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प्रेम और दार्शनिकता का कवि

byManglesh Dabral
November 22, 2017
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प्रेम और दार्शनिकता का कवि
Image courtesy Scroll

हिंदी समाज में ऐसे लोग अब बहुत कम बचे रह गए हैं जो अपने व्यक्तित्व में सांस्कृतिक बहुलता और अपनी भाषा में सचाई, शराफत और नैतिकता की रौशनी लेकर चलते हों. कुंवर नारायण ऐसे ही मनुष्य और लेखक थे. उनके जाने से दुर्लभ गुणों वाले एक व्यक्ति का अवसान हो गया है और हिंदी कविता ने ऐसा कवि खो दिया है जिसकी कविता को पढना एक सुकून और एक उदात्तता के भीतर जाने की  तरह था. कुंवर नारायण कई वर्ष तक आखों की लगातार घटती रोशनी और कानों की समस्या से लड़ते रहे और उनके जीवन आख़िरी दौर के करीब पांच महीने बेहोशी की हालत में मृत्यु से जूझते हुए बीते. संसार उनके लिए स्पर्शों में सिमट आया था, लेकिन इसके बावजूद उनकी संवेदना का आतंरिक प्रकाश मद्धिम नहीं हुआ और न बोलकर लिखवाने की क्षमता में कमी आयी. उनकी बहुत सी कवितायेँ और ‘कुमारजीव’ जैसा प्रबंध काव्य इसी प्रक्रिया से संभव हुए. आर्जेन्टीना के प्रसिद्ध कहानीकार और चिन्तक होर्खे लुईस बोर्खेस उनके बहुत प्रिय लेखक थे और यह सिर्फ संयोग से अधिक कुछ है कि बोर्खेस भी युवावस्था में दृष्टिहीनता के शिकार हो गए थे. कुंवर नारायण घर आने वाले लोगों के हाथ देर तक छूते-सहलाते हुए बैठे रहते थे. एक दिन बातचीत के दौरान उन्होंने कहा, ’मैं बाहर की दुनिया नहीं देख पाता हूँ, लेकिन अब अपने भीतर ज्यादा देखता हूँ.’

कुंवर नारायण की काव्य संवेदना का विकास उस दौर में हुआ जो ‘नयी कविता’ का ‘साहित्यिक समय’ था. लेकिन उनकी कविताएं शुरू से ही साहित्यिक न होकर सामाजिक रहीं. उनके विचारों पर आचार्य नरेन्द्रदेव जैसे विद्वान और समाजवादी  विचारक का गहरा प्रभाव रहा. उनके सांस्कृतिक सरोकार भी कविता से आगे आधुनिक चिंतन,  बौद्ध दर्शन, मिथकों, मनुष्य के सास्कृतिक संकटों, विश्व साहित्य, सिनेमा, शास्त्रीय संगीत, पुरातत्व आदि तक फैले रहे और ग़ैर-व्यावसायिक सिनेमा पर उनका लेखन बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है. उनके भीतर विभिन्न वैचारिक धाराओं की लगातार आवाजाही रहती थी. सोवियत संघ के विघटन के बाद जब मार्क्सवादी विचारधारा सार्वजनिक भर्त्सना का विषय बन रही थी, कुंवर नारायण ने कहा था कि ‘अब मार्क्सवाद सोवियत संघ से निकल कर विचारों  की एक ज्यादा बड़ी दुनिया में आ गया है.’ उनकी यह मान्यता भी चर्चित हुई कि ‘साहित्य का जनवाद राजनीति के जनवाद से बहुत पुराना है’ जिसमें कहीं प्रेमचंद के इस मशहूर कथन की अनुगूंज थी कि ‘साहित्य राजनीति के आगे-आगे चलने वाली मशाल है.’ दरअसल बाकायदा प्रगतिशील और मार्क्सवादी न होते हुए भी कुंवर नाराय़ण की चेतना में प्रगतिशील विवेक अंतर्निहित रहा, इसीलिए वे कह सकते थे कि ‘केंद्रीय मार्क्सवादी चिंतन में भी ‘आध्यात्मिक’ शब्द बहिष्कृत नहीं है, उसके सही सन्दर्भ वे मानवीय मूल्य हैं, जिनके पूरे विकास की कल्पना समाजवादी व्यवस्था में की गयी है.’ कुंवर नाराय़ण को हिंदी के सबसे अधिक पढ़े-लिखे लेखकों में भी शुमार किया जाता है और उनकी इस बौद्धिकता का विस्तार कविताओं के अलावा उन आलोचनात्मक लेखों में भी है जो उनके सांस्कृतिक बहुलतावाद और सरोकारों के विस्तार का साक्ष्य हैं.

कुंवर नारायण की पारिवारिक पृष्ठभूमि आर्थिक रूप से सम्पन्न थी. अपने प्रिय शहर लखनऊ में वे एम्बेसडर कारों के बड़े से शोरूम के ‘मैनेजिंग पार्टनर’ थे, लेकिन इस व्यवसाय को बढाने और लाभ कमाने के लिए उन्होंने कभी कुछ नहीं किया, बल्कि वे आत्म-विनोद के साथ खुद को ‘डैमेजिंग पार्टनर’ बताते थे या कभी कहते, ‘मैं गाड़ियों का व्यापार इसलिए करता हूँ ताकि शब्दों का व्यापार न करना पड़े.’ लखनऊ का उनका घर भी प्रसिद्ध था जहाँ कई कलाकार आया और रहा करते. उनमें उस्ताद अमीर खां भी थे जिन्होंने उस घर में कई रागों का प्रभावशाली गायन किया था. सत्यजित रॉय जब  प्रेमचंद की कहानी पर अपनी पहली हिंदी फिल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी’ बना रहे थे तो शूटिंग के दौरान अक्सर उनके घर रुकते. बाद में उन्हें लखनऊ छोड़कर दिल्ली आना पड़ा जिसे वे सत्ता का केंद्र मानते थे और जैसा कि उन्होंने अपनी एक कविता में कहा था—दिल्ली की तरफ घुड़सवारों के पीछे घिसटते हुए दो बंधे हुए हाथ ही पंहुचते हैं.

प्रेम और दार्शनिकता कुंवर नारायण की कविता का केन्द्रीय कथ्य है और भाषा  उनके लिए एक प्रिज्म की तरह है जिससे वे प्रेम और मानवीय उदात्तता को विभिन्न कोणों और विस्तारों में पनपते, फैलते और प्रकट होते हुए देखते हैं. यह प्रेम मनुष्यों ही नहीं, मिथकों, इतिहासों, दार्शनिक धारणाओं, स्मृतियों, ‘एक नया सवेरा देने’ वाले पेड़ों और नीम, मालती, अमलतास के फूलों तक फैला हुआ है. एक कविता में वे जब लोगों से नफरत करना चाहते हैं तो इसमें असमर्थता व्यक्त करते हुए कहते हैं: ‘अंग्रेजों से नफ़रत करना चाहता/ तो शेक्सपीयर आड़े आ जाते/ जिनके मुझ पर न जाने कितने एहसान हैं/ मुसलमानों से नफ़रत करने चलता/ तो सामने ग़ालिब आकर खड़े हो जाते/ अब आप ही बताइए, किसी की कुछ चलती है/ उनके आगे?’

एक और कविता ‘ज़ख्म’ में कुंवर नारायण कहते हैं: ‘इन गलियों से /बेदाग़ गुज़र जाता तो अच्छा था/और अगर दाग ही लगना था तो फिर/कपड़ों पर मासूम रक्त के छींटे नहीं/ आत्मा पर /किसी बहुत बड़े प्यार का ज़ख्म होता/जो कभी न भरता.’ ताकत के तंत्रों द्वारा विद्वेष और बर्बरता की शिकार बनाई जा रही दुनिया में कुंवर एक ज़िद की तरह बार-बार प्रेम और मनुष्यता की ओर लौटते हैं और कविता को ‘कभी हमारे सामने, कभी हमसे पहले, कभी हमारे बाद’ एक गवाह मानते हैं. नफरत, साम्प्रदायिकता की और तमाम अमानवीयताओं और मनुष्य-विरोधी ताकतों और सत्ताओं से उनकी विरक्ति इसी प्रेम का एक हिस्सा है. वे जिस ढंग से एक गहरे विराग और उदासीनता को इन चीज़ों की आलोचना और प्रतिरोध का औज़ार बनाते हैं, वह हिंदी कविता में विलक्षण है. जब कभी वे बाज़ारों की तरफ भी जाते हैं, तो उन्हें सुकरात जैसी यह दार्शनिक ख़ुशी मिलती है कि ‘मुझे  इन चीज़ों की कोई ज़रुरत नहीं है’.

अयोध्या में बाबरी मस्जिद के नियोजित ध्वंस और गुजरात की हिंसा पर हिंदी में बहुत कवितायें लिखी गयी हैं, लेकिन कुंवर नारायण की कविता ‘अयोध्या 1992’’ राम को संबोधित करते हुए कहती है: ’अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं/ योद्धाओं की लंका है,/ ‘मानस’ तुम्हारा ‘चरित’ नहीं/ चुनाव का डंका है!’ पिछले कुछ वर्षों में हमारे समाज में जिस तरह की असहिष्णुता, नफरत और अल्पसंख्यकों और बुद्धिजीवियों के प्रति हिंसा बढ़ती गयी है, उससे भी वे विचलित हुए और जब कुछ लेखकों ने प्रतिरोध में साहित्य अकादेमी पुरस्कार लौटाए तो उन्होंने इसे अपना नैतिक समर्थन दिया.

दुनिया में लड़ने-झगड़ने के लिए’ इतना सब कुछ होने’ के बावजूद पूरा जीवन ‘ज़रा से प्यार में बिता’ देने वाले कुंवर नारायण जितने बड़े नैतिक कवि थे उतने ही नैतिक मनुष्य भी थे. कह सकते हैं कि नैतिकता ही उनकी राजनीति थी. हमारी चालू राजनीति, बाज़ार, पूंजी और कई तरह की अमानुषिकता और  क्रूरता ने मनुष्यता, ईमान, अच्छाई, सच्चाई जैसे महान शब्दों को लगभग निरर्थक और बेदखल कर दिया है, लेकिन कुंवर नारायण की कविता ऐसे शब्दों को फिर से प्रतिष्ठित करने वाली कविता है: ‘किसी भी शब्द को/ एक आतशी शीशे की तरह/ जब भी घुमाता हूँ आदमी, चीज़ों या सितारों की ओर/ मुझे उसके पीछे/ एक अर्थ दिखाई देता/ जो उस शब्द से कहीं बड़ा होता है.’ जर्मन कवि-नाटककार बेर्टोल्ट ब्रेष्ट बड़ी रचना की पहचान यह मानते थे कि उसे एक शब्द या वाक्य में परिभाषित किया जा सकता है. वे ‘पूर्णतर मनुष्यता’ कवि हैं जिसकी कई  अवधारनाएँ उनकी कविता में पुनरावृत्ति करती हैं और अपने पुरानेपन को नए अर्थों से भर देती हैं. कुंवर नारायण मनुष्य के हित में ‘पूर्णतर’—पूर्णतम नहीं– होकर लौटने की इच्छा व्यक्त करते हुए कहते हैं’ : ‘अगर बचा रहा तो/ कृतज्ञतर लौटूंगा/ अबकी बार लौटा तो/ हताहत नहीं/सबके हिताहित को सोचता/ पूर्णतर लौटूंगा.’

शायद एक बड़ी नैतिकता और दार्शनिक प्रवृत्ति ही ऐसे शब्दों को फिर से उनके ठीक-ठीक अर्थों में अभिव्यक्त, प्रतिष्ठित और ऊर्जस्वित कर सकती है. इस अर्थ में भी कुंवर नारायण सिर्फ हिंदी के नहीं, पूरे विश्व के कवि हैं. उनकी ताज़ा प्रबंध कविता ‘कुमारजीव’ इसका एक उदाहरण हैं, जिसमें वे बौद्ध ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद करने वाले एक भारतीय दार्शनिक की भीतरी और बाहरी यात्रा को एक जीवन को दूसरे जीवन में, एक देश को दूसरे देश में अनूदित करने की यात्रा बना देते हैं. इस वैश्विकता के कारण भी उनकी कविता का जीवन जारी रहेगा.


मंगलेश डबराल का जन्म सन मंगलेश डबराल का जन्म सन 1948 में टिहरी गढ़वाल उत्तराखंड के कापफलपानी गाँव में हुआ और शिक्षा-दीक्षा हुई देहरादून में। दिल्ली आकर हदी पेट्रियट, प्रतिपक्ष और आसपास में काम करने के बाद में भोपाल में भारत भवन से प्रकाशित होने वाले पूर्वग्रह में सहायक संपादक हुए। इलाहाबाद और लखनउ से प्रकाशित अमृत प्रभात में भी कुछ दिन नौकरी की। सन् 1983 में जनसत्ता अखबार में साहित्य संपादक का पद सँभाला। कुछ समय सहारा समय में संपादन कार्य करने के बाद आजकल वे नेशनल बुक ट्रस्ट से जुड़े हैं। मंगलेश डबराल के चार कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं- पहाड़ पर लालटेन , घर का रास्ता, हम जो देखते हैं और आवाज भी एक जगह है । साहित्य अकादेमी पुरस्कार, पहल सम्मान से सम्मानित मंगलेश जी की ख्याति अनुवादक के रूप में भी है।1948 में टिहरी गढ़वाल उत्तराखंड के कापफलपानी गाँव में हुआ और शिक्षा-दीक्षा हुई देहरादून में। दिल्ली आकर हदी पेट्रियट, प्रतिपक्ष और आसपास में काम करने के बाद में भोपाल में भारत भवन से प्रकाशित होने वाले पूर्वग्रह में सहायक संपादक हुए। इलाहाबाद और लखनउ से प्रकाशित अमृत प्रभात में भी कुछ दिन नौकरी की। सन् 1983 में जनसत्ता अखबार में साहित्य संपादक का पद सँभाला। कुछ समय सहारा समय में संपादन कार्य करने के बाद आजकल वे नेशनल बुक ट्रस्ट से जुड़े हैं। मंगलेश डबराल के चार कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं- पहाड़ पर लालटेन , घर का रास्ता, हम जो देखते हैं और आवाज भी एक जगह है । साहित्य अकादेमी पुरस्कार, पहल सम्मान से सम्मानित मंगलेश जी की ख्याति अनुवादक के रूप में भी है।

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