जब भारत और पाकिस्तान जैसे दो देशों की बात होती है तो हमारी नज़रों के सामने से एक पूरा इतिहास गुज़रता है। एक इतिहास जिसमें ज़ुल्म है, हिंसा है, ख़ून है, दहशत है। दो देश, जिन्हें किसी तीसरे मुल्क ने धर्म, सम्प्रदाय के नाम पे बाँटा और इस क़दर बाँटा कि आज हमारे पास तमाम चीज़ें होने के साथ एक दूसरे के लिए एक बड़ी मात्रा में नफ़रत भी मौजूद है। अंग्रेज़ों के जाने के बाद दोनों ही देशों के सियासतदानों ने इस नफ़रत को ज़िंदा रखने और बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। सरहदों पर हमेशा से चल रहे तनाव की आड़ में जिस तरह से आम जनता को दूसरे मुल्क से नफ़रत करने के लिए उकसाया जाता है, वो डरावना लगने लगा है। ये काम रैलियों में, टीवी चैनलों पर, भाषणों में, यहाँ तक कि घरों में भी ज़ोर ओ शोर के साथ आज भी जारी है।
इस माहौल में हम ये सोचने पे मजबूर हो जाते हैं कि इन नफ़रतों से बचने या नफ़रत को ख़त्म करने के क्या ज़रिये हो सकते हैं! ऐसे में डेड पोएट्स सोसाइटी फ़िल्म के जॉन कीटिंग की याद आती है जो कहते हैं कि “कविता, मुहब्बत, ख़ूबसूरती, ये वो चीज़ें हैं जिनके लिए हम ज़िंदा रहते हैं ।”
दोनों देशों में फैली नफ़रतों के इस दौर में, हम याद कर रहे हैं उन कविताओं को जो सारी नफ़रतों को, सरहदी तनाव को, और सियासतदानों की मनमानी को परे रख के लिखी गई हैं। ये कवितायेँ लिखी गई हैं शांति की चाहत के साथ, उन लोगों से मुहब्बत के साथ जो सरहद के उस पार तो हैं मगर ये भी एक हक़ीक़त है कि वो हमारे ही जैसे हैं, और एक तरह से हमारे ही परिवार के लोग हैं।
दोनों ही देशों के शायरों ने वक़्तन-फ़-वक़्तन अपनी शायरी में दोस्ती और अमन की बातें की हैं।
निम्नलिखित हैं हिन्द-ओ-पाक दोस्ती के नाम लिखी दो कविताएँ।
पाकिस्तान के शायर अहमद फ़राज़ जब हिंदुस्तान में एक मुशायरे पढ़ने आये थे, तब उन्होंने दोनों देशों की शांति के नाम ये नज़्म “दोस्ती का हाथ” सुनाई थी:
दोस्ती का हाथ: अहमद फ़राज़
गुज़र गए कई मौसम कई रुतें बदलीं
उदास तुम भी हो यारो उदास हम भी हैं
फ़क़त तुम्हीं को नहीं रंज-ए-चाक-दामानी
कि सच कहें तो दरीदा-लिबास हम भी हैं
तुम्हारे बाम की शमएँ भी ताबनाक नहीं
मिरे फ़लक के सितारे भी ज़र्द ज़र्द से हैं
तुम्हारे आइना-ख़ाने भी ज़ंग-आलूदा
मिरे सुराही ओ साग़र भी गर्द गर्द से हैं
न तुम को अपने ख़द-ओ-ख़ाल ही नज़र आएँ
न मैं ये देख सकूँ जाम में भरा क्या है
बसारतों पे वो जाले पड़े कि दोनों को
समझ में कुछ नहीं आता कि माजरा क्या है
न सर्व में वो ग़ुरूर-ए-कशीदा-क़ामती है
न क़ुमरियों की उदासी में कुछ कमी आई
न खिल सके किसी जानिब मोहब्बतों के गुलाब
न शाख़-ए-अम्न लिए फ़ाख़्ता कोई आई
तुम्हें भी ज़िद है कि मश्क़-ए-सितम रहे जारी
हमें भी नाज़ कि जौर-ओ-जफ़ा के आदी हैं
तुम्हें भी ज़ोम महा-भारता लड़ी तुम ने
हमें भी फ़ख़्र कि हम कर्बला के आदी हैं
सितम तो ये है कि दोनों के मर्ग़-ज़ारों से
हवा-ए-फ़ित्ना ओ बू-ए-फ़साद आती है
अलम तो ये है कि दोनों को वहम है कि बहार
अदू के ख़ूँ में नहाने के बा’द आती है
तो अब ये हाल हुआ इस दरिंदगी के सबब
तुम्हारे पाँव सलामत रहे न हाथ मिरे
न जीत जीत तुम्हारी न हार हार मिरी
न कोई साथ तुम्हारे न कोई साथ मिरे
हमारे शहरों की मजबूर ओ बे-नवा मख़्लूक़
दबी हुई है दुखों के हज़ार ढेरों में
अब उन की तीरा-नसीबी चराग़ चाहती है
जो लोग निस्फ़ सदी तक रहे अँधेरों में
चराग़ जिन से मोहब्बत की रौशनी फैले
चराग़ जिन से दिलों के दयार रौशन हों
चराग़ जिन से ज़िया अम्न-ओ-आश्ती की मिले
चराग़ जिन से दिए बे-शुमार रौशन हों
तुम्हारे देस में आया हूँ दोस्तो अब के
न साज़-ओ-नग़्मा की महफ़िल न शाइ’री के लिए
अगर तुम्हारी अना ही का है सवाल तो फिर
चलो मैं हाथ बढ़ाता हूँ दोस्ती के लिए
फ़राज़ की नज़्म का जवाब हिंदुस्तान के शायर अली सरदार जाफ़री ने उतनी ही ख़ूबसूरती से लिख कर दिया था। इस नज़्म का नाम भी “दोस्ती का हाथ” है:
दोस्ती का हाथ: अली सरदार जाफ़री
तुम्हारा हाथ बढ़ा है जो दोस्ती के लिए
मिरे लिए है वो इक यार-ए-ग़म-गुसार का हाथ
वो हाथ शाख़-ए-गुल-ए-गुलशन-ए-तमन्ना है
महक रहा है मिरे हाथ में बहार का हाथ
ख़ुदा करे कि सलामत रहें ये हाथ अपने
अता हुए हैं जो ज़ुल्फ़ें सँवारने के लिए
ज़मीं से नक़्श मिटाने को ज़ुल्म ओ नफ़रत का
फ़लक से चाँद सितारे उतारने के लिए
ज़मीन-ए-पाक हमारे जिगर का टुकड़ा है
हमें अज़ीज़ है देहली ओ लखनऊ की तरह
तुम्हारे लहजे में मेरी नवा का लहजा है
तुम्हारा दिल है हसीं मेरी आरज़ू की तरह
करें ये अहद कि औज़ार-ए-जंग जितने हैं
उन्हें मिटाना है और ख़ाक में मिलाना है
करें ये अहद कि अर्बाब-ए-जंग हैं जितने
उन्हें शराफ़त ओ इंसानियत सिखाना है
जिएँ तमाम हसीनान-ए-ख़ैबर-ओ-लाहौर
जिएँ तमाम जवानान-ए-जन्नत-ए-कश्मीर
हो लब पे नग़मा-ए-महर-ओ-वफा की ताबानी
किताब-ए-दिल पे फ़क़त हर्फ़-ए-इश्क़ हो तहरीर
तुम आओ गुलशन-ए-लाहौर से चमन-बर्दोश
हम आएँ सुबह-ए-बनारस की रौशनी ले कर
हिमालया की हवाओं की ताज़गी ले कर
फिर इस के ब’अद ये पूछें कि कौन दुश्मन है
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ऐ शरीफ़ इंसानो
Illusions
From Sukh Dukkh’er Saathi (Companion in Love and Sorrow)