रितु मेनन द्वारा संपादित पुस्तक इंडिया ऑन देयर माइंड्स : 8 वूमैन, 8 आइडियाज ऑफ इंडिया (वूमैन अनलिमिटेड, 2023) आठ महिलाओं के लेखन का एक संकलन है। ये वे महिलाएं हैं जो औपनिवेशिक शासन से लेकर भारत की स्वतंत्रता तक के घटनाक्रमों की गवाह रही हैं और उनकी उनमें भागीदारी भी रही है। इन महिलाओं ने अपनी लघु कथाओं, उपन्यासों, निबंधों, संस्मरणों और आत्मकथाओं के माध्यम से व्यक्तिगत जीवन पर इन घटनाओं के प्रभाव को प्रतिबिंबित करते हुए राष्ट्र के जन्म और उसके बाद के वक्त का दस्तावेजीकरण किया है।
इस बातचीत में लेखिका और प्रकाशक रितु मेनन आठ असाधारण महिलाओं की बहु-स्तरीय निजी आवाजों और राजनीतिक आवाजों के बारे में बताती हैं। ये आठ महिलाएं हैं – नयनतारा सहगल, कैप्टन लक्ष्मी सहगल, रशीद जहां, इस्मत चुगताई, कुर्अतुल ऐन हैदर, अत्तिया हुसैन, कमलाबेन पटेल और सरला देवी चौधुरानी। इन महिलाओं को एक साथ क्या चीज जोड़ती है? इन सभी ने “उस देश (देशों) में जहां वे रहती थीं उसके जीवन में वार्ताकार, भागीदार और टिप्पणीकार” के रूप अपनी आवाज उठायी। और ये सभी एक समावेशी, विविधतापूर्ण, समतावादी और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के विचार से बहुत गहराई तक प्रतिबद्ध थीं।
गीता हरिहरन (जीएच) : आपने भारत को लेकर इन आठ महिलाओं के विचारों को ‘एक व्यक्ति, पेशेगत और राजनैतिक’ मेल के रूप में वर्णित किया है। किताब में शामिल इन महिलाओं की अलग-अलग पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए क्या आप इस पर विस्तार से रोशनी डालेंगी?
रितु मेनन (आरएम) : यह विवरण के बजाय अधिक तर्कसंगत अनुमान लगाना है, वास्तव में ‘पेशेवर’ के अर्थ में आमतौर पर स्वीकार्य परिभाषा में देखें तो लक्ष्मी सहगल और रशीद जहां ‘प्रोफेशनल’ थीं। दोनों ही चिकित्सक के रूप में कार्यरत थीं। लेकिन सामाजिक कार्य (सोशल वर्क), जिसमें कमलाबेन पटेल और सरला देवी चौधुरानी ने अपने जीवन का एक अच्छा-खासा हिस्सा व्यतीत किया था, को वर्तमान में प्रोफेशन ही माना जाता है; और पटकथा-लेखन, प्रसारण, तथा संपादन कार्य, जिसे इस्मत चुगताई, कुर्अतुल ऐन हैदर और अत्तिया हुसैन नियमित रूप से करती थीं, को भी निश्चित रूप से प्रोफेशन के रूप में माना जाता है, यद्यपि इनमें से कोई भी इस कार्य के लिए ‘योग्यता प्राप्त’ (‘क्वालिफाइड’) नहीं था। नयनतारा सहगल को अपने पत्रकारीय लेखन के गुण की वजह से उपन्यासकार होने के साथ-साथ वर्तमान में स्तंभकार भी कहा जाएगा।
हां, उस अर्थ में उन्हें पेशेवर महिलाओं के रूप में माना जा सकता है, लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि इन महिलाओं ने स्वयं को तथा अपने लेखन को जिस तरह से परिभाषित किया – यहां तक कि कमलाबेन पटेल का कार्य भी – वह अपने अर्थ में यदि राजनीतिक नहीं था तो फिर और कुछ भी नहीं था। यह उनके लेखन के माध्यम से ही था कि उन्होंने एक सशक्त राजनीतिक दृष्टिकोण को सामने रखा और उस पर टिप्पणी करने के माध्यम से देश के जीवन में तथा उसमें जो कुछ घटित हो रहा था उसमें हस्तक्षेप किया। गहराई से महसूस करने और इनमें से प्रत्येक महिला द्वारा किए गए व्यक्तिगत चुनाव से यह राजनीति निकल कर आई, जिसका सीधा असर इस बात पर पड़ा कि वे एक राजनीतिक व्यक्ति के रूप में स्वयं के बारे में कैसा सोचती हैं।
जैसा कि कहा गया है कि लक्ष्मी सहगल और रशीद जहां राजनीतिक रूप से भी सीधे तौर पर शामिल थीं, साथ ही – सहगल इंडियन नेशनल आर्मी में रानी झांसी रेजीमेंट के हिस्से के रूप में जुड़ी थीं और बाद में वह सीपीआई (एम) और एडवा [ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक वूमन्स एसोसिएशन] से जुड़ीं; रशीद जहां भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना के समय से ही उसकी सक्रिय सदस्य थीं। इस्मत चुगताई प्रगतिशील लेखक आंदोलन (प्रोग्रेसिव राइटर्स मूवमेंट) का हिस्सा थीं; सरला देवी चौधुरानी कलकत्ता और लाहौर में अपने सार्वजनिक कार्यक्रमों और उनके द्वारा संपादित भारती पत्रिका के माध्यम से राजनीतिक रूप से सक्रिय थीं। नयनतारा सहगल अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि को देखते हुए राजनीति में डूबी हुई थीं, और इसने उन्हें उनके संपूर्ण लेखन के लिए एक परिप्रेक्ष्य के साथ ही सामग्री भी मुहैया कराई। हैदर और हुसैन के उपन्यासों, लघु कहानियों और गैर-साहित्यिक लेखन ने ‘राजनीति’ की गहन समझ से अपनी प्रेरणा ग्रहण की थी, इस तथ्य के बावजूद कि उन्होंने औपचारिक राजनीतिक संबद्धता से स्वयं को मुक्त रखने का विकल्प चुना था। उनके व्यक्तिगत जीवन के चयन और कुछ नहीं बल्कि गहरे राजनीतिक थे।
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(जीएच) : आप यह किस तरह से कहेंगी कि औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता, विभाजन और ‘राष्ट्र’ का जन्म इन महिलाओं के जीवन के लिए – और साथ ही भारत को लेकर उनके विचारों के लिए – निर्णायक क्षण थे?
(आरएम) : आपस में जुड़े हुए ये तीनों ही घटनाक्रम इन सभी आठों महिलाओं के लिए महत्वपूर्ण क्षण थे, और वे सभी इन घटनाक्रमों से अपरिवर्तनीय ढंग से प्रभावित हुई थीं। वास्तव में यदि स्वतंत्रता आंदोलन का उत्साह और ऊर्जा तथा स्वतंत्रता और उसके बाद हुआ विभाजन का तथ्य नहीं होता, तो मैं यह कहने का साहस करूंगी कि उन्होंने संभवतः भिन्न तरीके से लिखा होता। रशीद जहां (जिनकी स्वतंत्रता मिलने के तुरंत बाद ही मृत्यु हो गई थी और हम यह नहीं जान सकते कि वह इस पर कैसे प्रतिक्रिया व्यक्त करतीं) के सिवाय ये सभी महिलाएं इस बात से जूझ रही थीं कि स्वतंत्रता के साथ ही हुआ विभाजन का उनके लिए व्यक्तिगत रूप से और साथ ही भारत के लिए क्या अर्थ रखता है। इनमें नयनतारा सहगल एकमात्र लेखिका हैं जिन्होंने अपने लेखन में विभाजन को संबोधित नहीं किया; उनके लिए किसी एक क्षण या घटना के बजाय भारत ही उनका मुख्य किरदार था। और सरला देवी स्वतंत्रता से पहले ही आध्यात्मिकता के जीवन में वापस चली गई थीं।
हैदर, चुगताई और हुसैन इस विचार में व्यस्त रहीं कि नए, स्वतंत्र भारत का उनके लिए क्या अर्थ है, और उन्हें ‘राष्ट्र’ और ‘देश’ का किस तरह से वर्णन करना चाहिए, और निश्चित तौर पर हैदर का संपूर्ण प्रमुख लेखन कार्य किसी न किसी तरह से इस पहेली से दो-चार होता है। लक्ष्मी सहगल और कमलाबेन पटेल ने स्वतंत्रता के बाद सक्रिय राजनीतिक जीवन से खुद को अलग कर लिया था, और पटेल के मामले में तो यह स्थायी रूप से था। इसके बावजूद उन्होंने लिखने का क्रम जारी रखा। और उनके लेखन के माध्यम से ही हम उस अंतदृष्टि के बारे में जान पाते हैं कि उन्होंने इन युगांतकारी घटनाओं पर कैसी प्रतिक्रिया व्यक्त की। हम उनके लेखन के माध्यम से इसे ‘राजनीतिक रूप’ से अलग तरह से समझते हैं, क्योंकि उन्होंने इसे एक महिला के रूप में लिखा। निश्चय ही, यह एक राजनीतिक रूप से जागरुक जीवन के बारे में एक दूसरा परिप्रेक्ष्य, और अनुभव, प्रदान करेगा। उनका संपूर्ण लेखन, चाहे वह साहित्यिक हो या फिर साहित्य से इतर, से यह तथ्य निकल कर हमारे सामने आता है।
(जीएच) : सभी आठों महिलाएं किसी न किसी रूप में अपने समय में राष्ट्रवाद के प्रवाह की अवधारणा को संबोधित करती हैं। राष्ट्रवाद की उनकी समझ स्वाभाविक रूप से उनके लेखन, उनकी सक्रियता और गठबंधन या निष्ठा के उनके चुनाव को लेकर उनके व्यवहार के बारे में बताती है। ‘राष्ट्रवाद’ का जो एक अलग ब्रांड आज चरम पर है, उसको लेकर आप क्या सोचती हैं कि ये सभी महिलाएं कैसी प्रतिक्रिया देतीं या दे सकती थीं?
(आरएम) : जब मैं लिख रही थी तो एक तरह से मुझे अनायास ही यह महसूस हुआ कि इन आठ महिलाओं में से चार हिंदू और चार मुस्लिम हैं। आजादी से पहले ये पहचानें अवचेतन में रही होंगी, लेकिन विभाजन ने निश्चित रूप से उन्हें पुनर्गठित किया, और प्रत्येक लेखिका को इस प्रश्न से दो-चार होना पड़ा कि वह इस पुन: बदले गए और पुनर्परिभाषित किए गए ‘देश’ में कहां और कैसे संबंधित हैं। अब वे ‘राष्ट्र’ के बारे में अप्रभावित और लिंग भेद रहित अर्थों में नहीं सोच सकती थीं। कमलाबेन पटेल इस अस्तित्व संबंधी चिंता को व्यथा के साथ व्यक्त करती हैं, क्योंकि उन्हें तत्काल और मानवीय स्तर पर इससे निपटने के लिए विवश किया गया था। हैदर और हुसैन शायद सबसे ज्यादा सुवक्ता थीं, उन्हें भी ‘अपना’ देश ‘चुनना’ था, लेकिन यह उनके द्वारा ‘चुना हुआ’ नहीं था, बल्कि उन्हें दिया गया एक विकल्प था। चुगताई को भी चुनना था, और इस मोल-तौल में वे सभी बाजी हार गए।
हम जानते हैं कि हैदर और नयनतारा सहगल आज के राष्ट्रवाद के ब्रांड पर किस तरह की प्रतिक्रिया दे सकती थीं, क्योंकि उन्होंने इसके बारे में लिखा था। विभाजन के समय देश के बंट जाने के बावजूद उन्होंने उस मूल, आकांक्षापूर्ण विचार, जिसका कि प्रतिनिधित्व मुक्ति और स्वतंत्रता करती थी, के साथ विश्वासघात होने की वजह से बढ़ती निराशा के साथ स्पष्ट रूप से लिखा था।
क्या महिलाओं का भी कोई देश होता है? यह कैसा है, और इसमें किसी के स्थान को कैसे समझा जाना चाहिए? नि:संदेह, हैदर ने इस प्रश्न को संबोधित किया, कभी-कभी सीधे-सीधे तथा कभी-कभी काफी घुमा-फिराकर। और उनके मुख्य किरदार जीवन भर इससे जूझते रहते हैं। कोई अनुमान नहीं लगा सकता, लेकिन यदि मैं उनके (इन महिलाओं के) लिखे और कह गए शब्दों और उनके द्वारा जिये गए जीवन को आधार बनाऊं तो मैं कहूंगी कि ये आठों महिलाएं वर्तमान में जिस तरह के राष्ट्रवाद का प्रदर्शन किया जा रहा है उसे खारिज कर देतीं। भारत के समावेशी, विविधतापूर्ण, समतावादी और धर्मनिरपेक्ष विचारों को कायम रखने के लिए वे आज भी उसी तरह के गठबंधन और जुड़ाव को चुनतीं जैसा कि उन्होंने अपने उस दौर में चुना था।
पुन: संयोग से, इस पुस्तक में आठों महिलाएं उस विविधता का दर्शाती हैं जिसने मुझे उनके बारे में लिखने की इजाजत दी, ताकि मैं उनके बहुत ही निजी, बहुत ही राजनीतिक, बहुत लैंगिक और वे जिस देश (देशों) में अपना जीवन जीती थीं, वहां एक वार्ताकार, भागीदार और टिप्पणीकार के रूप में उनके द्वारा उठाई गई आवाजों को सामने रख सकूं।
अनुवाद : कृष्ण सिंह
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