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रोहिंग्या मुसलमानों को भारत सरकार अपने घर वापस जाने को कह रही है , पर सवाल ये है कि उनका घर है कहाँ ? म्यांमार,जो उनका मूल निवास माना जाता है पर वहां उनका सालों से दमन हो रहा है। रोहिंग्या मुसलमानों की कहानी दर्द की एक लंबी दास्ताँ सुनाती है। रोहिंग्या मुसलमान दुनिया में सबसे ज्यादा सताए जाने वाला समूह बताया जाता है। ये शताब्दियों से म्यांमार में रह रहे हैं , जहाँ बौद्ध धर्म के लोगों की बहुसंख्या है। रोहिंग्या मुसलमानों की संख्या 10 लाख बताई जाती है, इनमें से ज्यादातर म्यांमार में रहते हैं। पर म्यांमार में रहने वाले 135 जातीय समूहों में से उन्हें एक माना नहीं जाता। उन्हें 1982 से नागरिक अधिकार भी दिए जाने बंद कर दिए गए । ज़्यादातर रोहिंग्या लोग म्यांमार के रखाइन राज्य में रहते हैं , जो देश के सबसे पिछड़े क्षेत्रों में से एक है। इस पूरे राज्य में इंसानी अस्तित्व के लिए ज़रूरी मूल भूत सुविधाएँ तक मौजूद नहीं हैं। इसके आलावा म्यांमार आर्मी के लगातार दमन की वजह से रोहिंग्या लोग वहां से पलायन करते रहे हैं ।
अंग्रेज़ों के समय से रोहिंग्या मुसलमान काम की तलाश में आज के भारत और बांग्लादेश में पलायन करते रहे हैं । अंग्रेज़ों से आज़ादी मिलने के बाद भारत में इस पलायन को ग़ैर कानूनी माना गया । इस वजह से रोहिंग्या लोगों को वापस जाना पड़ा पर म्यांमार के बहुसंख्यक बौद्ध उन्हें हमेशा बंगाली मुस्लिम ही माना। 1948 में म्यांमार को आज़ादी मिलने के बाद यूनियन सिटीजनशिप एक्ट पास हुआ, जिसमे रोहिंग्या को जातीय समूह नहीं माना गया । पर रोहिंग्या लोगों को शुरुवात में कुछ हद तक नागरिक अधिकार मिले और उनमें से कुछ संसद तक भी पहुंचे। पर 1962 में म्यांमार में आर्मी द्वारा तख़्ता पलट के बाद चीज़े काफी तेज़ी से बदलने लगीं। 1962 के बाद से उनसे सारे नागरिक अधिकार छीन लिए गए और 1982 में नागरिक अधिकार कानून पास होने के बाद उन्हें राज्यविहीन घोषित कर दिया गया था। 1982 के कानून के हिसाब से जो भी 1948 से पहले म्यांमार का नागरिक थे उन्हें कागज़ी तौर पर नागरिकता साबित करनी थी । पर रोहिंग्या मुसलमानों के इतिहास और सामाजिक स्थिति की वजह से ये उनके लिये करना नामुमकिन था। इसका परिणाम ये हुआ कि रोहिंग्या मुसलमानों को म्यांमार में पढ़ने , नौकरी करने , शादी करने और घूमने तक का अधिकार नहीं मिला।
2012 में यौन उत्पीड़न और कुछ स्थानीय विवादों की वजह से रोहिंग्या मुसलमानों पर हिंसा का एक दौर शुरू हुआ। एक अनुमान के हिसाब से इस हिंसा में 200 रोहिंग्या मुसलमानों को क़त्ल किया गया और हज़ारों को पलायन करना पड़ा। इस घटना की शुरुआत एक युवा बौद्ध महिला के बलात्कार और हत्या के बाद शुरू हुई थी। इसके बाद 2013 में सोने की एक दुकान पर विवाद के बाद 40 लोग मारे गए। 2016 में म्यांमार पुलिस पर हमला हुआ , सरकार के हिसाब से ये हमला रोहिंग्या मुसलमानों के एक आतंकी सगठन ने किया था। इसके बाद म्यांमार आर्मी ने रोहिंग्या बस्तियों पर हमला बोल दिया। संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि इस हमले में आर्मी द्वारा रेप , फेक एनकाउंटर और मानव अधिकारों का हनन शामिल है। अगस्त में भी आर्मी द्वारा रोहिंग्या बस्तियों पर निर्दयी हमले किये गए जिसमें 100 लोगों के मारे जाने के आरोप हैं। पर म्यांमार सरकार ने कहा है कि मारे जाने वाले लोग अराकन रोहिंग्या सैल्वेशन आर्मी से जुड़े हुए थे। जबसे हिंसा के इस दौर की शुरुवात हुई है करीबन370,000 रोहिंग्या मुस्लिम राख्यान क्षेत्र से विस्थापित हो चुके हैं। इनमें से हज़ारों ने पानी के रास्ते भागने की कोशिश की थी जो कि उनकी दयनीय स्थिति को दर्शाता है।
आर्मी दमन के अलावा बौद्ध कट्टरपंथी भी रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ ज़हर फ़ैलाने में अहम भूमिका निभाते रहे हैं। 2003 में अस्तित्व में आया एक कट्टर पंथी संगठन 969 इसमें प्रमुख माना जाता है। इसका नेतृत्व आसिन बेराथु नाम के एक बौद्ध भिक्षु करते हैं। उन्हें धार्मिक घृणा फैलाने के आरोप में 2003 में जेल की सजा हुई थी। वो 2012 में रिहा हुए थे। वो ख़ुद को म्यांमार का ओसामा बिन लादेन बताते हैं। आसिन बेराथु के भाषणों में कट्टर राष्ट्रवाद, रोहिंग्या मुसलमानों के प्रति घृणा और रोहिंग्या महिलाओं के प्रति आपत्तिजनक सुर सुनाई पड़ते हैं।अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए उन्होंने सोशल मीडिया का काफी इस्तेमाल किया है।2013 में हुए दो साम्प्रदायिक दंगे जिनमें करीबन 100 मुसलमानों की मौत हुई , इसी कट्टर पंथी विचारधारा का नतीजा है ।
2010 में वजूद में आयी लोकतान्त्रिक सरकार से ये उम्मीद लगायी जा रही थी कि वो इस समस्या को सुलझाएगी पर इस मुद्दे पर उनके रवैये से काफी लोगों को निराशा हुई है। म्यांमार की वाईस चांसलर आंग सान सू ची के लगातार इस नरसंहार को नज़र अंदाज़ करने से काफी सवाल खड़े होते हैं। म्यांमार की तथाकथित लोकतान्त्रिक सरकार ने भी रोहिंग्या को एक जातीय समूह मानने से इंकार किया है। । 2016 में संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के हिसाब से ऐसा बहुत संभव है की म्यांमार सरकार इस नरसंहार में शामिल हो। हाल ही में नोबल प्राइज विजेता आंग सान सू ची ने कहा की रोहिंग्या मुसलमानो का नरसंहार नहीं हो रहा है, नरसंहार बहुत कठोर शब्द है इसे समझने के लिए। म्यांमार सरकार ने संयुक्त राष्ट्र की इस मामले में हुई जाँच को भी नामंजूरी कर दिया है।
बांग्लादेश में 3 से 5 लाख तक रोहिंग्या रिफ्यूजी रहते हैं और बांग्लादेश सरकार अक्सर उन्हें बांग्लादेश आने से रोकती रही है। जनवरी में बांग्लादेश सरकार रोहिंग्या लोगों को स्थानांतरित करने का एक प्रस्ताव लायी है। सरकार के प्रस्ताव के हिसाब से रोहिंग्या मुसलमानों को थेंनगार चार द्वीप पर स्थानांतरित कर देना चाहिए। जबकी मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि ये द्वीप बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में आता है और रहने लायक नहीं है। साथ ही बांग्लादेश सरकार म्यांमार पर रोहिंग्या मुसलमानों शोषण और उनके नरसंहार करने का आरोप लगाती रही है। बांग्लादेश की प्रधानमत्री शेख हसीना का कहना है कि संयुक्त राष्ट्र को इस मामले में दखल देना चाहिए और म्यांमार पर दबाव डालना चाहिए कि वो रोहिंग्या लोगों को म्यांमार में वापस लें।
भारत में करीब 40,000 रोहिंग्या हैं और उनकी आर्थिक और सामाजिक हालत बहुत ख़राब है। शरणार्थियों को रोकने के लिए भारत में कानून नहीं है , क्योंकि भारत ने संयुक्त राष्ट्र 1951 और 1967 के प्रोटोकॉल पर भी दस्तखत नहीं किया था। आज के अंतरास्ट्रीय कानून के हिसाब से शरणार्थियों को उस देश वापस नहीं भेजा जा सकता, जहाँ उनकी जान को खतरा हो। इसके साथ ही भारतीय संविधान शरणार्थियों को आर्टिकल 14 ,21 और 51 (c ) के हिसाब से बराबरी का हक़ और स्वतंत्रता का अधिकार भी देता है। इसीलिए रोहिंग्या मुस्लिमों के मामले में भारत सरकार का हाल का रवैया चिंताजनक है। हाल ही में गृह राज्य मंत्री किरण रिजुजू ने रोहिंग्या मुसलमानों को गैरकानूनी अप्रवासी कहा और ये भी कि इन्हे डिपोर्ट करने की तैयारी की जा रही है । ऐतिहासिक तौर पर ये निर्णय भारतीय परम्परा के विरोध में हैं। भारत ने अफगानी , पाकिस्तानी , श्रीलंकन तमिलों और बाक़ी शरणार्थियों को हमेशा जगह दी है। बहुत लोगों का मानना है कि की रोहिंग्या को मुसलमान होने की वजह से ये किया जा रहा है। रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ काफी समय से सोशल मीडिया पर भी दुष्प्रचार चल रहा है , जिसमे उन्हें इस्लामी आतंकवादी बताया जाता है। संघ से जुड़े लोग इस दुष्प्रचार में सबसे आगे रहे हैं। इस प्रचार के खिलाफ मानवाधिकार संगठन लगातार लड़ाई लड़ रहे हैं। सरकार के इस फैसले का विरोध काफी तीखा हो गया है। 13 सितम्बर को भारत में रह रहे रोहिंग्या मुसलमानों और मानवाधिकार संगठनों ने हज़ारों की संख्या में दिल्ली में प्रदर्शन किया।
इस मुद्दे को मानवीय नज़र से देखने की ज़रुरत है और भारत को वासुदेव कुटुंबकम की अपनी परंपरा को याद करना चाहिए। इस पूरे प्रकरण में रोहिंग्या लोगों के अस्तित्व को ही जैसे हर सरकार ने अवैध घोषित कर दिया है। ये बहुत दुखद स्थिति है और इस पूरे प्रकरण में मानवीयता की भारी कमी नज़र आती है। रोहिंग्या मुसलमानों के इस मुद्दे को सुलझाने के लिए सरकारों पर अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर दबाव डालने की ज़रुरत है ।