दर्शन सोलंकी हॉस्टल के सातवें माले से नहीं
संविधान के अनुच्छेद 15, 16, 29, या कह लें 17 से कूदा था
सातवां माला हो या ये अनुच्छेद
पायदान तो थे ही दर्शन सोलंकी के लिए
पर पायदानों को जोड़ कर सीढ़ी बना सकें वे कड़ियाँ नहीं थीं!
जातिगत-भेदभाव यदि कोई चाकू होता
कि भोंका और आदमी ठंडा
तो शायद बता देते उसकी मौत के जाँच-नवीस
इसे जान देने की वजह
पर उन्हें कोई चाकू तो दिखा नहीं
सो ख़ुद को मारने का सबब
और कुछ नहीं पढ़ाई में पिछड़ना भर
माना गया!
पर जो सूरत ये हो
कि पढ़ाई में पिछड़ना,
छोड़ दिया जाना उदास-असमर्थित,
पड़ते जाना अलग-थलग,
अपने अधिकारों को भींचे
उन्हीं पर शर्मिंदा होने की दमघोंटू स्थिति में
महदूद कर दिया जाना ही
जातिगत-भेदभाव हो
तो…
भेदभाव का आध्यात्मिकीकरण
सांस्कृतिक भिन्नता है
दर्शन सोलंकी के साथ भेदभाव नहीं हुआ
उसे तो पारम्परिक पार्थक्य का
आध्यात्मिक सुख दिया गया!
जाति उसके लिए दंश थी
दूसरों के लिए तो संस्कारों की निर्मात्री रही है
और जब उसे मुक्त कर दिया गया
अधिकारों का संजीवन देकर
तो दूसरों से शिकायत कैसी?
वे भेदभाव नहीं, बस गौरव धारण करते थे!
दे वर जस्ट बींग देमसेल्व्स!!
जांच-नवीस जो ये भी लिख देते कि
दर्शन सोलंकी ने आत्महत्या भी नहीं की
तो ये भी ठीक ही होता
वो तो दरअसल पायदानों पे चढ़ता-चढ़ता
उनके बीच की ख़ाली जगह से गिर गया था,
जगह जो समाज को भरनी थी
दर्शन सोलंकी ने आत्महत्या नहीं की
वह अधिकारों के अपने पर काट कर उड़ना चाह रहा था,
उड़ गया, जो उसे दिया गया था उसे लौटाकर
उनकी अनिच्छा उन्हें भेंटता हुआ
जो उसे अपने बीच पाकर असहज हो उठे थे!
ऐसा करते हुए दर्शन सोलंकी
अपनी देह से मुक्त नहीं हुआ
उसे अपने साथ लेकर गया
मानो कह रहा हो उसकी देह उसकी देह है
छुआछूत का डेरा नहीं
जिसे कानूनी बाध्यताएं लगाकर ही
सुरक्षित किया जा सके!
दर्शन सोलंकी जब अपनी देह के साथ उड़ रहा था
एक बहुत अभागी किताब के पन्ने
हवा में यूँ फड़फड़ा रहे थे
जैसे फट ही जाएंगे!
झीनी और कटी-फटी हवा में
वो नैतिक शक्ति नहीं बची थी
जो उसकी गिरती हुई देह संभाल सके!
देह गिर रही थी
मेरिट और रैंक के जंगल के ऊपर
बुझती हुई एक अदद चिंगारी की तरह!
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