अभिषेक मजूमदार मौजूदा भारतीय थिएटर में एक जाना-माना नाम हैं। अभिषेक निर्देशक, लेखक हैं और भारत के अलावा विदेशों में भी थिएटर पढ़ाते हैं। जिस दौर से हम गुज़र रहे हैं, उसमें इंसान की अभिव्यक्ति की आज़ादी ख़तरे में है। ऐसे में अभिषेक पर और उनके नाटकों पर लगातार हमले भी हुए हैं। हमने अभिषेक से उनके नाटकों और अन्य विषयों पर बातचीत की है। इस बातचीत को हम दो हिस्सों में पेश करेंगे। आज हम आपके बीच दूसरा हिस्सा साझा कर रहे हैं। आप पहला हिस्सा यहाँ पढ़ सकते हैं।
इस हिस्से में अभिषेक थिएटर की शुरुआत, उसकी अहमियत और #metoo मूवमेंट के बारे में बात कर रहे हैं।
सत्यम्: आपने पहले साइंस के विषय में पढ़ाई की, और थिएटर की पढ़ाई और प्रैक्टिस में बहुत देर से आए। इसका कारण क्या है? इस दौरान थिएटर का पूरा सफ़र कैसा रहा? कैसी मुश्किलों का सामना करना पड़ा?
अभिषेक मजूमदार: थिएटर को एक प्रोफ़ेशन के तौर पर चुनने और निभाने की सबसे बड़ी वजह यह रही थी कि यहाँ आप कई विषयों पर काम कर सकते हैं और मैं हमेशा से ही मैं बहुत सारे विषयों में दिलचस्पी रखता था तो मेरे लिए ऐसा नहीं था कि मुझे फ़िज़िक्स में दिलचस्पी है और हिस्ट्री में नहीं है या फिर मुझे आर्ट में इंट्रेस्ट नहीं है और केमिस्ट्री में है।
स्कूल में तो ज़बरदस्ती हमें एक ब्रांच चुनना पड़ता था, और यह हमारे एजुकेशन सिस्टम की ख़ामी है। पूरे दुनिया के एजुकेशन सिस्टम में साइंस, आर्ट और कॉमर्स वाला डिमार्केशन (क्राइटेरिया) है सिर्फ़ एडमिनिस्ट्रेटिव इस्तेमाल के लिए बनाया है और इंसान के दिमाग़ के साथ इसका कोई कनेक्शन नहीं है।
हालांकि मैं ऐसे माहौल में पढ़ा हूँ जहाँ मेरे घरवालों ने कभी यह नहीं कहा कि मुझे यही पढ़ना चाहिए और वह नहीं पढ़ना चाहिए। मेरे घर में तो उल्टा ही था। 10वीं के बाद मेरी माँ ने मुझे हयूमैनिटीज़ पढ़ने को कहा था क्योंकि वहाँ बहुत अच्छे-अच्छे विषय हैं और चूँकि मुझे फ़िज़िक्स और गणित में बहुत दिलचस्पी थी तो मैं वही पढ़ना चाहता था (ख़ासकर फ़िज़िक्स)। लेकिन बाद में फ़िज़िक्स के मुक़ाबले गणित में मेरी रुचि ज़्यादा हो गई क्योंकि मुझे गणित ज़्यादा सिंबॉलिक लगने लगा। मैंने ग्रेजुएशन भी एलजेब्रा में ही किया था। मुझे इसमें सोचने का तरीक़ा अच्छा लगता था जहाँ आपको कुछ चीज़ें दी जाती हैं और आगे आपको सोचना होता है। इस हिसाब से मेरे लिए थियेटर बहुत लॉजिकल डिस्टिंक्शन था क्योंकि थिएटर के अंदर भी आप बहुत सारे काम संभालते ही हैं। आप जितना डिज़ाइन में इन्वॉल्व होते हैं उतना ही म्यूज़िक और बाक़ी चीज़ों में भी होते हैं। और सबसे बड़ी बात है कि आप अपनी ज़िंदगी के 2-3 साल एक विषय पर बने किसी नाटक को देते हैं। इन विषयों को असली जीवन में जीने वाले अच्छे अच्छे एकेडेमिक्स, प्रोफ़ेसर आदि से मिलने, उनके साथ काम करने और उसके बारे में सोचने का मौक़ा भी मिलता है। इन सबके बाद बनने वाला नाटक इन सभी चीज़ों का फलस्वरूप है।
जैसे लोगों के लिए थीसिस जमा करना, चिट्ठी लिखना, आर्टिकल लिखना होता है वैसे ही मेरे लिए थिएटर करना होता है जहाँ मेरी पूरी रुचि है और मैं पूरी कोशिश करता हूँ कि वह अच्छा बने। मैं फ़ॉर्म के लिए थिएटर में नहीं आया हूँ। मुझे सबसे ज़्यादा रुचि इस बात में है कि मैं विषय आसानी से बदलता रहूँ। इसी वजह से यह मेरे लिए बहुत ही लॉजिकल चीज़ है।
सत्यम्: आप सोशल मीडिया पर हर तरह की राजनीति और मुद्दों के बारे में बहुत बेबाक़ी से बात करते हैं तो क्या आपको लगता है कि किसी आर्ट से जुड़े प्रोफ़ेशनल व्यक्ति के काम को ही सबकुछ मान लेना चाहिए या उसे वोकल भी होना चाहिए? क्योंकि एक सेलिब्रिटी का बोलना मायने रखता है, लोग उससे प्रभावित होते हैं।
अभिषेक मजूमदार: पहले सवाल का जवाब यह है कि मेरी थिएटर का अलावा मेरी ज़्यादातर पब्लिक लाइफ़ मेरे क्लासरूम में है। मैं अपने लेक्चर पर बहुत ध्यान देता हूँ और उसे बहुत प्रोफ़ेशनल रखता हूँ और मेरा विरोध मेरे क्लासरूम में नाटक से कहीं ज़्यादा बड़ा है क्योंकि मैं अपने क्लासरूम और यूनिवर्सिटी को एक उम्मीद, एक मूवमेंट के तौर पर देखता हूँ। मेरे लिए मेरा क्लासरूम बहुत ज़्यादा मायने रखता है। मैं कभी भी अपने क्लासरूम में कोई भी विषय नहीं रोकता हूँ, भले ही वो मेरे पक्ष में हो या विरोध में हो। जहाँ तक सोशल मीडिया का सवाल है तो मैं सोशल मीडिया पर उसी बारे में बात करता हूँ जिससे मैं ऑफ़लाइन भी जुड़ा हूँ जैसे अगर मैं कश्मीर पर बात रहा हूँ तो मैं कश्मीर में काम कर चुका हूँ। नहीं तो मुझे ऐसा लगता है कि सोशल मीडिया मेरा बहुत सारा समय ले सकता है।
दूसरी बात यह है कि सोशल मीडिया अपने आप मे एक दुनिया है, उस दुनिया में आपको उन एक्शन का आभास हो सकता है जो असल में होते नहीं हैं। सोशल मीडिया के बारे में मेरी जानकारी बहुत ज़्यादा नहीं है पर अगर आप सोशल मीडिया पर मुझे किसी विषय पर बात करता देख रहे हैं तो आप यह मान सकते हैं कि मैं सोशल मीडिया से अलग ऑफ़लाइन दुनिया में भी उस विषय से जुड़ा हूँ। कई बार जो भी मैं सोशल मीडिया पर लिखता हूँ वह फ्रस्ट्रेशन में लिखता हूँ। मुझे ऐसा नहीं लगता कि लिख देने से कुछ हो जाएगा दुनिया में लेकिन मैं वहाँ इसलिए लिखता हूँ क्योंकि सोशल मीडिया ही वो जगह है फ्रस्ट्रेशन ख़त्म करती है। पर मुझे लगता है कि अगर आप ऑफ़लाइन किसी चीज़ के बारे में कुछ नहीं कह रहे हैं तो ऑनलाइन उसके बारे में लिखने का कोई मतलब नहीं है। पर बहुत लोगों ने सोशल मीडिया पर मुझसे ज़्यादा पढ़ाई की है, प्रोफेशनलिज़्म भी ज़्यादा है बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो सोशल मीडिया पर काम करते हैं जिन्हें मैं मानता भी हूँ। मुझे लगता है कि सोशल मीडिया पर ऐसी भी कुछ बात है जो मेरे समझ से बाहर है।
सत्यम्: #metoo मूवमेंट में एक्टिर, सिंगर, लेखक, डायरेक्टर, पत्रकार, नेता सब पर महिलाओं ने यौन उत्पीड़न या बलात्कार के आरोप लगाए थे; तो मेरा सवाल है कि क्या हम आर्ट को उसके आर्टिस्ट से अलग करके देख सकते हैं? जैसे सेक्सुअल हरासमेंट के आरोप लगने के बाद केविन स्पेसी की फिल्में न देखी जाएँ? इन दोनों को अलग रखना कितना ठीक है? ऐसा किया जा सकता है या नहीं?
अभिषेक मजूमदार: जहाँ तक #metoo मूवमेंट और आर्ट और आर्टिस्ट को अलग-अलग रखने की बात है तो मुझे ऐसा लगता है कि मुझे कई लोगों ने कहा कि अब कोई भी बोल सकता है, अब कोई भी किसी पर भी आरोप लगा सकता है। बहुत सारे मर्द ऐसा कहते हैं कि अब तो कोई भी ऐसे ही बोल सकता है। मेरा यह कहना है वो तो वैसे भी कोई भी बोल सकता है। किसी को रोका नहीं है किसी ने। अगर आपके बारे में किसी को ऐसे ही बोलना होता या झूठे आरोप लगाने होते तो ऐसे भी बोला जा सकता है, उसके लिए फ़ेसबुक की क्या ज़रूरत है। जब तक दुनिया में लोगों से मिल रहे हैं, तब तक यह रिस्क है कि आपके ख़िलाफ़ कोई भी कुछ भी बोल सकता है, आप यह कह सकते हैं कि फ़ेसबुक पर इस चीज़ की पहुँच थोड़ी ज़्यादा होगी और शायद anonymity भी है। बहुत सारे लोगों ने यह भी कह दिया है कि anonymity नहीं रखी है। इस मूवमेंट में बहुत बारीक़ चीजें भी हैं पर मुझे लगता है कि लोगों की ऐसी सोच नहीं होनी चाहिए। तो अगर आप पर आरोप लग रहा है और अगर वो ग़लत है उसे बोलिए क्योंकि ज़्यादातर मामलों में तो ग़लत नहीं ही है। अगर आपने कुछ ग़लत किया है तो आपको माफ़ी मांगनी चाहिए। अगर ग़लत होता है तो लोगों ने खुलकर कहा भी है कि असल बात यह थी और बाक़ी सब ग़लत है।
और लोग यह भी कहते हैं कि उन्हें बाउंड्री पता नहीं है। यह भी मैं नहीं मानता कि किसी को बाउंड्री नहीं पता है। पता होना चाहिए, आप बच्चे थोड़ी हैं। हाँ 8-10 साल के बच्चे हैं, उन्होंने कहीं एक दूसरे को छू दिया, कुछ बोल दिया, जो इंटेंशन नहीं था, लेकिन हो गया।
लेकिन अधेड़ उम्र के लोग जिन पर एक ही नहीं 4-5 आरोप लगे हैं, उन्हें बाउंड्री कैसे नहीं पता है?! अगर कोई आर्टिस्ट है उसे तो दुनिया भर का ज्ञान है, उसे बाउंड्री के बारे में कैसे नहीं पता हो सकता है? अगर आप किसी इंसान की तरफ़ अट्रेक्ट होते हैं और आप उसे बताते हैं कि आज शाम हम यह किताब पढ़ेंगे, यहाँ चाय पियेंगे, और फिर कुछ दिन बाद आपने यह भी बोला कि मैं आपकी तरफ़ अट्रैक्टेड हूँ तो वो यह नहीं बोलेंगे कि इन्होंने मेरे साथ सेक्सुअल एब्यूज़ किया। लेकिन हर चीज़ का एक पैटर्न है, अगर आप शुरुआत ही फ़िज़िकल या वर्बल एब्यूज़ से कर रहे हैं और आप यह इमेजिन कर रहे हैं कि सारी बातें बिना बोले हो गई हैं तो यह तो ग़लत ही है। आप अपनी माँ को भी यह बात बताएँगे तो वो भी आपको बता देगी कि यह ग़लत है। अगर आपको लगता है कि आप पर ग़लत आरोप लगे हैं तो आप बोलिए। मुझे लगता है कि इसमें मूवमेंट के विरोध में बहुत सारे झूठ बोले गए हैं। लोगों ने बहुत सारी ऐसी चीज़ें बोली हैं जो बिल्कुल सच नहीं है। जैसे हर औरत को पता है, वैसे ही हर आदमी को भी पता है।
जहाँ तक आर्ट और आर्टिस्ट की बात है, मुझे लगता है कि यह उन आर्टिस्ट के लिए सेपरेट कर पाना मुश्किल जो लोग ज़िंदा हैं। अगर मैं किसी ऐसे इंसान की बात कर रहा हूँ जो गुज़र गए, उनका एक आर्ट है, तो ऐसे में यह मामला थोड़ा कठिन हो जाता है। लेकिन मैं समझता हूँ कि अगर मुझे किसी ऐसे आर्टिस्ट के बारे में पता चलता है कि वो अपने समय पर पीडोफ़ाइल था तो मैं उसका काम कभी नहीं देखूँगा।
सत्यम्: आपके आने वाले projects के बारे में बताइये?
अभिषेक मजूमदार: Abu Dhabi में कुछ classes हैं। और ईरावती नाटक लिख रही हैं, “किसान”, जो पृथ्वी थिएटर के लिए है, वो होगा। दया पवार की आत्मकथा है। नई किताब भी लिख रहा हूँ। न्यू यॉर्क में नया नाटक ओपन होने वाला है, उस पर काम चल रहा है।
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