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जलियांवाला बाग नरसंहार को आज 100 बरस हो गए हैं। इस मौके पर ऑल इंडिया पीपुल्स फोरम (एआईपीएफ) ने जनता के नाम एक अपील जारी की है। इसमें कहा गया है, “ऐसे महत्वपूर्ण समय में जबकि हमें कुछ ही दिनों बाद नई लोकसभा का गठन करना है, जरूरी है कि देश के लोकतंत्र-संविधान और संस्कृति पर हो रहे हमलों का एकजुटता से मुकाबला करें और फासीवादी ताकतों को परास्त करें।”
एआईपीएफ के जॉन दयाल, विजय प्रताप, किरन शाहीन, प्रेम सिंह गहलावत, मनोज सिंह और गिरिजा पाठक की ओर से जारी बयान में कहा गया है कि आज देश जिन हालात का सामना कर रहा है, आज से 100 साल पहले 13 अप्रैल 1919 में ब्रिटिश शासन में जलियांवाला बाग में हमारी जनता को उन्हीं हालात का सामना करना पड़ा था। फर्क सिर्फ यही था कि उस दौर में विदेशी शासन में जनता जुल्म सितम का सामना कर रही थी और आज अपने ही देश के फासीवादी शासन में देश की जनता-लोकतंत्र और संविधान के सामने गंभीर चुनौतियां मुंह बाए खड़ी हैं। हम जलियांवाला बाग के शहीदों को श्रद्धांजलि देते हुए इस बात को महसूस करते हैं कि जलियांवाला बाग के शहीदों और उस घटना से प्रेरणा लेने वाले क्रांतिकारी उस समय देश के भीतर जिन परिस्थितियों का सामना कर रहे थे और उसके खिलाफ संघर्ष करते हुए क्रांतिकारियों ने जिस विचार को रेखांकित किया था वह आज हमारे लिए भी पूर्णतः प्रासंगिक है।
बयान में कहा गया है कि आइए, हम जलियांवाला बाग कांड से पूर्व स्थितियों का पुनरावलोकन कर लें जिससे हमारा एहसास ज्यादा मजबूत होता है कि वर्तमान दौर में किस तरह से फासीवादी शासन हमले के लिए 'फूट डालो और राज करो' की उसी नीति का पालन कर रहा है। जिसके चलते समाज का सबसे कमजोर हिस्सा -अल्पसंख्यक-दलित-महिलाएं-किसान-मजदूर और लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वाले सबसे ज्यादा हमलों का सामना कर रहे हैं। यही नहीं भगतसिंह ने देश में आमूलचूल परिवर्तन की जिस लड़ाई को लड़ते हुए कहा कि '… यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार कर रखा है – चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज पूंजीपति या सर्वथा भारतीय ही हों, उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है…. ।
जलियांवाला बाग कांड की पृष्ठभूमि में भारतीय समाज में सभी धर्म-संप्रदायों में एकता बढ़ रही थी वह अंग्रेजी शासकों को अपने लिए खतरे की घंटी लग रहा था। जलियांवाला बाग पर हाल ही में प्रकाशित किम वैगनर की किताब बताती है कि अप्रैल 9, 1919 को राम नवमी थी – उस दिन डॉ सैफुद्दीन किचलू और डॉ सत्यपाल की गिरफ्तारी के खिलाफ जनता को हिन्दू मुस्लिम एकता के नारे लगाते हुए और मुसलमानों को राम नवमी के जुलूसों में शामिल देख कर ब्रिटिश शासकों को 1857 के दोहराए जाने का भय सताने लगा।
100 वर्ष पहले 'हिंदू मुस्लिम एकता' के नारे से जिस तरह ब्रिटिश शासक घबराते थे और ऐसे नारों को 'राजद्रोह' मानते थे। उसी तरह सन् 1925 में जन्में RSS-यानी संघ के नेता भी 'हिन्दू मुस्लिम एकता' के नारों के खिलाफ लिखते थे। इसके विपरीत जलियांवाला बाग के शहीदों से और 1857 और गदर आंदोलन के गदरियों से प्रेरित क्रांतिकारी धारा के प्रतीक भगत सिंह, हिंदू मुस्लिम एकता की ज़रूरत पर लोगों को सचेत कर रहे थे। वास्तविक आजादी के लिए संघर्षरत नायकों ने दंगा व नफरत फैलाने वालों के देश विरोधी और अंग्रेज प्रेमी चरित्र को उन्होंने अच्छी तरह से समझ लिया था। इसीलिए डॉ. अंबेडकर ने भी बॉम्बे असेंबली में मज़दूर आंदोलन पर दमन के खिलाफ बोलते हुए कहा था कि 'अंग्रेज़ तो खुल कर कह रहे हैं कि भारत के लोगों को 'होम रूल' – स्वशासन – दे दो क्योंकि अगर अंग्रेज़ शासक भारत के लोगों पर फायरिंग का आदेश देंगे तो अंग्रेज़ों के खिलाफ जनाक्रोश बढ़ेगा, पर अगर भारतीय मूल के शासक दमन करेंगे तो ऐसा नहीं होगा, वे हमारी ढाल बन जाएंगे! डॉ अंबेडकर ने कहा कि मैं ऐसी आज़ादी, ऐसा स्वशासन नहीं चाहता जिसमें भारतीय शासक अंग्रेज़ों जैसा ही दमनकारी बर्ताव करें और भारत की जनता पर गोली बरसाएं।
जलियांवाला बाग कांड के 100 वर्ष होने पर हमें सोचना होगा कि संघ और भाजपा क्यों हिंदू मुस्लिम एकता के लिए काम करने वालों को देशद्रोही-राजद्रोही कहते हैं, और दंगाइयों को देश भक्ति का सर्टिफिकेट देते हैं? आज संघ, भाजपा, मोदी-योगी सब 'बांटो और राज करो' वाले अंग्रेज़ों के शासन वाले मॉडल पर चल रहे हैं। यही वे 'काले अंग्रेज़' हैं जिनके खिलाफ भगत सिंह ने हमें सचेत किया था।
जलियांवाला बाग के शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि तब होगी जब हम हिंदू मुस्लिम एकता तोड़कर नफरत फैलाने वाली संघी-भाजपाई ताकतों को पराजित करेंगे। अंग्रेज़ों के ज़माने से चले आ रहे काले कानूनों – जैसे राजद्रोह, AFSPA, UAPA आदि – को रद्द करेंगे। किसानों मज़दूरों आदिवासियों पर, कश्मीर की जनता पर जब पुलिस फायरिंग होती है तो जलियांवाला बाग के शहीदों की विरासत हमसे पूछती है – क्या आज के काले अंग्रेज़, उस समय के गोरे अंग्रेज़ों के रास्ते पर नहीं चल रहे हैं? इस रास्ते को बदल डालिए!