प्रगतिशील लेखक संघ के कार्यकारी राष्ट्रीय अध्यक्ष और उर्दू के प्रसिद्ध लेखक अली जावेद का मंगलवार आधी रात को दिल्ली के जीबी पंत अस्पताल में निधन हो गया। वह 68 वर्ष के थे।
उनके परिवार में पत्नी के अलावा दो बेटे और दो बेटियां हैं।
उनके निधन पर हिंदी उर्दू के लेखकों, संस्कृतिकर्मियों तथा लेखक संगठनों ने गहरा शोक व्यक्त किया है और सांप्रदायिकता तथा फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में उनके योगदान को याद किया है।
जनवादी लेखक संघ (जलेस) की ओर से जारी संदेश में कहा गया है कि इस कठिन समय में साथी अली जावेद का जाना तरक़्क़ीपसंद-जम्हूरियतपसंद तहरीक के लिए एक सदमा है। वे अभी सत्तर के भी नहीं हुए थे। 13 अगस्त को उन्हें ब्रेन हैमरेज हुआ। तत्काल वे एक निजी अस्पताल में भरती कराए गए जहाँ उनका ऑपेरेशन हुआ। उसके बाद से वे लगातार गहन चिकित्सा कक्ष में रहे। हालत बिगड़ने पर उन्हें दिल्ली के पंत अस्पताल में भर्ती कराया गया, पर स्थिति में कोई सुधार न हुआ और कल (मंगलवार) रात उन्होंने आख़िरी साँसें लीं।
दिल्ली विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग से सेवानिवृत्त प्रो. अली जावेद ने जनेवि (जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय) से एमए और पीएचडी की उपाधि ली थी। उनकी किताबों में ‘बरतानवी मुस्तश्रिक़ीन और तारीख़-ए अदब-ए उर्दू’, ‘क्लासिकीयत और रूमानवीयत’, ‘जाफ़र जटल्ली की एहतेजाजी शाइरी’ इत्यादि प्रसिद्ध हैं। इन दिनों वे प्रगतिशील लेखक संघ के कार्यकारी अध्यक्ष थे और इससे पहले उसके महासचिव रहे। 2012 से 2016 तक वे अफ्रीकन एण्ड एशियन राइटर्स यूनियन के भी अध्यक्ष रहे।
यह सांप्रदायिक फ़ासीवादी ताक़तों के ख़िलाफ़ संघर्ष में उनकी अथक सक्रियता का दौर था जिसके बीच में ही वे हमें छोड़ गए। जनवादी लेखक संघ भारी मन से उन्हें खिराजे-अक़ीदत पेश करता है। हम इस कठिन घड़ी में उनकी जीवन-साथी परवीन और उनके बच्चों के दुख में शामिल हैं।
जन संस्कृति मंच (जसम) ने भी अली जावेद को अपनी श्रद्धांजलि पेश करते हुए उनके निधन को एक बड़ी क्षति बताया है।
जसम के वरिष्ठ सदस्य और हिंदी के आलोचक आशुतोष कुमार की ओर से जारी शोक संदेश में कहा गया है कि अली जावेद प्रगतिशील आंदोलन के बहुत सक्रिय और मज़बूत स्तंभ थे। अभी उनकी उम्र भी कुछ खास नहीं थी और इस समय वे तमाम मोर्चों पर पूरी मज़बूती से शामिल हो रहे थे। दिल्ली में हम लोगों ने आठ-दस संगठनों के साथ एक साझा मंच बनाया था। जिसमें संयुक्त रूप से अनेक सांस्कृतिक कर्मी भी थे। उसमें अली जावेद सहाब का साथ था, उनका नेतृत्व हमेशा हमारे लिए हमेशा बहुत मूल्यवान रहा।
अली जावेद एक ऐसी शख़्सियत थे जिनका देश भर में, हालांकि हिन्दी और उर्दू से उनका ख़ास जुड़ाव था। वे उर्दू के आलोचक थे, लेकिन मराठी, कन्नड़, मलयालम, तमिल, बंगाली सभी इलाकों में उनका असर था। प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से पाकिस्तान, बांग्लादेश तक के साहित्याकारों, संस्कृतिकर्मियों से उनका संवाद था, उनकी बातचीत थी। इस दौर में वे फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ हर मोर्चे पर लड़ने की ज़रूरत पर ज़ोर दे रहे थे। किसानों, मज़दूरों के आंदोलनों में लेखकों के शामिल होने पर ज़ोर दे रहे थे। दूसरे, अपने भीतर भी, अपने आंदोलन के भीतर भी अगर उन्हें कहीं कोई कमज़ोरी दिखती थी, कोई विचलन दिखता था, तो वे उसको भी मज़बूती से उठाते थे। इस दौर में उनका जाना हमारे लिए बहुत बड़ा आघात है, लेकिन हम उनकी विरासत को साथ लेकर आगे चलेंगे, संघर्ष करेंगे।
तमाम कवि, लेखकों, संस्कृतिकर्मियों ने व्यक्तिगत तौर पर भी उनके निधन पर गहरा दुख प्रकट करते हुए अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की है।
भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की ओर से भी उनके निधन पर गहरा दुख व्यक्त करते हुए कहा गया कि अली जावेद ने सिर्फ़ एक प्रसिद्ध उर्दू लेखक थे, बल्कि वे एक एक्टिविस्ट के तौर पर तमाम आंदोलनों में भी सक्रिय थे।
उनके पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान, श्रीलंका, नेपाल, फ़िलीस्तीन समेत तमाम देशों के प्रगतिशील लेखकों से संबंध थे। वे अफ्रीकी-एशियाई प्रगतिशील लेखक आंदोलन से भी जुड़े रहे।
प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलनों में उनका बहुत योगदान था।
वरिष्ठ पत्रकार और कवि कुलदीप कुमार अपनी फेसबुक वॉल पर लिखते हैं-
अली जावेद का जाना बहुत अंदर तक आहत कर गया। JNU में हम राजनीतिक विरोधी थे। वह AISF में और मैं SFI में। लेकिन सम्बंध शुरू से ही बेहद दोस्ताना और गर्मजोशी से भरे। JNU की यही विशेषता थी उन दिनों। ये दोस्ताना और गर्मजोशी से भरे सम्बंध हमेशा बने रहे। अली जावेद जब भी मिला, मुस्कुराता हुआ ही मिला। उसका sense of humour भी अच्छा था। तो हंसी-मज़ाक़ भी खूब होता था। दुनिया लगातार अपरिचित होती जा रही है। जब दोस्त-अहबाब ही नहीं रहेंगे, तो अपरिचित चेहरों से भरी यह दुनिया परिचित कैसे लग सकती है? अली जावेद याद हमेशा आएगा।
शायर और विज्ञानी गौहर रज़ा ने कहा कि अली जावेद के जाने की ख़बर ने सुबह सुबह हिला कर रख दिया। हमारी दोस्ती सालों पुरानी थी। PWA के और हिंद-पाक दोस्ती के लिए भी ये एक बड़ा नुक़सान है।
संस्कृतिकर्मी और आलोचक संजीव कुमार लिखते हैं-
अलविदा, साथी अली जावेद!
आपने जाने के लिए कैसा समय चुना, इस पर भी आपसे एक बहस बनती है।
साथ साथ लड़ी गई, जीती गई और हारी गई तमाम लड़ाइयों के साथ आप याद रहेंगे।
प्रगतिशील लेखक संघ, दिल्ली की महासचिव और पत्रकार और फ़रहत रिज़वी ने दुख प्रकट करते हुए लिखा-
आज रात हमारे दोस्त PWA के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष ने दिल्ली के जीबी पंत हॉस्पिटल में आख़िरी सांस ली। अलविदा और क्रांतिकारी लाल सलाम
कवि-पत्रकार विमल कुमार लिखते हैं-
साम्प्रदायिकता और फासिज्म के खिलाफ लड़नेवाले अली जावेद नहीं रहे।
उनके इंतक़ाल पर हिंदी उर्दू के लेखकों तथा लेखक संगठनों ने गहरा शोक व्यक्त किया है और फ़िरक़ापरस्ती तथा फासीवाद के खिलाफ लड़ाई में उनके योगदान को याद किया है। प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव के रूप में उन्होंने साम्प्रदायिकता और फासीवाद के खिलाफ संघर्ष मे बड़ी भूमिका निभाई।
उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में 31 दिसम्बर 1954 में जन्मे श्री जावेद ने इलाहाबाद विश्विद्यालय से उर्दू में बीए करने के बाद जवाहर लाल नेहरू विश्विद्यालय से उर्दू में एमए, एमफिल और पीएचडी की। वह दिल्ली विश्विद्यालय के ज़ाकिर हुसैन कालेज में पढ़ाने लगे।
श्री जावेद नेशनल कौंसिल फ़ॉर प्रमोशन ऑफ उर्दू के निदेशक भी थे।
दलित लेखक संघ (दलेस) की ओर से हीरालाल राजस्थानी लिखते हैं-
प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष अली जावेद भाई को अंतिम सलाम।
आपकी कमी साहित्य और आंदोलन दोनों में खलेगी। आप हमेशा दोस्ताना तरह से चेहरे पर पैनी सी मुस्कान रखे बातें किया करते थे। वो चेहरा कैसे कोई भूल सकता है। आपकी इस क्षति से मुझे निजी तौर पर गहरा सदमा लगा है।
दलित लेखक संघ परिवार आपको विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता है।
इसके अलावा भी अली जावेद के निधन पर दुख जताते हुए तमाम लेखक-संस्कृतिकर्मी अपनी यादें साझा कर रहे हैं।