जानी मानी शायरा, मानवाधिकार कार्यकर्ता और नारीवादी फहमीदा रियाज़ का 72 साल की उम्र में लंबे बीमारी से झूंझने के बाद, 22 नवंबर को देहांत हो गया। जुलाई 28, 1946 को हिन्दुस्तान के मेरठ शहर में जन्मीं रियाज़ अपने मुनफ़रिद लिखने के तरीक़े और इंसानी हक़ूक़ के हक़ में लड़ने की वजह से मशहूर हुईं। अपने पिता के सिंध प्रांत में तबादले के बाद रियाज़ और उनका परिवार पाकिस्तान चला गया था।
बचपन से ही साहित्य में रुचि रखने वाली फ़हमीदा ने उर्दू, सिन्धी और फारसी भाषाएं सीख ली थीं। 15 साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहली कविता लिखी थी, जो फनून मैगज़ीन में शाया हुई थी। रियाज़ की पहली किताब पत्थर की ज़ुबान 1982 में छपी थी। क्या तुम पूरा चाँद न देखोगे, गोदावरी, और बदन दरीदा उनकी 15 से ज़्यादा ताशीर हुई किताबों में से कुछ हैं। उनकी कविताओं में क्रांति और बगावत की झलक मिलती है और अपनी खुद की मैगज़ीन आवाज़ निकालने के बाद वह उस वक़्त के पाकिस्तानी जनरल ज़िया-उल-हक़ के नज़र में आ गयीं थीं। ज़िया-उल-हक़ के तानाशाही दौर में रियाज़ और उनके शौहर, ज़फर के खिलाफ़ 10 से ज़्यादा मामले दायर किए गए थे। नतीजा ये हुआ की आवाज़ को बंद कर दिया गया और ज़फर को जेल हो गयी। इन सब हालातों के चलते रियाज़ को लगभग सात सालों के लिए हिन्दुस्तान में रहना पड़ा, जहाँ अमृता प्रीतम ने प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी से बोल कर उनके रहने का इंतज़ाम कराया था। इस दौरान वह दिल्ली के जामिया विश्वविद्यालय में रहीं और उन्होंने हिन्दी पढ़ना सीखा।
जब फहमीदा की दूसरी कविता संग्रह बदन दरीदा 1973 में प्रकाशित हुई तो उन पर कविता में वासना और अश्लीलता के इस्तेमाल के आरोप लगे। कई सालों बाद, एक इंटरव्यू में इस मामले के बारे में बात करते हुए फहमीदा ने कहा था, “मैंने कोई अपराध नहीं किया था, मेरी खता बस इतनी सी थी कि मैंने “चादर और चहारदीवारी” जैसी कविता में बड़ी सच्चाई के साथ पाकिस्तानी महिलाओं की विपदाओं के बारे में आवाज उठाई थी। जनरल ज़िया-उल-हक़ ने नाराज़ होकर मुझ पर बे-सिर पैर के आरोप लगाते हुए मुझे मुल्क बदर किया।”
फहमीदा रियाज़ और उनकी कविताएं,ना सिर्फ़ पाकिस्तान, बल्कि पूरी दुनिया के महिलाओं के अधिकारों के लिए एक बुलंद आवाज थीं। बेख़ौफ़ और बेबाक, उनके लिए नारीवाद का सीधा-सा मतलब यही था कि “मर्दों की तरह ही, औरतें भी अपने आप में मुक़म्मल इंसान हैं, जिनके तरक़्क़ी के मौके गैर मेहदूद हैं।”
एक उर्दू साहित्यकार के रूप में भी रियाज़ का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने रूमी और इस्माइल कादरे जैसे शख्सियतों के काम का उर्दू में तर्जुमा भी किया है। उनके निधन से उर्दू साहित्य जगत को गहरी चोट पहुंची है। नाटककार असग़र नदीम सईद ने कहा कि “फहमीदा की मौत के साथ हम सब एक जम्हूरियत पसंद, इंसानी हक़ूक़ के कारकुन से मरहूम हो गए हैं।”
एक ऐसी शख्सियत, जो औरत की शक्ल में एक मिसाल थीं, के बारे में ज़्यादा कुछ कहने से बेहतर है की उनके साहित्य को उनके लिए बोलने दिया जाए:
चार-सू है बड़ी वहशत का समाँ
किसी आसेब का साया है यहाँ
कोई आवाज़ सी है मर्सियाँ-ख़्वाँ
शहर का शहर बना गोरिस्ताँ
एक मख़्लूक़ जो बस्ती है यहाँ
जिस पे इंसाँ का गुज़रता है गुमाँ
ख़ुद तो साकित है मिसाल-ए-तस्वीर
जुम्बिश-ए-ग़ैर से है रक़्स-कुनाँ
कोई चेहरा नहीं जुज़ ज़ेर-ए-नक़ाब
न कोई जिस्म है जुज़ बे-दिल-ओ-जाँ
उलमा हैं दुश्मन-ए-फ़हम-ओ-तहक़ीक़
कोदनी शेवा-ए-दानिश-मंदाँ
शाइ’र-ए-क़ौम पे बन आई है
किज़्ब कैसे हो तसव्वुफ़ में निहाँ
लब हैं मसरूफ़-ए-क़सीदा-गोई
और आँखों में है ज़िल्लत उर्यां
सब्ज़ ख़त आक़िबत-ओ-दीं के असीर
पारसा ख़ुश-तन-ओ-नौ-ख़ेज़ जवाँ
ये ज़न-ए-नग़्मा-गर-ओ-इश्क़-शिआ’र
यास-ओ-हसरत से हुई है हैराँ
किस से अब आरज़ू-ए-वस्ल करें
इस ख़राबे में कोई मर्द कहाँ
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