Indian Cultural Forum invited poet and scientist Gauhar Raza, who has published several volumes of poetry including Zazbon Ke Lau Tez Karun, for a reading of his poems in our studio.
مجھے یقین ہے
کبهی تو سورگ جهک کے پوچهتا ہی ہو گا، اے فلک
یہ کیسی سرزمین ہے یہ کون لوگ تهے یہاں
جو زندگی کی بازیوں کو جیتنے کی چاه میں
لٹا رہے تهے بے جهجک لہو کی سب اشرفیاں
یہاں لہو لہو کے رنگ میں عیاں تها کس طرح
نہ سبز تها نہ کیسری، نہ تها سلیب کا نشاں
نہ رام نام تها یہاں نہ تهی خدا کی رحمتیں
نہ جنّتوں کی چاه تهی، نہ دوزخوں کا خوف تها
نہ سورگ ان کی منزلیں، نہ نرک کا سوال تها
مسیح و گوتم و رسول، کرشن کوئ بهی نہیں
کہ جس کے نام جام پی کے مست ہو گےٓ ہوں سب
یہ کون سی شراب تهی کہ جس کا یہ سرور تها
یہ کس طرح کی مستیوں میں اس قدر غرور تها
یہ کس طرح یقین ہو کہ ایک مشتِ خاک ہے
جو زندگی کی مانگ میں بکهر گئ سندورسی
انہیں یقین تها کہ ان کے دم سے ہی بہار ہے
یہ کہہ رہے تهے ہم سے ہی بہار پر نکهار ہے
بہار پر یہ بندشیں انہیں قبول کیوں نہیں
انہیں قبول کیوں نہیں یہ غیر کی حکومتیں
یہ کیا ہوا کہ یک بہ یک سب خاموش ہو گے
یہاں پہ اوس کیوں پڑی یہ دهول دب گئ ہے کیوں
وه جس سے پهول کهل اُٹھے تهے زخم بهر گیا ہے کیوں
مجهے یقین ہے کہ پهر یہیں اسی مقام سے
اُٹهے گا حشر جی اٹهیں گے سارے نرم خواب پهر
برابری کا سب جنوں سمٹ کے پهر سے آے گا
بکهیر دے گی زندگی کی ہیر اپنی زلف کو
یہیں سے اُٹهے گی صدا کہ خود پہ تو یقین کر
یہیں سے ظلم کی کڑی پہ پہلا وار آےٓ گا
(جلیاں والا باغ کے شہیدوں کے نام)
मुझे यक़ीन है
कभी तो स्वर्ग झुक के पूछता ही होगा, ऐ फ़लक
यह कैसी सरज़मीन है ये कौन लोग थे यहाँ
जो ज़िंदगी की बाज़ियों को जीतने की चाह में
लुटा रहे थे बे झिझक लहू की सब अशर्फ़ियाँ
यहाँ लहू लहू के रंग में अयाँ था किस तरह
न सब्ज़ था न केसरी, न था सलीब का निशाँ
न राम नाम था यहाँ न थी ख़ुदा की रहमतें
न जन्नतों की चाह थी, न दोज़ ख़ूँ का ख़ौफ़ था
न स्वर्ग इन की मंज़िलें, न नर्क का सवाल था
मसीह ओ गौतम ओ रुसूल, कृष्ण कोई भी नहीं
कि जिस के नाम जाम पीके मस्त हो गए हों सब
यह कौन सी शराब थी कि जिस का यह सरूर था
यह किस तरह की मस्तियों में इस क़दर ग़रूर था
यह किस तरह यक़ीन हो कि एक मुश्त-ए ख़ाक है
जो ज़िंदगी की मांग में बिखर गई सिंदूर सी
इन्हें यक़ीन था कि इन के दम से ही बहार है
ये कह रहे थे हम से ही बहार पर निखार है
बहार पर ये बंदिशें इन्हें क़ुबूल क्यों नहीं
इन्हें क़ुबूल क्यों नहीं ये ग़ैर की हुकूमतें
यह क्या हुआ कि यकबयक सब ख़ामोश हो गए
यहाँ पे ओस क्यों पड़ी यह धूल दब गई है क्यों
वह जिस से फूल खिल उठे थे ज़ख़्म भर गया है क्यों
मुझे यक़ीन है कि फिर यहीं इसी मक़ाम से
उठेगा हश्र जी उठेंगे सारे नर्म ख़्वाब फिर
बराबरी का सब जुनूँ सिमट के फिर से आएगा
बिखेर देगी ज़िंदगी की हीर अपनी ज़ुल्फ़ को
यहीं से उठेगी सदा कि ख़ुद पे तू यक़ीन कर
यहीं से ज़ुल्म की कड़ी पे पहला वार आएगा
(जलियाँवाला बाग़ के शहीदों के नाम)
میں چاہتا ہوں
میں چاہتا ہوں کہ پروت پر ایک نظم لکهوں
ایک ایسی نظم جو پہلے کبهی لکهی نہ گئ
میں چاہتا ہوں کہ جهرنوں کا بانکپن لکھ دوں
یہ چاہتا ہوں کہ لہروں کو اپنے دامن میں
سمیٹ کر اُنہیں الفاظ کا بدن دے دوں
میں چاہتا ہوں کہ کاغذ پر کالے لفظوں سے
کروں میں ثبت کسی شام کا تمام صحر
دهنک کے رنگ سے کهیلوں لکھوں کہ قدرت نے
میرے قلم کے لئے ہی رچے ہیں راز یہ سب
میں چاہتا ہوں کسی شام بیٹهوں فرست سے
وه شام ایسی ہو جس پر گماں ہو صبح کا
میں تیری زلفوں کی، آنکهوں کی، تیرے ہونٹوں کی
تیرے بدن کی، تیرے پیرہن کی بات کروں
کوئ خیال نہ ہو، بس خیال ہو تیرا
تیرے خیال میں بهیگی ہوئ ہو ساری فضا
میں چاہتا ہوں کہ سردی کی ایک صبح ہو
میری بیاز میرے پاس ہو، ہاں لوح وقلم
میرے قریب ہو برگد کا پیڑ جو مجھ سے
زمانہ پہلے یہ سرگوشیوں میں کہتا تها
بچا کے رکهنا یہ اُمید اور یہ بهولاپن
وه ساری راز کی باتیں میں ہوبہو لکھ دوں
میں چاہتا ہوں کہ کوہرے کی ایک چادر ہو
میں اپنی آنکهوں میں آنسو لئے وہاں جاوٓں
جہاں پہ چهوڑ کے آیا تها اپنے بچپن کو
قلم کی نوک سے میں پهر اُنہیں تلاش کروں
جو رشتے چهوٹ گےٓ اور کبهی نہ لوٹیں گے
میں کڑوے نیم کے نیچے بناوٓں ایک کیاری
میں ننھے ہاتهوں سے پودهے لگاوٓں پهولوں کے
بہار آےٓ تو سب بانٹ دوں زمانے میں
میں چاہتا ہوں مگر، فرصتِ سخن تو ملے
میں چاہتا ہوں مگر تیره شامِ غم تو ڈهلے
یہ آگ وخون کی بارش، یہ آنسووٓں کی جهڑی
قدم قدم پہ یہ نفرت کا سربلند جنون
حقیقتیں کہ جو بکهری ہیں میرے چاروں طرف
یہ چار روز کی مہلت تو دیں، مجهے ہمدم
کہیں تو شمع جلے اور کہے کہ فرصت ہے
لکهوں وه نظم جو پہلے کبهی لکهی نہ گئ
मैं चाहता हूँ
मैं चाहता हूँ कि पर्वत पर एक नज़्म लिखूँ
एक ऐसी नज़्म जो पहले कभी लिखी न गई
मैं चाहता हूँ कि झरनों का बांकपन लिख दूँ
यह चाहता हूँ कि लहरों को अपने दामन में
समेट कर उन्हें अलफ़ाज़ का बदन दे दूँ
मैं चाहता हूँ कि काग़ज़ पर काले लफ़ज़ों से
करूँ मैं सब्त किसी शाम का तमाम सहर,
धनक के रंग से खेलूँ लिखूँ कि क़ुदरत ने
मेरे क़लम के लिए ही रचे हैं राज़ यह सब
मैं चाहता हूँ किसी शाम बैठूँ फ़ुरसत से,
वह शाम ऐसी हो जिस पर गुमाँ हो सुबह का
मैं तेरी ज़ुल्फ़ों की, आँखों की, तेरे होंटों की
तेरे बदन की, तेरे पैरहन की बात करूँ
कोई ख़याल न हो, बस ख़याल हो तेरा,
तेरे ख़याल में भीगी हुई हो सारी फ़ज़ा
मैं चाहता हूँ कि सरदी की एक सुबह हो
मेरी बयाज़ मेरे पास हो, हाँ लौह ओ क़लम
मेरे क़रीब हो बरगद का पेड़ जो मुझ से
ज़माना पहले यह सरग़ोशियों में कहता था
बचा के रखना यह उम्मीद और यह भोलापन
वह सारी राज़ की बातें मैं हूबहू लिख दूँ
मैं चाहता हूँ कि कोहरे की एक चादर हो
मैं अपनी आँखों में आँसू लिए वहाँ जाऊँ
जहाँ पे छोड़ के आया था अपने बचपन को
क़लम की नोक से मैं फिर उन्हें तलाश करूँ
जो रिशते छूट गए और कभी न लौटेंगे,
मैं कड़वे नीम के नीचे बनाऊँ एक क्यारी,
मैं नन्हे हाथों से पौधे लगाऊँ फूलों के,
बहार आए तो सब बाँट दूँ ज़माने में
मैं चाहता हूँ मगर, फ़ुरसत-ए सुख़न तो मिले,
मैं चाहता हूँ मगर तेरा शाम-ए ग़म तो ढले,
यह आग ओ ख़ूँ की बारिश, यह आँसूओं की झड़ी
क़दम क़दम पे यह नफ़रत का सरबलंद जुनूँ,
हक़ीक़तें कि जो बिखरी हैं मेरे चारों तरफ़,
यह चार रोज़ की मोहलत तो दें, मुझे हमदम
कहीं तो शमा जले और कहे कि फ़ुरसत है,
लिखूँ वह नज़्म जो पहले कभी लिखी न गई
ہر پرچم سرخ لہو ہو گا
تم سوچ رہے تهے قتل کیا
اور سارا قصّہ پاک ہوا
پرجسم کے نازک بندهن میں
مضبوط ارادے پلتے تهے
تم نے یہ بندهن توڑ دئے
کیا جانو تم کیا کر بیٹهے
مضبوط ارادے پهیل گےٓ
گلیوں، سڑکوں، چوباروں میں
ہر دروازے پر دستک ہے
ہے دهوم مچی ویرانوں میں
تم سوچ رہے تهے آنسو کے
سیلاب اُمڈ کر آیں گے
جزبات کے دهارے نکلیں گے
ہر چیز بہا لے جایٓں گے
ٹوٹے ہوےٓ دل اور چاک جگر
پُرنم آنکهیں، تهّراے بدن
بکهرے گیسو، ماتهے پہ شکن
تکلیف زده چہرے ہونگے
بهرّاے گلے سے ناروں کی
آوازیں اب کیا نکلیں گی
غم کے بادل کے بوجھ تلے
سر جهک جایٓں گے یاروں کے
جو دور پرے ہیں یاروں سے
ڈر جایٓں گے، گهر جایٓں گے
کہہ دیں گے قصّہ پاک ہوا
اب دور ہوا اِن چهینٹوں سے
دامن کو بچا لو کیا کرنا
یہ کچھ لوگوں کا جهگڑا ہے
طاقت کے نشے میں چور ہو تم
کیا جانو ہمّت چیز ہے کیا
مضبوط ارادوں کی دولت
کس دهوم سے بانٹی جاتی ہے
جو جهک نہ سکا تدبیروں سے
اُس سر پہ سہرا باندھ دیا
ہر بوند لہو کی چن چن کر
لڑیوں میں پرودی سہرے کی
کیا شان تهی جب باہر آےٓ
اپنے کاندهوں پر پهول لئے
آنکهوں میں بلا کی سرخی تهی
جزبات میں ایک ٹهراو سا
چہرے پہ تپش لافانی سی
ہر جسم جوانی کا شعلہ
گیسو تو پریشاں تهے لیکن
ماتهے پر شکن کا نام نہ تها
جو دور پرے تهے یاروں سے
وہ بھی یاروں میں شامل ہیں
سیلاب ہے جو رکتا ہی نہیں
تھمتا ہی نہیں تدبیروں سے
تم کر لو ساری تدبیریں
معلوم ہے تم تهک جاوٓ گے
رنگین پهریروں کے بادل
اُس دن گهر گهر کے آیں گے
ہر پرچم سرخ لہو ہو گا
ان یاروں کا جو چهوٹ گے
اک بار قسم پهر کهایں گے
ہم آگے بڑهتے جایٓں گے
اور اپنے شہیدوں کے خوں سے
منسوب کریں گے مستقبل
Thतुम सोच रहे थे क़त्ल किया
और सारा क़िस्सा पाक हुआ
पर जिस्म के नाज़ुक बंधन में
मज़बूत इरादे पलते थे
तुमने ये बंधन तोड़ दिये
क्या जानो तुम क्या कर बैठे
मज़बूत इरादे फैल गये
गलियों, सड़कों, चौबारों में
हर दर्वाज़े पर दस्तक है
है धूम मची वीरानों में
तुम सोच रहे थे आँसू के
सैलाब उमड कर आएँगे
जज़्बात के धारे निकलेंगे
हर चीज़ बहा ले जाएँगे
टूटे हुए दिल और चाक जिगर
पुर्निम आँखें, थर्राए बदन
बिखरे गेसू, माथे पे शकन
तकलीफ़ ज़दा चहरे होंगे
भर्राए गले से नारों की
ग़म के बादल के बोझ तले
सर झुक जाएँगे यारों के
जो दूर परे हैं यारों से
डर जाएँगे, घर जाएँगे
कह देंगे क़िस्सा पाक हुआ
अब दूर हुआ इन छींटों से
दामन को बचा लो क्या करना
यह कुछ लोगों का झगड़ा है
ताक़त के नशे में चूर हो तुम
क्या जानो हिम्मत चीज़ है क्या
मज़्बूत इरादों की दौलत
किस धूम से बाँटी जाती है
जो झुक न सका तदबीरों से
उस सर पे सहरा बाँध दिया
हर बूँद लहू की चुन चुन कर
लड़ियों में पिरोदी सहरे की
क्या शान थी जब बाहर आए
अपने काँधों पर फूल लिए
आँखों में बला की सुर्ख़ी थी
जज़्बात में एक ठर्राव सा
चहरे पे तपिश लाफ़ानी सी
हर जिस्म जवानी का शोला
गेसू तो परेशाँ थे लेकिन
माथे पर शकन का नाम न था
जो दूर परे थे यारों से
वह भी यारों में शामिल हैं
सैलाब है जो रुकता ही नहीं
थमता ही नहीं तदबीरों से
तुम कर लो सारी तदबीरें
मालूम है तुम थक जाओगे
रंगीन फरेरों के बादल
उस दिन घिर घिर के आएँगे
हर पर्चम सुर्ख़ लहू होगा
उन यारों का जो छूट गए
इक बार क़स्म फिर खाएँगे
हम आगे बढ़ते जाएँगे
और अपने शहीदों के ख़ूँ से
मंसूब करेंगे मुस्तक़्बिल
© Gauhar Raza