फरवरी 19,मंगलवार के दिन अभिषेक मजुमदार के नाटक ईदगाह के जिन्नात के मंचन को जवाहर कला केंद्र (जे के के) ने विरोध के बाद रद्द कर दिया। 2012 के प्रसिद्ध अंग्रेजी नाटक जिन्स ऑफ़ ईदगाह का हिंदी/उर्दू संस्करण, जयपुर में नवरस प्रदर्शन कला महोत्सव का एक हिस्सा था। कश्मीर के मुद्दे पर आधारित यह नाटक सोमवार को बिना किसी रुकावट के प्रदर्शित किया गया, लेकिन लोगों के एक समूह द्वारा नाटक के निर्देशक और कलाकारों को निशाना बनाते हुए नारे लगाने के बाद दूसरा प्रदर्शन रोक दिया गया। नाटक को रद्द करने के साथ, हिंसकों ने यह भी मांग की कि निर्देशक पर राजद्रोह के आरोप लगाए जाए।
उन्होंने यह आरोप लगाया कि अभिषेक मजूमदार द्वारा लिखित नाटक ने कश्मीर में भारतीय सेना को “कट्टर” कहा और सुरक्षा बलों को “खराब रोशनी” में चित्रित किया है। माहौल की गंभीरता को मद्दे-नज़र रखते हुए मजूमदार को जयपुर छोड़ कर जाना पड़ा।
मजूमदार ने खुद जम्मू और कश्मीर जा कर, वहां के लोगों से और CRPF जवानों से बात चीत करने के बाद ही ईदगाह के जिन्नात का लेखन व प्रकाशन किया था। टेलीग्राफ की एक रिपोर्ट में उन्होंने कहा कि “नाटक के जिन पंक्तियों से उन्हें आपत्ति थी वह वास्तव में एक सैनिक के शब्द हैं जिनका प्रयोग करने कि अनुमति मेरे पास है। जवान अपनी आवाज़ हम तक पहुँचाना चाहते हैं पर ये प्रदर्शनकारी हमें सुनने नहीं देते।”
कई प्रतिष्ठित थिएटर हस्तियों ने राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से अपील की है कि वे यह सुनिश्चित करें कि कश्मीर पर आधारित इस नाटक को फिर से मंच पर लाया जाए। change.org पर दायर याचिका में इन्होनें कहा है, “सभी के लिए पहले से कहीं ज्यादा ज़रूरत है कि आज की तारीख में कश्मीर के मुद्दे पर करुणा और संवेदनशीलता के साथ विचार करें, न कि आक्रामकता और भाषावाद के साथ। अभिषेक का नाटक ठीक यही करता है। …न तो अभिषेक, न ही इस बयान का कोई भी हस्ताक्षरकर्ता, आतंकवाद और हिंसा का समर्थन करता है। हम सब उन परिवारों के दुःख को महसूस करते हैं जिन्होंने पुलवामा में हुए हालिया हमले में अपने प्रियजनों को खो दिया था, और उन सभी निर्दोष पीड़ितों के दुख को भी जिन्होंने कश्मीर में दशकों से हो रहे हिंसा को झेला है। हम पिछले कुछ दिनों में देश के अन्य हिस्सों में निर्दोष कश्मीरियों द्वारा सामना किए गए खतरों और हमलों की रिपोर्टों से भी आघात पहुंचा है।”
याचिका के एक हस्ताक्षरकर्ता और जन नाट्य मंच के कलाकार सुधन्वा देशपांडे ने इंडियन राइटर्स फोरम से बात करते हुए कहा, “यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसा एक कांग्रेस शासित राज्य में हुआ। प्रशासन को नाटक के कलाकारों और निर्देशक की रक्षा करनी चाहिए थी। उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिए था कि प्रदर्शन घटित हो और उपद्रवियों और हिंदुत्व बलों को सेंसरशिप करने का परिणाम मिले। मैं चाहता हूं कि अधिकारी, प्रशासन, पुलिस और राज्य सरकार को इस तरह से स्थानांतरित किया जाए कि नाटक का प्रदर्शन किया जा सके। उपद्रवियों पर मुकदमा दर्ज किया जाना चाहिए और उनके ख़िलाफ़ मामले दर्ज होने चाहिए। यह अप्रत्याशित नहीं है और यह बार-बार होता है, लेकिन यह वास्तव में दुखद है कि यह कांग्रेस शासित राज्य के तहत हुआ।”
इंडियन राइटर्स फोरम से बात करते हुए अभिषेक मजूमदार ने कहा, “नाटक पर हुआ हालिया हमला, उस सबब पर एक शर्मनाक हमला था जिसके लिए सैनिक अपनी जान दे रहे हैं, हमारे लोकतंत्र पर। कुछ लोगों द्वारा अखबार में छापी गयी एक झूठी खबर, फिर उसी समूह के लोगों द्वारा हिंसा और हमला, ये दिखाता है कि आज हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जहाँ संगठित गुंडे राष्ट्रवादी गौरव की सहज प्रतिक्रिया होने का दावा करते हैं। इस नाटक का मंचन बार-बार किया जाएगा, जैसा कि पिछले कई सालों से होता आया है, समीक्षाओं के लिए। इन प्रदर्शनकारियों को पता होना चाहिए कि उनका छोटा राजनैतिक लाभ, हमारे भारत के विचार को कभी ख़त्म नहीं कर पाएगा।”
इंडियन राइटर्स फोरम सेंसरशिप के इन मामलों की कड़ी निंदा करता है। हमारा मानना है कि लेखकों और कलाकारों को चुप नहीं कराया जा सकता और हम यह सुनिश्चित करेंगे कि उनका कार्य हमेशा जीवित रहे।
निम्नलिखित अभिषेक मजूमदार द्वारा निर्देशित ईदगाह के जिन्नात का एक अंश है:
बेग : अशरफ़ी… ठीक है। देखो, मैंने स्कूल बंद नहीं किए। मैं चाहता हूँ कि स्कूल खुलें। तुम सबके बाहर जाने और खेलने के लिए।
(ख़ामोशी। बेग अशरफ़ी को देख रहे हैं।)
बेग : क्या अब हम बस का सफ़र शुरू करें?
अशरफ़ी : ठीक है। ये मेरी बस है, मैं ड्राईवर हूँ।
(वह कुर्सी को दूसरी तरफ़ घुमाती है।)
मैं ड्राइव कर रही हूँ। वूऊऊऊ…वूऊऊऊ… (आवाज़ें निकालती है) उनके घर मीरपुर से एक शादी के लिए… (बेग उसके बस को चलाने वाले नाटक को गौर से देखते हैं) हाँ… नहीं नहीं… ये वहाँ नहीं जाएगी। बिल्कुल जाएगी। पांच रूपए। हैं आपके पास। अच्छा…
तो, मैं वहाँ ड्राइव कर रही हूँ… वो देखो अशरफ़ी और उसके वालिद आ रहे हैं… मीरपुर के बहादुर जमाल। वो अंदर आते हैं, वो बैठते हैं और फिर मैं ड्राइव करती रहती हूँ… मैं ड्राइव कर रही हूँ और वो बैठे हैं… वो वहाँ बैठे हैं…
(बेग उठते हैं और बस के बाहर खड़े होने का नाटक करते हैं। अंदर आने की कोशिश करते हुए वे ड्राईवर की तरफ़ हाथ हिलाते हैं। अशरफ़ी उनको देखती है पर अपनी बस नहीं रोकती।)
अशरफ़ी : बस वहाँ नहीं जाती जहाँ आप चाहते हैं कि वो जाए।
बेग : (मुस्कुराते हुए) क्यों न तुम अब्बा का किरदार निभाओ, और मैं अशरफ़ी का।
अशरफ़ी : (उठते हुए) ठीक है, पर जल्दी। हमें घर पहुंचना है। बिलाल को ट्रेनिंग के लिए जाना है।
बेग : बिलाल कहाँ है?
अशरफ़ी : (एक दूसरी कुर्सी लेकर बस में बैठने की जगह बनाती हुई) घर पर। वो हमारे साथ बस में नहीं था।
बेग : अच्छा। लेकिन वो अभी कहाँ है?
अशरफ़ी : अभी मैं बस में हूँ, और वो बस में नहीं है।
बेग : नहीं अशरफ़ी, देखो। अभी हम मेरे कमरे में हैं। और हम मान रहे हैं कि तुम एक बस में हो। ठीक है? तो यह असलियत में हो रहा है, (अपने कमरे, टेबल और दूसरी चीज़ों की तरफ़ इशारा करते हुए) और वो सब अभी नहीं हो रहा, (उसकी बस की ओर इशारा करते हुए) है न?
अशरफ़ी : आपके लिए, क्योंकि डॉक्टर साहब आप बस में नहीं हैं। मैं बस में हूँ। यह असलियत में हो रहा है। आइए, बस में आइए। मुझे आज सच में जल्दी जाना है…
बेग : ठीक है, तो मैं अशरफ़ी का किरदार निभाऊंगा /
अशरफ़ी : नहीं आप मेरा किरदार नहीं निभा सकते। मैं यहाँ बस में हूँ।
बेग : तो अब्बा…
अशरफ़ी : (भड़कते हुए) नहीं, नहीं, नहीं, नहीं… आप नहीं निभा सकते… (वह काफ़ी रंजीदा मालूम होती है) मेरे खेल को बिगाड़िए मत डॉक्टर साहब। मेरी बस। यह मेरी बस है! कुछ और खेलिए। यह आदमी या… यह सात लोगों का घराना। मुझे इसका हिस्सा मत… मुझे नहीं… अब मुझे याद नहीं आ रहा।
बेग : लेकिन तुम्हें इससे ज़्यादा याद है, अशरफ़ी। है कि नहीं? पिछले ही दिन हम शादी तक पहुँच गए थे।
(अशरफ़ी बैठ जाती है, रोने लगती है। वह ग़ुस्से में है और सिसक रही है।)
अशरफ़ी : आप बस में नहीं हैं, आपको समझ में क्यों नहीं आता? आपको जहाँ रहना चाहिए आप सिर्फ़ वहीं नहीं रह सकते क्या? आप मेरी बस को सिर्फ़ बाहर से नहीं देख सकते क्या? ये सब आपकी वजह से हुआ है, सब आपकी वजह से /
(बेग झूठमूठ की बस से दूर हट जाते हैं और अपनी कुर्सी पर वापस चले जाते हैं।)
बेग : (अशरफ़ी को शांत करते हुए) अच्छा, अच्छा, देखो, मैं बाहर हूँ अब। मैं बस में नहीं हूँ। देखो…
(अशरफ़ी मुड़ कर देखती है। अभी भी रोती हुई। अपनी गुड़िया को उठाती है। गुड़िया से कुछ कहती है, डॉक्टर को देखती है, गुड़िया से फिर कुछ डॉक्टर के बारे में बात करती है और डॉक्टर बेग से मुँह फेर के बैठ जाती है।)
अशरफ़ी : बस नहीं बढ़ सकती, आगे कर्फ़्यू लगा है।
बेग : हाँ कर्फ़्यू लगा है।
अशरफ़ी : मुझे कर्फ़्यू लगने से पहले घर पहुंचना है।
बेग : हाँ।
(अशरफ़ी वानी की तरफ़ देखती है इस उम्मीद में कि वह समझ रही है जिस बारे में वह बोल रही है। वह फिर से डॉक्टर बेग को देखती है।)
अशरफ़ी : मुझे कर्फ़्यू शुरू होने से पहले घर पहुंचना है बेग साहब। मैंने रेडियो पर उनके वक्तों के बारे में सुना था।
बेग : तुम्हारा मतलब है… अभी? मतलब आज जब तुम यहाँ मेरे साथ हो, डॉक्टर बेग के?
(अशरफ़ी मुस्कुराती है और गुस्ताख़ी से सर हिलाती है।)
हाँ। हाँ बिल्कुल।
अशरफ़ी : (मुस्कुराती है) क्या? आपको क्या लगता है डॉक्टर साहब?
बेग : मुझे लगा तुम बस के बारे में बात कर रही हो अशरफ़ी।
अशरफ़ी : कौन सी बस? ये बस? (वो हँसना शुरू कर देती है) आप पागल हैं डॉक्टर बेग। आप पागल हैं। मुझे मालूम है, आप पागल हैं।
(अशरफ़ी हँसती रहती है। वानी और बेग एक दूसरे को देखते हैं।)
बेग : ठीक है… अशरफ़ी। तुम अब घर जा सकती हो। हम कल फिर मिलेंगे, ठीक है?
(अशरफ़ी कोई जवाब नहीं देती। वह अपना हाथ फिर से फैलाती है। बेग मुस्कुराते हैं, उसको दूसरी टॉफ़ी दे देते हैं।)
[…]
वानी : बेग साहब… लड़कों ने आपकी गाड़ी पर पत्थर फैंके?
बेग : हाँ, फैंके। पूरे शहर को ये कैसे पता चला, एकदम से?
वानी : टी.वी. पर दिखाया जा रहा था, डॉक्टर बेग। एक न्यूज़ चैनल ने वादी के उन लोगों पर एक स्टोरी की थी जो हिन्दोस्तानियों के साथ बातचीत करने के लिए चुने गए हैं।
वो जिन्होंने इंकार कर दिया है… और वो जो बोलेंगे। उस सात साल के बच्चे और उसके बारह साल के भाई को गोली लगने की वजह से लोग पहले से ही सड़कों पर उतर आए थे, और अब ये चीज़… ये… सुलह-नामा… फ़ेहरिस्त उसी शाम ऐलान कर दी गई थी जिस शाम उस बच्चे को बेरहमी से मार दिया गया था। इस वाकिये ने काफ़ी लोगों का ग़ुस्सा बढ़ाया है। और शायद इसलिए अपने ग़ुस्से में उन्होंने…
(ख़ामोशी।)
बेग : ग़ुस्सा… कभी-कभी मुझे हिन्दोस्तानियों पर यक़ीन होने लगता है। शायद, हम इस जगह को सम्भाल ही नहीं पाएँगे, अगर ये हमें दे दी गई तो।
(वानी ख़ामोश बैठी रहती है। बेग वानी को देखते हैं।)
ओह…बिल्कुल, मैं भूल जाता हूँ।
वानी : डॉक्टर साहब, उन लड़कों को – (एकदम से रुक कर) उन्हें आपकी गाड़ी पर पत्थर नहीं फैंकने चाहिए थे।
बेग : नहीं, नहीं। क्यों नहीं? तुम्हें भी यही लगता है कि मुझे हिन्दोस्तानियों से बात नहीं करनी चाहिए, है न?
वानी : मैंने ये कभी नहीं कहा।
बेग : वानी, मैं तुम्हें लम्बे वक़्त से इतना तो जानता ही हूँ कि तुम्हारी ख़ामोशी पढ़ सकूं।
कल वज़ारत1 से सुनने के बाद सिर्फ़ तुम ही थी जो मेरे कमरे में नहीं आई। इसीलिए वानी, तुम वह आख़िरी शख्स हो जिसे मालूम पड़ा कि मेरी गाड़ी पर इन नए कश्मीर के बहादुरों ने पत्थर फैंके थे। ये कश्मीर के बच्चे।
(ख़ामोशी।)
वानी : बेग साहब, मुझे माफ़ कीजिएगा पर मुझे नहीं लगता कि इन हिन्दोस्तानियों से बात करने का कोई फ़ायदा है।
बेग : तुम यक़ीन से नहीं कह सकती ना वानी? यहाँ बैठे हुए, इस अस्पताल में, तुम यक़ीन से नहीं कह सकती कि हमें बात करनी चाहिए या नहीं?
देखो इस जगह को। पूरी वादी में दिमाग़ी रोगों का वाहिद अस्पताल। पांच डॉक्टरों के साथ… सिर्फ़ पांच। (तंज़िया लहज़े में हँसते हुए) तुम्हें और मुझे यहाँ करामाती कारकुनों2 की तरह बनना होगा। आज जब मैं अंदर आ रहा था वानी, मैंने रजिस्टर पर वह नंबर देखा… पैंतालीस हज़ार एक सौ अठत्तर… पैंतालीस हज़ार… हमारे कब्ज़ेदार और इन्क़लाबियों3 के बहादुरी और जोश का कुल जोड़… दरवाज़े के पास हमारे रजिस्टर पर उनका रिपोर्टकार्ड।
इस साल उस दरवाज़े से इतने लोग दाख़िल हो चुके हैं, और अभी तक ईद भी नहीं आई… और हम पांच हैं यहाँ। दो मेरे तालिब-ए-इल्म4 हैं जिसमें से एक तुम हो, और दो तुम्हारे… यह हमारा मौक़ा है। हम डॉक्टर हैं वानी… हमारा काम घाव भरना है। लोगों को इंक़लाब चाहिए। हम इनका इंक़लाब कहाँ रखेंगे? हमारे पास मरीज़ों के बैठने के लिए इतनी बैंचें भी नहीं हैं।
(ख़ामोशी।)
वानी : कब है डॉक्टर साहब?
बेग : परसों।
वानी : ईद?
बेग : (मुस्कुराते हुए) हाँ, वे ईद पर मिलना चाहते हैं।
वानी : (हँसते हुए) ये हिन्दोस्तानी लोग भी न… (रुक कर) मुझे पता नहीं डॉक्टर बेग कि कौन सी बात ज़्यादा फ़िक्र करने के लायक है… जब वे खुलेआम मुख़ालिफ़त5 करते हैं या जब वे मेहरबानी दिखाते हैं।
पूरा नाटक यहाँ पढ़ें।