कुमार अम्बुज नब्बे के उस दशक के बदलावों के सामाजिक-सांस्कृतिक आयामों की पहचान करने वाले सबसे पहले कवियों में से थे जो आज के सर्वग्रासी समय में परिणत हुआ है। उनकी कविताओं में इस देश की राजनीति, समाज, और उसके करोड़ों मजलूम नागरिकों के संकटग्रस्त अस्तित्व की अभिव्यक्ति है। २०१९ लोक सभा चुनाव की तमाम आशंकाओं के बीच कि कौन किसे वोट देगा, कौन चुनाव जीतेगा, और अब चुनाव के परिणाम के बाद उनकी कविता “मुझे शक है, हर एक पर शक है”, प्रतिबिंब है, एक समाज के रूप में हमारी स्थिति का। यह कविता इस समय की उस विडम्बना को कहने की हिम्मत जुटाती है जिसमें पढ़ा-लिखा सुसंस्कृत समाज हत्यारों के वकील और फिर हत्यारों में तब्दील होता जा रहा है।
मुझे शक है, हर एक पर शक है
(पवित्र अश्लीलताओं से अश्लील पवित्रताओं तक)
मैं कुछ हैरान, कुछ परेशान घर से बाहर निकलता हूँ
सब तरफ तेज़ धूप है, तमाम लोग दिखते हैं अपनी आपाधापी में,
रोशनी की इस चकाचौंध में पहचानने की कोशिश करता हूँ
इनमें कौन हो सकते हैं जिन्होंने निसंकोच चुना है
एक एफआईआरशुदा मुजरिम को अपना नुमाइंदा
जबकि चारों तरफ सब जन इतने साधारण, इतने हँसमुख हैं
अपनी सहज दिनचर्या में मशगूल जैसे कुछ हुआ ही नहीं
ज्यादातर पढ़े-लिखे, बातचीत में सुशील, नमस्कार करते, हाथ मिलाते,
अपरिचित भी निगाह मिलने पर मुसकरा देते हैं,
शायद इनके बारे में ऐसा सोचना ठीक नहीं
लेकिन मुझे हर एक पर शक है यह मेरी बीमारी है
और एक अपराधी विजयी हुआ है यह समाज की बीमारी है
ग़लत चीज़े अकसर पवित्र किस्म की अश्लीलताओं से शुरू होती हैं
लोग तो हैं इस शहर में ही, पड़ोस में, मेरे आसपास,
मेरे घर में, बाजारों, गलियों, दफ्तरों में, मेरे दोस्तों में, जिन्होंने मिलकर
इंसाफ के सामने भी पेश कर दी है इतनी बड़ी शर्मिंदगी
कि कठघरे में खड़े आदमी से कहना पड़ रहा है- हे, मान्यवर
और दुंदुभियों के कोलाहल में कोई आवाज ऐसी नहीं उठती जो कहे
हमें दल-विशेष मुक्त नहीं, हमें चाहिए अपराधियों से मुक्त सरकार
सोचो, हम में से हर दूसरा आदमी अपराधियों का वोटर है
तो क्या यह संभव कर दिया है युद्धोन्मादियों ने,
तानाशाही की इच्छा ने, विश्वगुरू की कामना, निराशा की ऊँचाई ने,
किसके झूठ, किसकी गर्जना ने, किस प्रचार, किस बदले की भावना ने,
किस भयानक आशा ने, किसके डर, किसके लालच, किसके घमंड ने,
किसकी ज़िद, किसकी नफ़रत, किसकी मूर्खता, किसके पाखण्ड ने
किसके मिथक, किसके इतिहास, किसकी व्याख्या ने,
या अपने ही भीतर पल रही अपराधी होने की संचित आकांक्षा ने
मुझे शक है, हर अच्छे-बुरे आदमी पर शक़ है
मैं उन्हें भी नहीं बख्श पा रहा हूँ जो मेरे साथ खड़े दिखते हैं
कि जब चीजें पवित्र अश्लीलताओं से शुरू होती हैं
तो फिर वे चली जाती हैं अश्लील पवित्रताओं के सुदूर किनारों तक।