जानी-मानी लेखिका वोल्गा के उपन्यास गमनमे गम्यम (तेलुगू उपन्यास) का वसंत कन्नाबिरन ने अंग्रेज़ी में द सिकल एंड द स्कैल्पल (ओरिएंट ब्लैकस्वान, 2022) नाम से अनुवाद किया है। यह उपन्यास डॉ. कोमारराजू आत्चमंबा (1906-1964) के असाधारण जीवन और उनके अपने समय पर आधारित है। डॉ. कोमारराजू आत्चमंबा देश के सर्वप्रथम डॉक्टरों में से एक थीं। वह भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य थीं और आंध्र में महिलाओं की मुक्ति के लिए काम करने वाली एक अग्रणी योद्धा थीं। यह उपन्यास स्वतंत्रता संग्राम, आधुनिक भारतीय महिला और उसके अधिकारों एवं मान्यता के लिए स्त्री संघर्ष के उभार के जरिये स्वतंत्रता पूर्व के आंध्र में सामाजिक सुधारों और साथ ही साथ नवनिर्मित राष्ट्र में साम्यवाद और वामदलों के उभार को भी चित्रित करता है।
लेखिका गीता हरिहरन के साथ इस बातचीत में वोल्गा ने पुरुष एकता, बहनापा (सिस्टरहुड) और अन्य कई मसलों पर अपने विचार रखे हैं। इसके साथ ही, जो निजी है वह किस तरह से राजनीतिक है, इस पर भी रौशनी डालती हैं।
गीता हरिहरन (जीएच) : गमनमे गम्यम (मूलत: तेलुगू में लिखा गया उपन्यास) के अंग्रेजी में किए गए अनुवाद के लिए द सिकल एंड द स्कैल्पल एक उपयुक्त शीर्षक है। यह शीर्षक व्यापक स्वतंत्रता के लिए दो प्रभावशाली मार्गों की ओर संकेत करता है – स्कैल्पल न केवल महिला के करियर के माध्यम बल्कि एक उद्यम के रूप में भी उसकी उन्नति का प्रतीक है जो उसे पूरे समाज के लिए योगदान देने के वास्ते सक्षम बनाता है; और द सिकल विचारधारा का प्रतीक है जो व्यक्तिगत और सामूहिक, दोनों को सभी के लिए व्यापक समानता और स्वतंत्रता की ओर ले जाता है। यह संभावनाओं से भरपूर दो प्रतीकों के बीच की एक मजबूत कड़ी है। इस उपन्यास में और साथ ही साथ आपके सारे कामों में जिस तरीके से आपने व्यक्तिगत और राजनीतिक के बीच की कड़ी को संबोधित किया है, क्या आप इस पर टिप्पणी करना चाहेंगी?
वोल्गा : मेरे बहुत-से अन्य लेखकीय कार्यों की तरह ही यह उपन्यास यह तलाशता है कि अपने जीवन के संघर्षों के जरिये महिलाओं को किस तरह से यह अहसास होता है कि जो व्यक्तिगत है वह राजनीतिक भी है। द सिकल एंड द स्कैल्पल डॉ. कोमारराजू आत्चमंबा के जीवन पर आधारित है। संभवतः, वह अपने समय में भारत में ऐसी पहली महिला डॉक्टर थीं जिन्होंने स्वास्थ्य – विशेष रूप से महिलाओं के स्वास्थ्य – के बारे में राजनीतिक मुद्दे के बतौर बोला और लिखा। जैसा कि आपने उपन्यास में पढ़ा है, वह भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की संस्थापक सदस्य थीं। बचपन सहित उनके जीवन के प्रत्येक कदम और चरण को राजनीतिक रूप में वर्णित किया जा सकता है।
कभी-कभार मुझे ऐसा लगता है कि यह मात्र एक कड़ी नहीं है; बल्कि ये दोनों एक ही प्रतीत होते हैं। यहां तक कि हम क्या पसंद करते हैं और क्या नापसंद करते हैं, जो विशुद्ध रूप से व्यक्तिगत लग सकता है, उसका एक राजनीतिक आधार भी होता है। क्या ये व्यक्तिगत प्राथमिकताएं हमारी पृष्ठभूमि के सामाजिक-आर्थिक कारकों पर गहराई से निर्भर नहीं हैं?
दमन से मुक्ति का मुद्दा प्रमुख है। लेकिन एक उत्पीड़ककर्ता, चाहे एक पुरुष हो या ऊंची जाति का एक सदस्य हो, की स्थिति से उसकी मुक्ति भी महत्वपूर्ण है। क्रांतियों ने मुख्य रूप से लोगों की उत्पीड़न से मुक्ति पर ध्यान केंद्रित किया है। उन्होंने यह समझने के लिए पर्याप्त महत्व नहीं दिया कि क्रांति, या क्रांति की प्रक्रिया में या सुधार के नाम पर कोई किस तरह से दमनकारी बन सकता है। उदाहरण के लिए, पितृसत्तात्मक दमन को समझना और भी कठिन है। दमन की कई सारी परतें होती हैं। मैंने अपने कार्य में कम से कम एक परत यानी पितृसत्तात्मक दमन की परत को उघाड़ने की कोशिश की है।
जीएच : द सिकल एंड द स्कैल्पल में महिलाओं की उपलब्धि और वास्तव में उनके सक्रिय योगदान के साथ पुरुष एकजुटता के मर्मस्पर्शी संदर्भ भी हैं। इसका सबसे बढ़िया उदाहरण शारदा के इतिहासकार पिता हैं। वह न केवल इस बात पर आश्वस्त हैं कि उनकी बेटी अपने भाई की शिक्षा और करियर का ध्यान रखेगी, बल्कि वह अपनी बेटी के बारे में इस तरह से भी सोचते हैं कि वह “एक महान उम्मीद है जो मेरे जीवन का मार्ग निर्देशन करती है।” वह अपनी पत्नी से कहते हैं, “हमारी बेटी को इतिहास रचना चाहिए, वह मेरी तरह से इतिहास नहीं लिखेगी।” यह चरित्र कितना एक वास्तविक व्यक्ति पर आधारित है? या यह पूरी तरह से एक आदर्श किरदार है?
वोल्गा : हमें पुरुष एकजुटता की आवश्यकता है। हम जानते हैं कि पुरुष और महिलाएं, दोनों ही असमानता से पीड़ित हैं। हमें कंधे से कंधा मिलाकर काम करना चाहिए, क्योंकि पूरा संघर्ष महिलाओं और पुरुषों के बीच में शांति के लिए है। महिलाएं क्या चाहती हैं, यह समझने में पुरुषों की सीमाएं हो सकती हैं। लेकिन इसके बावजूद हम उन पुरुषों की अनदेखी कैसे कर सकते हैं जो महिलाओं की समानता के लिए संघर्ष करते हैं?
द सिकल एंड द स्कैल्पल में पिता का किरदार वास्तविक है। कोमारराजू लक्ष्मण राव एक इतिहासकार थे। उनकी बहन भंडारू अछमम्बा ने उन्हें कई तरह से प्रेरित किया। वह तेलुगू में लघु कथा की पहली कथाकार थीं; उन्होंने ऐतिहासिक पुस्तिकाएं लिखीं; उन्होंने महिलाओं को संघों में एकजुट किया था। उनकी मृत्यु प्लेग के पीड़ितों की देखभाल करते हुए हुई। लक्ष्मण राव ने अपनी बहन के नाम पर अपनी बेटी का नाम रखा। वह उनकी बौद्धिक और शारीरिक क्षमताओं तथा ऊर्जा में विश्वास करते थे। उनके जैसे लोग थे जो अपनी बेटियों को प्यार करते थे और उन पर विश्वास करते थे।
जीएच : द सिकल एंड द स्कैल्पल में बार-बार उभरकर आने वाले सवालों में से एक सवाल आधुनिकता के बारे में है – भारतीय पक्ष, महिलाओं का पक्ष। ‘आधुनिक’ क्या है, और हमारे समय में इसका क्या मूल्य है, इस बारे में बहुत-सा भ्रम कायम है। स्वतंत्रता से पहले और राष्ट्र के शुरुआती वर्षों में उनके अपने समय में आधुनिक भारतीय महिला के बारे में शारदा का विजन क्या है? और उन तमाम वर्षों के बाद आपके समय में भी?
वोल्गा : आधुनिकता – यह गजब ही पहेली है, और जैसे उपनिवेशवाद ने अपनी संस्कृति थोपी, उसने हमें इस शब्द के चारों ओर घुमाकर रख दिया है! मैं सोचती हूं कि हम अभी भी यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि आधुनिकता का वास्तविक अर्थ क्या है। स्वतंत्रता से पहले, लोगों के पास आधुनिकवाद के बारे में बहुत-से स्पष्ट विचार थे। आधुनिक का तात्पर्य था, तार्किक रूप से सोचना, समानता में विश्वास करना और मुक्ति में विश्वास करना। उदाहरण के लिए, इसका अर्थ था शिक्षा के माध्यम से समाज को बदलने की मंशा और कार्रवाई। आधुनिकता के विचार के इर्द-गिर्द महिलाओं के बहुत-से सपने थे। अब हमारे पास इसके बारे में बहुत कम सपने हैं। यहां तक कि हम इस शब्द का इस्तेमाल बहुत कम करते हैं, हालांकि हम अभी भी इस विचार के साथ संलग्न हैं। मुझे लगता है कि विचार का अर्थ बदलता रहता है, यह इस पर निर्भर करता है कि इसे कौन परिभाषित कर रहा है। अब उत्तर-आधुनिकतावाद ने भी अपनी आधुनिकता को खो दिया है।
तेलुगू में ये जो शब्द आधुनिक है वह पिछले सभी अर्थों को वहन करता है, लेकिन जब समकालीन महिलाओं को परिभाषित किया जाता है तो इसका इस्तेमाल नहीं किया जाता। यदि अब हम एक तेलुगू वाक्य में ‘आधुनिक’ (मॉडर्न) शब्द का प्रयोग करते हैं, तो अक्सर इसका एक व्यंग्यात्मक अर्थ होता है, विशेष रूप से इस संदर्भ में कि महिला को किस तरह के कपड़े पहनने चाहिए या उसे स्वयं किस प्रकार का आचार-व्यवहार करना चाहिए।
एक आधुनिक महिला को लेकर मेरा विजन क्या है? वह एक सरल और ईमानदार महिला है जो समकालीन समाज की सत्ता संरचनाओं को बखूबी समझती है। यह आधुनिक महिला असमानता के खिलाफ संघर्ष के लिए आगे बढ़ती है, इसके लिए भले ही वह किसी भी तरीके का चयन करे।
जीएच : द सिकल एंड द स्कैल्पल उपन्यास डॉक्टर, वामपंथी और महिला आंदोलन की नेता डॉ. कोमारराजू आत्चमंबा (1906-1964) के जीवन पर आधारित है। आपने इतिहास, कथा-साहित्य और प्रगतिशील विचार – साथ ही नाजुक सवाल – जो आप और आत्चमंबा साझा करते थे, उन्हें आपने आपस में किस तरह से जोड़ा? शारदा में कितना अंश आत्चमंबा का है और कितना आप का है?
वोल्गा : मुझे लगता है कि जिन नाजुक प्रश्नों का हवाला आपने दिया है वे अभी भी मौजूद हैं, और उनकी पीढ़ी से लेकर आज के दिन तक ये प्रश्न अनुत्तरित हैं। मैंने जवाबों की तलाश की प्रक्रिया में यह उपन्यास लिखा। मैं कह सकती हूं कि शारदा का जो चरित्र है वह पूरी तरह से आत्चमंबा ही है। जब मैंने उपन्यास को लिखना शुरू किया, तो मैंने सोचा की कुछ कथा-साहित्य के तत्व आवश्यक होंगे, और मैंने उनका नाम और उनके परिवार के सदस्यों के नाम बदल दिए। लेकिन जब मैंने उपन्यास पूरा कर लिया, तो मुझे महसूस हुआ कि शारदा ही आत्चमंबा है – और मैंने कथा-साहित्य लिखने की अपनी किसी भी तरह की क्षमता का इस्तेमाल नहीं किया, या इसके इस्तेमाल की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। शायद मुझे यह दावा करना चाहिए था कि “इस उपन्यास में सभी चरित्र वास्तविक हैं। कोई भी काल्पनिक चरित्र या काल्पनिक घटनाएं नहीं हैं, मात्र संवाद ही मेरे शब्दों में हैं। उपन्यास में विचार और तात्पर्य का संबंध वास्तविक लोगों से है। बस मात्र शब्द भर मेरे हैं।”
जहां तक शारदा-आत्चमंबा और मेरे बीच में समानता का प्रश्न है : मैं उस ऊंचाई पर नहीं पहुंच सकती जिस ऊंचाई वह पहुंची थीं। कुछ समानताएं हो सकती हैं – मैं भी वामपंथ का हिस्सा थी, बाद में उसका हिस्सा नहीं रही। लेकिन आत्चमंबा की ऊर्जा, उनकी विशालता, उनकी निस्वार्थता – ये सभी मेरे लिए अगम्य हैं। हालांकि, मैं कह सकती हूं कि मैंने उनसे बहुत सारी चीजें सीखी हैं।
जीएच : दो महिलाएं, जिनके बारे में आपने लिखा है – मिथकीय महिला के रूप में लिबरेशन ऑफ सीता में सीता और द सिकल एंड द स्कैल्पल में वास्तविक महिला के रूप में शारदा – दोनों ही अपने जीवन, अपनी पसंद और अपने संबंधों पर नियंत्रण की तलाश हैं। लेकिन, तर्क साध्य रूप से, स्वतंत्रता के लिए अपनी तलाश और प्रेम तथा त्याग की धारणाओं को तोड़ने में आपकी सीता, शारदा से कुछ बेहतर करती हैं। क्या एक लेखक के लिए इतिहास या फिक्शन से महिला की बनिस्बत स्वयं का एहसास करने वाली मिथकीय स्त्री की कल्पना करना आसान है?
वोल्गा : मुझे भी ऐसा ही लगता है। वास्तव में, एक लेखक जब पौराणिक कथाओं के बारे में लिखता है, तो उसके पास काफी स्वतंत्रता होती है। जाहिर है, बहुत बड़ी जिम्मेदारी भी होती है, आंशिक रूप से इसलिए क्योंकि हमारी पौराणिक कथाओं की जड़ें धर्म में बहुत गहरी होती हैं। और आंशिक रूप से इसलिए भी कि धर्म और पौराणिक कथाओं को लेकर कट्टरपंथी और दक्षिणपंथी जिस तरह से अपनी प्रतिक्रिया प्रदर्शित करते हैं। ऐसा नहीं है कि हम डरते हैं; लेकिन जब हम एक लेखक के बतौर सावधान नहीं होते हैं, तो जिस पूरी बहस या विमर्श को हम शामिल करना चाहते हैं वह किनारे हो जाती है। इसलिए हमें आजादी और जिम्मेदारी को एक साथ मिलाकर कार्य करने के तरीके तलाशने होंगे।
जिस वक्त में चलम लिख रहे थे, तो उन्हें हमेशा ज्यादा स्वतंत्रता थी। (उन्होंने अपना लेखन कार्य 1925 से 1975 के दौरान किया)। पौराणिक कथाओं से उनका निपटने का तरीका प्रफुल्लित करने वाला और विचारोत्तेजक है। मेरी अप्रोज अलग है – यह विनोदप्रिय नहीं है। और मैं मूल पाठ को पूरी तरह से अनदेखा नहीं करती हूं। मैं चरित्रों के मूल रंग-रूप को बनाए रखना चाहती हूं। मैं सीता की उनके बचपन से ही आधुनिक विचार की महिला के रूप में, या अहिल्या की उनके जीवन के शुरुआती वर्षों से एक विदुषी महिला के रूप में कल्पना नहीं करती। इन स्त्रियों को उनकी पीड़ाओं और संघर्षों ने मजबूत किया और बुद्धिमान तथा स्वतंत्र बनाया। पाठक भी इस प्रक्रिया से गुजरते हैं, क्योंकि वे पात्रों के संघर्ष और कड़ी मेहनत से हासिल की गई स्वतंत्रता से अपने आप को जोड़ते हैं – और उम्मीद है कि पाठक भी इससे सशक्त होंगे। चूंकि, स्वतंत्रता, जिम्मेदारी, रणनीति, उद्देश्य – बहुत सारी चीजें चेतन रूप से या अचेतन रूप से मिलकर कार्य करती हैं। अहिल्या की कहानी में यह अचेतन रूप से कार्य करता है; सूर्पणखा की रणनीति में भी यह इसी तरह से कार्य करता है। रेणुका या उर्मिला की कहानी में यह चेतन रूप से कार्य करता है।
जीएच : मिथक के पुनर्लेखन की प्रक्रिया में आपको महिलाओं के लिए बेहतर जीवन के संदर्भ में कुछ बहुत ही गहरे दार्शनिक प्रश्नों के साथ रू-ब-रू होना का मौका मिलता है। द लिबरेशन ऑफ सीता में सूर्पणखा द्वारा सुंदरता और आत्म-सम्मान को पुनः परिभाषित करने के प्रयास से मैं प्रभावित हुई। वह कहती है, “धीरे-धीरे मैंने अपने हाथों से प्यार करना सीखा। मैंने सीखा कि इन हाथों से किस तरह से चीजें निर्मित की जाती हैं, किस प्रकार कार्य किया जाता है और किस प्रकार सेवा की जाती है।” सौंदर्य का निष्क्रिय स्थान यानी चेहरा, जिसे मात्र देखा जा सकता है, यहां से आगे बढ़कर वह अपने हाथों की ओर जाती है, जो पूर्ण सक्रियता के साथ सौंदर्य को निर्मित करते हैं। दिखावट, निमंत्रण देती नजरों से आगे बढ़कर यह महिला एक ऐसे व्यक्तित्व में विकसित हो जाती है जो अपने काम से पहचानी जाती है। एक आभूषण से बढ़कर वह स्वयं निर्माता बन जाती है। आपने सूर्पणखा की पुनः कल्पना कैसे की और उसकी कहानी का पुनर्लेखन कैसे किया, जो कि एक पुरुष के साथ अपने संबंध को लेकर बहुत स्वतंत्र है, क्या आप इस पर कोई टिप्पणी करना चाहेंगी?
वोल्गा : पात्र और घटनाएं वहां पहले से ही मौजूद हैं। हमें मात्र उनकी व्याख्या करनी होती है – या उन्हें उलट-पलट करना होता है – ताकि वे नया अर्थ ग्रहण करें। मैंने समकालीन समाज में कई सूर्पणखाएं देखी हैं। चाकुओं और तेजाब के द्वारा महिलाओं के शरीर को नुकसान पहुंचाया जाता है और उनके शरीर को विकृत किया जाता है। बहुत सारी हिंसक घटनाएं घटती हैं। मैंने इन महिलाओं में से कई महिलाओं को ठीक होते देखा है, और गरिमा, सुंदरता तथा बड़े साहस के साथ जीवन जीते भी देखा है। यद्यपि, वे अपनी उत्तर-जीविता को दार्शनिक तरीके से व्यक्त नहीं कर सकती हों, लेकिन उनका जीवन हमें जीवन का दर्शन और श्रम के प्रति प्रेम सिखाता है। सूर्पणखा उन सभी महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती है।
जीएच : पुन:, चाहे मिथक में हो या वास्तविक जीवन में, महिलाओं की शक्ति – और स्वयं को जानने के प्रति उनकी यात्रा – में अकेली महिला का अन्य महिलाओं के साथ जुड़ाव और उनसे सीखना शामिल है। जाति, समुदाय और वर्ग को देखते हुए इस बहनापे (सिस्टरहुड) के महत्व और साथ-साथ ही इसकी सीमाओं पर क्या आप रौशनी डालेंगी?
वोल्गा : मुक्ति के लिए बहनापा बहुत ही महत्वपूर्ण है। जाति, धर्म और वर्ग पर आधारित पितृसत्ता महिलाओं को इन रेखाओं के साथ विभाजित करती है। यह विभाजन सभी प्रकार के दमनकारी कारकों को मजबूत करता है और साथ में पितृसत्ता को बनाए रखता है। पितृसत्ता बहुत भ्रमकारी है : वह जानती है कि किस तरह से विभाजित किया जाता है और किस प्रकार से शासन किया जाता है। यह विभिन्न सत्ता संरचनाओं और प्रदानुक्रमों में इस तरह से कार्य करती है कि हम इसके जो कैदी हैं वे अपनी जंजीरों की स्वेच्छापूर्वक सुरक्षा करते हैं। हम
उन दीवारों की रक्षा करते हैं जिनमें हम कैद हैं। यदि हम इन दीवारों को तोड़ना चाहते हैं या तोड़ने की कोशिश करते हैं, तो हम संदेह से घिर जाते हैं। हम एक-दूसरे पर संदेह करते हैं। यह हमारी गलती नहीं है। पितृसत्ता हमें असुरक्षित महसूस कराने के लिए सक्रिय रूप से कार्य करती है। इसको समझना और संयुक्त संघर्ष में एक-दूसरे के हाथों को पकड़ कर रखना आसान काम नहीं है। इन दिनों यह लगभग असंभव-सा प्रतीत होता है। फिर भी, आगे कदम बढ़ाने के अलावा कोई दूसरा तरीका नहीं है। हमें एक साथ आना होगा, एक-दूसरे का समझना ही होगा और स्पष्ट रूप से अपनी शंकाओं को दूर करना ही होगा और बिना किसी झिझक के हमें अपने खौफ से लड़ना ही होगा। स्थिति हर रोज बद से बदतर होती जा रही है। हमें तात्कालिक आधार पर एकता और बहनापे को निर्मित करना ही होगा।
जीएच : किताब द सिकल एंड द स्कैल्पल – और वर्षों के दौरान अर्जित हमारे कई वास्तविक अनुभव – दर्शाते हैं कि समतावादी विचारधारा को जीना कितना मुश्किल है। निश्चित रूप से, मैं जिक्र कर रही हूं कि पुरुषों (और कभी-कभी महिलाओं) ने राजनीतिक स्पेक्ट्रम के अंत में अपने प्रगतिशील स्थान के बावजूद पितृसत्तात्मक मानकों को कितनी गहराई से आत्मसात किया है। और एक विशेष वर्ग या जाति या समुदाय की पृष्ठभूमि से आने वाली हम महिलाएं लगातार सीख रही हैं कि जेंडर का मुद्दा न केवल कामगार वर्ग की महिलाओं के लिए बल्कि दलित महिलाओं या आदिवासियों महिलाओं या मुस्लिम महिलाओं के लिए एकदम अलग प्रकार से सामने आता है। आपने अपने लेखन के माध्यम से फिसलन से भरे इन प्रश्नों को तो संबोधित किया ही है, बल्कि एक कार्यकर्ता तथा एक शोधकर्ता के रूप में भी इन पर काम किया है। आवाज को दबाए बिना या पहचान के विभाजनों को जोखिम में डाले बिना महिलाओं और साथ ही साथ प्रगतिशील आंदोलनों में पुरुषों और महिलाओं के बीच में हम एक व्यापक मोर्चे के लिए किस तरह से काम करते हैं?
वोल्गा : यह आसान प्रश्न नहीं है, और इसका कोई सरल-सा उत्तर भी नहीं है। हमें विचार और विमर्श से सीखना होगा। उनसे संघर्ष करते हुए हमें ऐसा नहीं करना चाहिए कि वे हमारे दुश्मन की तरह बन जाएं। याद कीजिए, कवि ऑड्रे लॉर्डे ने क्या कहा था? हम दुश्मन के हथियारों से दुश्मन के महल को ध्वस्त नहीं कर सकते। हमें यह करने के लिए रचनात्मक तरीके तलाशने होंगे; हमें नई रणनीतियां विकसित करनी होंगी। अभी भी करने के लिए बहुत कुछ है। हमें अपने पुरुष साथियों को यह एहसास कराने की आवश्यकता कि वे अपने विचारों और कार्रवाइयों में पितृसत्तात्मक हैं। हमें ऊंची जाति की महिलाओं और पुरुषों को उनके दमनात्मक व्यवहार, भाषा और रवैये से मुक्त कराने में मदद करने की आवश्यकता है। इसका कोई बना-बनाया उत्तर नहीं है – संघर्ष ही इसका एक मात्र उत्तर है। हमें आगे की राह पर बढ़ते रहना है। यदि कोई दीवार है, तो उसे तोड़ देना है। यदि समुद्र है तो हमें तैरकर उसे पार करना होगा।
जीएच : आपने जाति और जेंडर के आधार पर हमारे महाकाव्यों पर प्रश्न करने की, विशेष कर तेलुगू साहित्य में, उदार परंपरा के बारे में बात की है। प्रश्न करने, सोचने और कल्पना के कार्य को लेकर बढ़ती असहिष्णुता को देखते हुए क्या इसमें अभी भी कुछ बचा है?
वोल्गा : बिल्कुल। अभी भी जगह बची है, जिसे हमें बचाना है। हमें साहस, बुद्धिमता के साथ-साथ जिम्मेदारी की भावना के साथ असहिष्णुता के साथ मुठभेड़ करनी होगी। हो सकता है कि हम अपने समय में चलम या त्रिपुरानेनी रामास्वामी की तरह नहीं लिख सकते, लेकिन हम अभी भी असहिष्णुता को चुनौती देने के तरीके खोज सकते हैं।
जीएच : आपके पास असहमति के अधिकार के लिए सामूहिक संघर्ष करने का अनुभव है – जैसे रिवोल्यूशनरी राइटर्स एसोसिएशन। आंदोलन के साथ-साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को समर्थन देने वाले इन संगठनों को हम कैसे मजबूत करें?
वोल्गा : हमें नई सामूहिकता को स्थापित करना चाहिए। हमें नए आंदोलनों का निर्माण करना चाहिए। इस बारे में स्पष्टता होनी चाहिए कि आप आंदोलन का समर्थन करना चाहते हैं या आप आंदोलन बनना चाहते हैं। इस बिंदु पर स्पष्टता की कमी कई जन संगठनों के उद्देश्य और आधार को नुकसान की तरफ धकेल सकती है।
जीएच : मैं जानती हूं कि कथा-साहित्य लेखन कितना श्रम मांगता है, साथ ही साथ राजनीतिक कारणों में हर रोज की भागीदारी और अकादमिक शोध, इन सब के बीच में संतुलन बनाए रखना कितना मुश्किल है। आपने यह कैसे किया और इसे किस तरह से इसे बनाए रखा?
वोल्गा : हम समय की मांग के अनुसार ही प्रतिक्रिया देते हैं, अगर दौड़ने की जरूरत है तो दौड़ते हैं।
जीएच : संभवतः, आपने इस प्रश्न का उत्तर हजार बार दिया होगा, लेकिन फिर भी मैं आपके द्वारा अपने लेखन में प्रयोग किए जाने वाले नाम (पैननेम) वोल्गा के बारे में पूछना चाहूंगी। और ललिता कैसे बदल जाती है, जब लिखने बैठती है और वोल्गा बन जाती है?
वोल्गा : यह नाम व्यक्तिगत भी है और राजनीतिक भी है। यह मेरे परिवार में एक राजनीतिक नाम की तरह शुरू हुआ था और मेरे लिए व्यक्तिगत बन गया। मेरे पिता मेरी बड़ी बहन को वोल्गा कहते थे। मेरी बहन का जन्म 1946 में हुआ था, जब द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हुआ था। उस दिन अखबार में लाल सेना की एक सैनिक की कहानी प्रकाशित हुई थी, जिसका नाम वोल्गा था। कहानी उस महिला सैनिक के उस साहस के बारे में थी जो उसने नाजियों के साथ लड़ते हुए प्रदर्शित किया था। मेरे पिता उस कहानी से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने मेरी बहन का नाम वोल्गा रख दिया। जब मैं सोलह वर्ष की थी, तो मेरी उस प्यासी-सी बहन की मृत्यु हो गई। मैंने उस नाम को अपने लेखन के नाम (पैननेम) के तौर पर अपना लिया। वोल्गा जिंदा है और मैं जिंदा हूं। इस तरह से मेरे पिता की दोनों बेटियां अभी भी जीवित हैं। यह नाम मेरी राजनीति को भी बहुत फबता है।
अनुवाद : कृष्ण सिंह
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