इस क्षेत्र में अधिकांश मज़दूर वर्ग निवास करते है और यहाँ कई बड़े उद्दोग धंधे हैं जिसमें ये मजदूर काम करते हैं। साहिबाबाद औद्योगिक क्षेत्र के अंबेडकर पार्क में हर साल पहली जनवरी को इन्ही मजदूरों और रंगकर्मियों के द्वारा सफ़दर हाशमी की शहादत को याद करते हुए कार्यक्रम करते हैं।
आपको बता दें कि जन नाट्य मंच (जनम) के संस्थापक सफ़दर हाशमी पर1989 में यहीं झंडापुर में ‘हल्ला बोल’ नाटक करते हुए कांग्रेसी गुंडों ने हत्या कर दी थी। इस दौरान उन्होंने एक मज़दूर रामबहादुर जो नाटक देख रहा था उसको भी मार दिया था। उसी के प्रतिरोध में यहाँ हर बरस नाटक का आयोजन किया जाता है। इस साल भी डॉ.अंबेडकर पार्क, साहिबाबाद में मज़दूरों और कलाकारों द्वारा एक साझा कार्यक्रम किया गया जिसमें नुक्कड़ नाटक और गीत प्रस्तुत किए गए।
झंडापुर के आसपास के औद्योगिक मज़दूर आधे दिन की छुट्टी लेकर यहाँ आते हैं और यहाँ नाटक के माध्यम से मज़दूरों की स्थिति और अधिकारों के बारे में बताया और दिखाया जाता है। जिससे वहाँ मौजूद मज़दूर दर्शक सीधे खुद को जोड़ पाते है। मजदूरों को लगता है उसी के जीवन का चित्रण किया जा रहा है। इसके साथ ही वहाँ मज़दूर आंदोलन के मशहूर क्रांतिकारी गीत भी गाये जाते हैं। इन सबके साथ ही वहाँ मौजूद मज़दूर नेता भी अपने भाषणों से सफ़दर को याद करते हुए अपनी बात रखते हैं।
शायद ऐसा लगता है कि सफदर भी इसी एकता को बनाने की कोशिश में थे, जिसमे वो बखूबी कामयाब भी हो रहे थे। यही नाटक उनकी मौत का कारण भी बना लेकिन उनकी मौत भी उनके इस अभियान को रोक न सकी, आज भी मज़दूर बस्तियों में नाटक के माध्यम से जनता को जागरूक करते दिख जाते हैं। आज भी झंडापुर में नाटक “किस ओर हो तुम” के माध्यम से मज़दूरों के रिहाइश, उनके काम करने के माहौल, मौलिक अधिकार पर हमले और उससे जूझते-संघर्ष करते मज़दूरों की कहानी बताई जाती है। साथ ही आम लोगों से भी सवाल किया जाता है कि ‘किस ओर हो तुम’ मज़दूर के पक्ष में या मालिक के साथ!
इस नाटक को देख रहे वहाँ मौजूद मज़दूरों ने बताया कि ये जो बता रहे हैं ये हमारी रोज़मर्रा की जिंदगी है। हमसे ऐसे ही कई लोगों जिन्होंने सफ़दर के साथ और उनके बाद भी नुक्कड़ नाटक को जारी रखा उनसे बात की और समझने की कोशिश कि तब और अब में क्या बदला है?
मज़दूर और कलाकारों की एकता कायम कर, सफ़दर नाटक और गीतों के माध्यम से समाज के शोषित और वंचितों की आवाज़ बनें।
मज़दूर आंदोलन के नेता दिनेश मिश्र जो अभी गाज़ियाबाद में मज़दूर संगठन CITU के सचिव हैं और वो जब सफदर की हत्या हुई यानि 1989 में एक कंपनी में मज़दूर थे और आंदोलन में सक्रिय थे और वे एरिया कमेटी के सस्दय भी थे। उन्होंने उन दिनों को याद करते हुए कहा कि उन दिनों इस पूरे इलाके में मज़दूर आंदोलन बड़ी तेज़ी से बढ़ रहा था जिससे यहाँ के मालिकों को दिक्कत हो रही थी क्योंकि मज़दूर संगठित होकर मालिकों के शोषण के ख़िलाफ़ लड़ रहे थे। इन आंदोलनों को यह नुकड़ नाटक मजबूती देता है क्योंकि जो बात भाषणों और पर्चों से नहीं पहुँच पाती है उसे यह कलाकार बहुत ही सरल तरीके से आम लोगों तक पहुंचाते हैं।
उन्होंने उस दिन को याद करते हुए कहा कि,”उस दिन भी कॉमरेड सफ़दर हमारी मदद करने के लिए यहाँ आए थे। मैं वहीं मौजूद था और मेरे सामने उनपर हमला किया गया था। यहाँ के स्थानीय कांग्रेस नेता मुकेश शर्मा ने अपने गुंडों के साथ उनपर हमला किया। हम उन्हें बचाने के लिए सीटू के दफ़्तर में ले गए लेकिन गेट में कुण्डी न होने की वजह से वो गेट खोलकर अंदर घुस गए और कॉमरेड सफ़दर की हत्या कर दी। लेकिन इससे हम डरे नहीं बल्कि उसके दो दिन बाद ही दोबारा नाटक करके हमने फिर साबित किया कि मज़दूर कलाकरों की एकता कितनी मज़बूत है।
दिनेश ने अपनी बातचीत में यह भी बताया कि कलाकरों ने जनता में मज़दूर आंदोलन के निर्माण और संगठित करने में बहुत महत्वपूर्ण योगदान निभाया है।
सुधन्वा देशपाण्डे जिन्होंने सफ़दर के ऊपर ‘हल्ला बोल’ लिखा जिसका विमोचन पिछले ही साल हुआ था, वे उस दिन जब सफ़दर की हत्या हुई तो वो उनके साथ नाटक का मंचन कर रहे थे। किताब में उन्होंने सफ़दर के हत्या के दिन की घटनाओं को बताया और साथ ही उन्होंने सफ़दर के बारे में उन बातों को भी बताया जो शायद कम ही लोग जानते हैं।
सुधन्वा ने न्यूज़क्लिक से बात करते हुए बताया की सफ़दर समाज के बारे में क्या सोचते थे?उन्होंने कहा कि सफ़दर समाज में गैर बराबरी के खिलाफ थे जबकि उनके समय में ये आज से कम थी आज तो अमीर और गरीब के बीच की खाई और बढ़ी है। वो सभी को समान अवसर मिले इसके पक्षधर थे।
साथ ही उन्होंने इस बात पर भी बोला कि कैसे पहले के दौर में भी कलाकारों और साहित्यकारों की आवाज़ दबाई जाती थी जिसमे अभी और बढ़ोतरी हुई है और आज जो माहौल है शायद वो पहले कभी नहीं था। अभी आप सरकार के खिलाफ कुछ बोलिए आपके ऊपर कई तरह की तौहमतें लगाई जाती हैं। आपको इतना डराया जाता है की आप कुछ भी बोलने से डरते हैं।
अंत में जब उनसे पूछा की ये नाटक लगातार सीमित होते जा रहे हैं इसके दायरे को और क्यों नहीं बढ़ाया जाता है? इसपर उन्होंने कहा की ऐसा नहीं है कि नाटकों का दायर सीमित है बल्कि यह मुख्यधारा की मिडिया की चकाचौंध से दूर है। उन्होंने यह भी कहा की नाटक उतना ही प्रभावशाली होगा जितना आंदोलन विकसित और तेज़ होगा।
मलयश्री जो ‘जनम’ की संस्थापक सदस्य और आज के ज़माने की सबसे वरिष्ठ सदस्यों में से एक हैं वो पिछले कई दशकों से नुक्कड़ नाटक कर रही हैं उनकी एक और पहचान है कि वो सफ़दर के सिर्फ नाटक की नहीं बल्कि जीवन साथी भी थीं। वो भी उस दिन नाटक में मौजूद थीं और उस जघन्य हत्याकांड के बाद भी वो डरी नहीं बल्कि दो दिनों के बाद चार जनवरी को ही दोबारा उसी जगह पर जाकर वही नाटक किया इसके बाद से लगातार हर साल वो एक जनवरी को झंडापुर में किए जाने वाले नाटक का हिस्सा हैं।
उन्होंने आज के हालात पर बोला की आज देश में दलित,मज़दूर,किसान सभी पर हमले बड़ी तेज़ी से हो रहे हैं लेकिन एक बात और उनका विरोध भी उतना ही तेज़ हो रहा है। वो कहती हैं कि कुछ लोग कहते हैं आज का युवा कुछ नहीं कर रहा है जबकि यह भी सत्य है कि बहुत सारे युवा बहुत कुछ कर रहे हैं। वे सिर्फ अपने ही नहीं बल्कि समाज के मुद्दे पर भी मुखर हैं।
हमने यह भी जानना चाहा की आज का युवा शहरी चकाचौंध के बीच इस नुक्कड़ नाटक का हिस्सा क्यों बन रहे है। उनके लिए क्या प्रेरणा है। इस पर राय लेने के लिए हमने कुछ युवा रंगकर्मियों से बात की।
एक युवा रंगकर्मी सम्यक जो ‘जनम’ से 2018 से जुड़े और अभी दिल्ली विश्वविद्यालय के आर्यभट्ट कॉलेज में पढ़ते हैं. उन्होंने कहा जब ज़ुल्म का साया बढ़ता है तब वो किसी एक वर्ग को ही नहीं बल्कि पूरे समाज को अपनी चपेट में लेता है, इसलिए सभी को एक साथ मिलकर लड़ना ज़रूरी है।
आगे उन्होंने कहा कि आज मज़दूर कितना प्रताड़ित है, लेकिन उसकी बातें समाज के बाकी तबके तक नहीं पहुँच पा रही हैं। ऐसे में ज़रूरी है कि हम जैसे कलाकार उनकी बातों को अपने नाटक कविताओं से समाज के बाकी तबकों तक ले जाएँ और इस तरह से समाज के बाकी तबकों की बातें हम मज़दूर तक पहुचाएँ, भले ही हम कितने ही तकनीकी रूप से मज़बूत हो गए हों फिर भी आज समाज में बहुत बड़ा कम्युनिकेशन गैप है जिसे भरा जाना बहुत ज़रुरी है,उसी का प्रयास हम कर रहे हैं।
सम्यक के एक और नौजवान साथी कमलेश ने हमसे बात की वे कुरुक्षेत्र से इंजिनयरिंग की पढ़ाई करके आए हैं और एक एक्टर हैं। उन्होंने सफ़दर को याद करते हुए कहा कि अगर हम यही नाटक किसी बंद थियेटर या हॉल में करें तो शायद जिनके लिए यह नाटक है वो इसे देख ही नहीं पाएंगे, परन्तु जब हम सड़कों पर नाटक करते हैं तो वो अपनी ही कहानी को देखते है और उसपर हँसते हैं।
सफदर ‘राज्य की तानाशाही’ के खिलाफ भारतीय वामपंथी आंदोलन के एक सांस्कृतिक प्रतिरोध का प्रतीक बनकर उभरे हैं। सफ़दर की मौत के बाद भी ‘जनम’ ने दिल्ली में अपना कार्य जारी रखा है।