किया। इस पहली राष्ट्रीय चेतना और राष्ट्रीय एकता के निर्माता गांधी थे और भारत की आज़ादी के शुरुआती 17 सालों में नेहरू ने इस चेतना को आगे ले जाने का काम किया और इसे भारतीयों के रोज़ के अनुभवों का हिस्सा बनाया जो एक आधुनिक भारत की समझ बन सका। राष्ट्रीय आंदोलन में नेहरू के 20 साल, जिसमें से 10 साल विभिन्न जेलों में बीते थे, ने भारतीयों को नेहरू को बेहतर तरीक़े से समझने-जानने का मौक़ा दिया, और इसी दौरान गांधी के बाद नेहरू पहले नेता बने जिन्होंने भारतीयों को सबसे अच्छे से जाना और समझा।
आज़ादी के लिए जंग हमेशा उस विचारधारा से जीती जाती है जो उस लड़ाई को प्रेरित करती है। ये विचारधारा संघर्ष के दौरान अपने लक्ष्यों को पहचानती है और मुद्दों पर अपना स्पष्ट नज़रिया ज़ाहिर करती है। नई सरकार की एकजुटता, बहुलवाद और धर्मनिरपेक्षता के लिए जो स्वीकृत वचनबद्धता थी, वो अनेकता में एकता और साझा भारतीय पहचान के अनुभवों के तहत सामने आई थी। विभाजन के ख़ून-ख़राबे और तबाही के बाद नेहरू की तत्काल प्राथमिकता सांप्रदायिक शांति थी। धार्मिक आज़ादी को बचाने की उनकी निजी शपथ पर कोई शक नहीं कर सकता। 1951 में जनता को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था, “अगर कोई धर्म के नाम पर किसी पर हाथ भी उठाता है, तो मैं अपनी आख़िरी साँस तक उससे लड़ूँगा, चाहे सरकार में होते हुए, या सरकार से बाहर रह कर।” अंबेडकर के नेतृत्व में संविधान के निर्माताओं ने इस घोषणा को संवैधानिक प्रमाण का दर्जा दिया था। अंबेडकर के लिए आज़ादी और समानता कोई तोहफ़े नहीं थे, बल्कि हर नागरिक का जन्मसिद्ध अधिकार थे, और इसी की ख़ातिर वो ज़िंदगी भर लड़ते रहे। हिन्दू और मुस्लिम दक्षिणपंथियों दोनों ने ही राष्ट्रीय आंदोलन के एकजुट अनुभवों में कोई हिस्सा नहीं लिया और बहुलवाद या अनेकवाद जैसी चीज़ें उनकी सोच के लिए कोई विदेशी विषय की तरह थीं। दोनों जिनकी राष्ट्रीयता और पहचान धर्म के आधार पर थी, ने विभाजन को अटल बना दिया। मुसलमानों का ये अटूट दावा तब तितर-बितर हो गया जब पूर्वी पाकिस्तान आज़ाद हो कर बांग्लादेश बन गया। 2014 तक हमेशा ही भारत में लोकसभा चुनावों की जीत ने हिन्दू दक्षिणपंथियों को नज़रअंदाज़ किया था।
उस समय हालात भयभीत करने वाले थे जिस समय नेहरू की सरकार ने आइडिया ऑफ़ इंडिया को आगे बढ़ायाथा और जिस विशालता से उपमहाद्वीप को राजनीतिक और आर्थिक ग़ुलामी से बाहर खींच कर बचाव और आधुनिकता के रास्ते पर खड़ा किया था, और इसके लिए एक स्वतंत्र समाज में बिना निजी आज़ादी को त्यागते हुए किए गए विशाल प्रयासों की वजह से ही ये इतिहास अपने जैसा पहला आंदोलन साबित हुआ। ब्रिटिश राज के शोषण और लूटमार के 200 साल के बाद भारत में भुखमरी फैली हुई थी और संसाधनों का सूखा पड़ चुका था। सिर्फ़ ब्रिटिश फ़ायदे के लिए बनाई गई अर्थव्यवस्था ने स्वदेशी विकास को पूरी तरह से रोक दिया था। 1930 के दशक में देश ने तमाम भुखमरी झेली और दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान भारत के अनाज को अंग्रेज़ों के लिए युद्ध के मैदान में भेज दिया गया था, बंगाल की भुखमरी में क़रीब 30 लाख भारतीयों की जान ले ली थी। 1947 तक भारत की कुल आबादी 4 करोड़ का आधा हिस्सा दुखद ग़रीबी में जी रहा था।
ये वो वक़्त था जब दुनिया की संदेहवादी, तर्कवादी और निर्णायक नज़रें भारत पर थीं। जानकार समीक्षकों के द्वारा किया गया भारत की अर्थव्यवस्था का मूल्यांकन इसलिए ज़रूरी है क्योंकि वो समकालीन थे, और इसलिए भी क्योंकि वो उन बातों से एकदम अलग हैं जो आज के समीक्षक कहा करते हैं कि नेहरू के राज में देश में कुछ भी नहीं हुआ और ये कि आज़ादी के शुरुआती 20 साल बर्बाद हुए थे। भारत को देखने वालों ने तब एक दूसरी राह पकड़ी थी। यहाँ दो मान्यताएँ हैं। एक है पर्सिवल ग्रिफ़िथ्स की, जो एक रिटायर्ड ब्रिटिश कर्मचारी थे और जिन्हें भारत की क्षमताओं पर कोई भरोसा नहीं था। 1957 में उन्होंने लिखा था कि आज़ादी के बाद भारत में अनाज का उत्पादन शानदार रहा, और भारत वो करने में कामयाब रहा जो उन्होंने और उनके जैसे अन्य समीक्षकों ने नामुमकिन समझा था। अर्थशास्त्री बारबरा वार्ड जिन्होंने भारत के विकास को ग़ौर से देखा था, ने 1961 में प्राइवेटसेक्टर के विकास के बारे में लिखा। जमशेदपुर में हर साल क़रीब 5 लाख टन स्टील बनाने वाले टाटा स्टील प्लांट से लेकर बाज़ार में पहली बार अपना एक मन चावल बेचने वाले किसान के बारे में। उन्होंने लिखा, “प्राइवेट एंटरप्राइज़ इतनी तेज़ी से कभी नहीं बढ़ा जितनी तेज़ी से पिछले एक दशक में बढ़ा है। पहली और दूसरी योजना के बीच में हर सेक्टर जिसमें खेती भी शामिल है, में इसका निवेश दोगुना हो गया है।” बाद में पुलपरि बालाकृष्णन द्वारा भारत की एक और समीक्षा में ये बात सामने आई कि जो विकास दर 1900 से 1947 तक शून्य प्रतिशत की थी, वही आज़ादी के बाद और 1962 के चीन हमले तक 4 प्रतिशत पर पहुँच गई थी, जिसने भारत को उस समय की कामयाब अर्थव्यवस्थाओं के साथ खड़ा कर दिया था, और चीन, जापान और यूनाइटेड किंगडम से आगे ले कर आया था।
नेहरू काल के भारत-समीक्षकों ने अपनी निजी राष्ट्रीय अवधारणाओं के आधार पर जनता और सरकार का सहयोग को और राष्ट्रीय प्रयास की लहर के लिए हुए साझा साहस को देखा, और ये देखा कि इस प्रयास के मुख्य चालक ख़ुद प्रधानमंत्री थे। नेहरू की जीवनी लिखने वाले माइकल ब्रेचर पहली और दूसरी योजना की सफ़लता और विफ़लता पर लिखते हैं, “बेशक वो भारत की जनता के स्तर को बढ़ाने वाले बहादुर संघर्ष के दिल, आत्मा और दिमाग़ हैं।” नेहरू के राज में जैसे भारत बिना अधिकारों और आज़ादी की कटौती वाले समाज के तौर पे आगे बढ़ा, उसे एक साहसिक क़दम के तौर पे देखा गया। नेहरू की मौत पर ये बात दुनिया भर के लोगों के द्वारा कही गई थीं। मैं दो लोगों की बात यहाँ रख रही हूँ। अमरीकी राजनेता अदलाई स्टीवनसन ने लिखा था, “वो (नेहरू) हमारे समय में भगवान की महानतम रचनाओं में से एक थे। उनका देश और उनका आज़ादी और हर इंसान की सलामती का सपना, उनकी यादगार है।” भारत में, तब एक युवा सांसद रहे अटल बिहारी वाजपायी ने नेहरू की मौत का शोक मनाते हुए लोकसभा में कहा था, “एक सपना अधूरा रह गया है, एक गीत ख़ामोश हो गया है। राम की तरह, नेहरू भी असंभव को संभव बनाने वाले थे। वो भी किसी समझौते से घबराते नहीं थे, लेकिन किसी भी दबाव में कोई समझौता नहीं करते थे। एक नायक चला गया है, लेकिन उसके अनुयायी बने रहेंगे। सूरज अस्त हो गया है, फिर भी हमें तारों की रोशनी में अपने रास्ते चुनने होंगे।”
नेहरू को उचित श्रद्धांजलि बीसवीं शताब्दी के मुख्य साइंटिस्ट ब्रिटेन के जेबीएस हाल्डेन ने दी थी जब वो 1957 में अपनी पत्नी के साथ भारत आए और यहाँ की राष्ट्रीयता हासिल की। ऐसा उन्होंने सिर्फ़ नेहरू की युवाओं को साइन्स की दुनिया में लाने की प्रतिबद्धता को देखते हुए नहीं किया बल्कि उनके शब्दों में, “भारत एक ऐसी जगह है जहाँ एक सभ्य समाज का उचित नमूना देखा जा सकता है।” उन्होंने कहा था कि वो ये बात यूरोप के कुछ शहरों और अमेरीका के कई शहरों के बारे में नहीं कह सकते।
नेहरू की विरासत अब भारत की उस कल्पना के विरुद्ध खड़ी दिखती है जिसका नाम हिन्दुत्व है, और जो कि उस एकता के एकदम उलट है जिसके लिए भारत एक सभ्यता और एक राष्ट्र के तौर पर हमेशा से खड़ा रहा है। हिन्दू दक्षिणपंथी जिन्होंने भारत की आज़ादी में कोई हिस्सेदारी नहीं दिखाई थी, बल्कि अंग्रेज़ों द्वारा धार्मिक बँटवारे पर पलने को राज़ी हुए थे, आज भारत को हिन्दू और बाक़ियों में बाँटने का काम कर रहे हैं। 1948 में गांधी जी की हत्या से हिन्दुत्व ने अपना पहला राजनीतिक क़दम उठाया था और जनता को अपने नज़रिये के बारे में बताया था। हर धर्म को स्वीकार करने के स्वभाव की वजह से और अपने “ईश निंदा” मंत्र ‘ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम’ की वजह से लंबे समय से हिन्दुत्व के निशाने पर रहे थे। अब नेहरू के ख़िलाफ़ हिन्दुत्व का कैम्पेन नेहरू को इतिहास से हटाने और नेहरू मेमोरियल म्यूज़ियम सहित तमाम संस्थानों को ध्वस्त करने का लक्ष्य प्रकट करता है। जो अब सत्ता में हैं, वो इन सब जगहों पर हिन्दुत्व का ठप्पा लगा रहे हैं।
भारत को हिंदुवादी बनाना और इसे एक हिन्दू राष्ट्र में बदल देने के एजेंडे का एक अजीब पहलू ये है कि इस प्रस्ताव को कभी भी जनता के सामने सीधे तौर पर नहीं रखा गया है। ये जितना खुले तौर पर लोकतंत्र में शामिल हो गया है, उतना किसी भी घोषणापत्र या भाषण में सामने नहीं आया है। न ही कोई जनमत संग्रह जारी किया गया है जिसके तहत जनता हाँ या न में जवाब दे सके कि वो इतने बड़े बुनियादी बदलाव के लिए तैयार भी है या नहीं। हालांकि इस एजेंडे ने उस जंग से ये बात साफ़ कर दी है जो हिन्दुत्व नाज़ी-स्टाइल में उन लोगों के ख़िलाफ़ लड़ रहा है जिन्हें वो “अन्य” कहते हैं, और जो हर उस भारतीय पर हमले कर रहा है जो हिन्दुत्व की लाइन में नहीं चलता है।
एक आइडिया ऑफ़ इंडिया और दूसरे के बीच जो चुनाव है, वो दरअसल असलियत और कल्पना का चुनाव है। हम उन हालात में जी रहे हैं जहाँ सदियों से इतिहास में दर्ज चीज़ें कभी हुई ही नहीं थीं, जहाँ सारी जानकारी औरवैज्ञानिक अविष्कार की जड़ें वेदों में हैं, और जहाँ भारतीय पहचान केवल हिन्दू ही है, उस समय के हिसाब से जब देश धार्मिक, सांस्कृतिक, और जातिगत रूप से स्वच्छ था जिसमें इसकी हिन्दूवादी स्वच्छता को मलिन करने के लिए किसी बाहरी ताक़त का हाथ नहीं था। क्या इस कल्पना को तथ्यों से बदला जा सकता है? बिल्कुल बदला जा सकता है! और हमने ऐसा होते हुए कई साम्राज्यों में देखा भी है, जैसे नाज़ियों के राज वाले जर्मनी में। हम अब ये नहीं कह सकते कि यहाँ ऐसा नहीं हो सकता। आज हम जो राज्य-प्रायोजित भीड़ का राज, गिरफ़्तारी और जेल भेजना और लोकतांत्रिक कार्यों को ठप करना देख रहे हैं, बहुत मुमकिन है कि यही भारत में दो आइडिया ऑफ़ इंडिया के चुनाव का गठन करेगा, लोकतंत्र और एकतंत्र का चुनाव और सबसे अहम सभ्यता और असभ्यता का चुनाव।
जिस तरह से तब दुनिया ने नेहरू की दयाशील और एकजुट सरकार को सराहा था, उसे अब उसी सभ्य नेतृत्व के लिए न्यूज़ीलैंड के युवा प्रधानमंत्री को देखना होगा।
(यह व्याख्यान मूलतः अंग्रेज़ी में था जिसका हिन्दी अनुवाद किया गया है।)