श्रीधर वी. केतकर की कृति कालिंदी (स्पीकिंग टाइगर, 2022) का लेखिका शांता गोखले ने मराठी से अंग्रेजी में अनुवाद किया है। यह उपन्यास मूल रूप से 1930 में ब्राह्मण कन्या के नाम से प्रकाशित हुआ था। इसे साहसिक और अपने समय से आगे की रचना के रूप में प्रतिष्ठा मिली। यह उपन्यास समकालीन पाठकों के लिए एक क्लासिक को जीवंत करता है। और हम यह भी देखते हैं कि तकरीबन एक सदी बाद भी यह रचना प्रासंगिक बनी हुई है।
यह मुंबई में बीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों की बात है, जब कालिंदी डागे नाम की एक पढ़ी-लिखी और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर एकल मां ने अपनी जिंदगी एक जातिविहीन और समतापूर्ण समाज में बिताने का सपना देखा था। यह समाज उस दमघोटू दुनिया से बहुत आगे का था, जिसे वह अपने पीछे छोड़ आई थीं। जहां उनके वकील पिता अप्पासाहब ब्राह्मण थे और मां शांता अवर्ण। पिता की तरह दादा भी ब्राह्मण थे। उनकी जीवन संगिनी एक स्कूल मास्टरनी थी जो शादी के खयाल को ही खारिज करती थीं।
लेखिका गीता हरिहरन के साथ इस बातचीत में शांता गोखले ने केतकर के उपन्यास के अनुवाद, महिलाओं के अधिकारों और अन्य मुद्दों पर रौशनी डाली है।
गीता हरिहरन (जीएच) : ब्राह्मण कन्या उपन्यास पहली बार 1930 में प्रकाशित हुआ था। समकालीन पाठक के सामने इसका पाठ्य जो चुनौती पेश कर रहा है, वह यह है कि परत-दर-परत उघाड़ते हुए उसका एक संदर्भ निर्मित हो रहा है : क्योंकि यह एक समाजशास्त्री के विचारों का उपन्यास है; क्योंकि हिंदू सुधार पर राष्ट्रवाद द्वारा चलाई जा रही बहस के साथ इसका समय 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध का है; क्योंकि एक पुरुष स्त्रियों की शिक्षा और विवाह की पसंद के मुद्दे को उठा रहा है; चित्तपावन ब्राह्मण के रूप में जन्मा एक पुरुष वर्ग और जाति की असमानता के मसले को उठा रहा है, लेकिन वर्ग विरोधाभास और व्यवहार के प्रति पूरी जागरुकता के साथ। मान लीजिए, हम सबसे महत्वपूर्ण परत जाति से इस बातचीत की शुरुआत करते हैं। क्या आप केतकर के समय और हमारे समय के बीच जातिगत भेदभाव की निरंतरता और/या परिवर्तन पर टिप्पणी करना चाहेंगी?
शांता गोखले (एसजी) : मेरे लिए सबसे पहली और महत्वपूर्ण बात यह है कि ब्राह्मण कन्या एक कहानी है। इसको तीखे संवादों, चरित्र-चित्रण पर बहुत ज्यादा ध्यान देते हुए और सामयिक परिस्थितियों के साथ कहानी कहने की सीधी शैली में कहा गया है। यहां उस समय की परिस्थितियां उसके पात्रों को अपनी आगोश में ले लेती हैं। ये पात्र समाज के व्यापाक हिस्सों से आते हैं। जिनमें अवर्ण से लेकर सवर्ण जाति तक, शिक्षित युवा स्त्रियों से लेकर व्यापारी तक, अल्पसंख्यक वर्ग के सदस्यों से लेकर कामगार यूनियनों के नेता तक शामिल हैं। इनमें प्रत्येक पात्र रीति-रिवाज, परंपरा और धर्म को धक्का रहे हैं, ताकि निजी स्वतंत्रता की थोड़ी-सी तलाश की जा सके कि आखिर वे कौन हैं। उनके यात्रा मार्ग के विस्तृत खुलासे के बाद पाठक पूरी तरह से उसके पीछे-पीछे चलता है, और हैरान रहता है कि वे सब कैसे अपनी इतनी सारी समस्याओं का समाधान करेंगे। उपन्यास की महानता लेखक की समाजशास्त्रीय चिंताओं में निहित है, जो कहानी को एक थीसिस में बदलने की इजाजत नहीं देते हैं। इसके जीवंत पात्र और उनकी यात्राएं उस वाहन का निर्माण करती हैं जिसे केतकर ने जाति के संबंध में अपनी गहरी चिंता को आगे ले जाने के लिए तैयार किया है। जाति के बारे में उनका मानना है कि इसने भारतीय समाज को अकथनीय नुकसान पहुंचाया है और अगर इससे लड़ा नहीं गया तो एक राष्ट्र के रूप में यह देश को और ज्यादा नुकसान पहुंचाएगी। इस कहानी में जाति मात्र एक परत भर नहीं है। यह इस कहानी को प्रभावी रूप से गति देने वाली विषय-वस्तु है।
यह याद रखा जाना चाहिए कि जाति 19वीं सदी के मध्य से ही महाराष्ट्र में राजनीतिक विमर्श का हिस्सा रही है, केतकर के व्यस्क होने से बहुत पहले से ही। सदी के उत्तरार्ध में जब देश की आजादी के लिए आंदोलन शक्ति अर्जित कर रहा था, तो उस वक़्त में दो जोशीले राष्ट्रवादी बाल गंगाधर तिलक और गोपाल गणेश आगरकर के बीच तीखी बहस हो रही थी। दोनों के जन्म के समय में बहुत कम अंतर था। देश की आजादी को लेकर अपने विपरीत दृष्टिकोण की वजह से अलग-अलग रास्ते पर चलने से पहले ये दोनों ही महान हस्तियां स्कूल में साथी छात्र और मित्र थे, और पुणे के फर्ग्युसन कॉलेज में सहपाठी भी थे। तिलक का तर्क था कि सामाजिक समस्याओं को संबोधित करने से पहले स्वतंत्रता की लड़ाई को जीतना होगा। आगरकर का विचार व्यापक था, उनका तर्क था कि अगर हिंदू को एक आत्मविश्वासी, आधुनिक और स्वतंत्र राष्ट्र का एक योग्य नागरिक बनना है, तो उसमें सामाजिक सुधारों का प्रमुख महत्व है। जाति और महिलाओं की शिक्षा वह मूल धुरी थी जिसके इर्द-गिर्द ऐसी सभी बहस घूमती थी। केतकर इस विमर्श के इतिहास की महत्वपूर्ण कड़ी थे। अपने अकादमिक अनुशासन के रूप में समाजशास्त्र के साथ जाति की समस्या में उनकी अकादमिक रुचि थी। उन्होंने कॉर्नेल विश्वविद्यालय से स्नातक और स्नातकोत्तर की डिग्रियां हासिल कीं। वह जाति के संबंध में पश्चिमी समझदारी में खामियों से पूरी तरह से वाकिफ हो चुके थे। इसके साथ ही वह जाति को लेकर रूढ़िवादी हिंदू दृष्टिकोण में खामियों को लेकर भी सजग थे। उनकी डॉक्टरेट की थीसिस के लिए उनकी पसंद के विषय का लक्ष्य दोनों मसलों को संबोधित करना था। उनकी थीसिस का शीर्षक द हिस्ट्री ऑफ कास्ट एंड रेस इन इंडिया था। वह 1909 में एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुई थी। उसके परिचय में वह कहते हैं कि उन्होंने जाति के विषय को लेकर गहरा शोध किया और जैसा गहरा और जटिल यह विषय है, उस पर इस उम्मीद से शोध किया था कि इसके इतिहास का ज्ञान शायद लोगों को यह देखने में मदद कर सके कि व्यवस्था किसी प्रकार से कठोर नहीं थी। वैदिक काल से यह बहुत बड़े परिवर्तन से गुजरी, जब समाज के संगठनात्मक सिद्धांत के रूप में चार वर्ण निर्धारित किए गए। उन्होंने परिवर्तन के मुख्य सबूत के रूप में मानव धर्मशास्त्र, जिसे आम तौर पर मनु स्मृति के रूप में जाना जाता है और 200 ईसा पूर्व और 200 ईस्वी के बीच में लिखा गया, को लिया जब चार वर्ण दर्जनों जातियों में बंटकर कई गुना हो गए। केतकर का तर्क था कि परिवर्तन अपरिहार्य था। इसे होना ही था। लेकिन उन्होंने स्वीकार किया कि यह निश्चित नहीं था कि इसे किस प्रकार से सामने लाया जा सकता था। “इतने जटिल और इतने ज्यादा संगठित समाज में प्रभावी परिवर्तन लाने के लिए एक अद्भुत शक्ति की आवश्यकता है, और यह कहां है?” उनका दावा था कि सवर्ण जातियों की व्यवस्था परिवर्तन में कोई रुचि नहीं थी, क्योंकि वह उनके लिए बहुत अच्छी तरह से काम कर रही थी। और इसलिए, “जब व्यक्ति बुराई को हटा नहीं सकते, तो इस कार्य को करना समुदाय या सरकार का कर्तव्य है।” चूंकि वे अपना कर्तव्य नहीं निभा रहे थे, वह (केतकर) लोगों के इस भ्रम को दूर करने के लिए कि जाति दैवीय रूप से निर्धारित है और इसके साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की जा सकती है, वह इतिहास की जानकारी पर निर्भर हो जाते हैं। लक्ष्य की प्रकट असंभावना से पूरी तरह सचेत होकर वह कहते हैं, “जाति को तोड़ने के पहले के कार्यकर्ताओं द्वारा किए गए सभी प्रयास असफल हो चुके थे, लेकिन यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि सभी संभव उपाय समाप्त हो चुके हैं…यह एक नाजुक क्षण है, जीवन और मरण का प्रश्न है, और इससे बचने का कोई रास्ता नहीं है।” केतकर का यह दृढ़ विश्वास था, जिसे उनके समकालीन जोतिबा फुले भी साझा करते थे, कि जाति व्यवस्था के अन्याय को दुरुस्त करने में सरकार को एक भूमिका निभानी थी, लेकिन यह तब वास्तविकता बनी जब देश आजाद हो गया। क्या केतकर और फुले को यह परिवर्तन होने की उम्मीद थी? कानूनी रूप से, हां। जमीनी स्तर पर, नहीं। असलियत में, ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार के हस्तक्षेप ने व्यक्तिगत कार्रवाई को बेमानी बना दिया। लोगों के दिमाग में जातिगत भेदभाव की समस्या निपटा दी गई है। आज जाति कहां है, यह बात लोग बड़ी ही लापरवाही से पूछते हैं। और फिर भी देशभर में घटित होने वाली सबसे बदतर जातिगत अत्याचारों की खबरें प्रतिदिन सामने आती हैं। अपने वार्षिक मेल-मिलाप के कार्यक्रमों और जाति-आधारित परियोजनाओं के साथ हमारे पास अभी भी उन्नतिशील जातीय संगठन हैं। लोग अभी भी अपनी जाति, यहां तक उप-जाति के भीतर ही विवाह करते हैं। जब इन सीमाओं को लांघा जाता है, तो ऑनर किलिंग (मान के नाम पर हत्या) होती है। जबकि ऊंची जातियां साथ मिलकर खाना खाती हैं, लेकिन ऊंची जातियों और निचली जातियों के बीच में अभी भी बहुत ही कम सामाजिकता है। रोटी-बेटी का संबंध कमोबेश वैसा ही है जैसा कि केतकर के समय में था। केतकर की यह उम्मीद कि परिवर्तन घटित होगा, अभी तक झूठ ही साबित हुआ है। लेकिन अपने समय में, केतकर तब भी उम्मीद रखते थे और निरंतर इसी विचार को आगे बढ़ाते रहे। जैसा कि वह कहते थे, जाति का अस्तित्व एक ऐसा कैंसर है, जिसे दूर करना ही होगा।
यह जानते हुए कि भारत में नस्ल और जाति का इतिहास संभवतः केवल साथी विद्वानों द्वारा ही पढ़ा गया था, तो केतकर निस्संदेह रूप से समस्या को दूसरे और अधिक सुलभ रूप में संबोधित करने के लिए विवश थे। ब्राह्मण कन्या इसका परिणाम था।
जीएच : जाति की समानता के लिए संभावित समाधान के बारे में बात करने वाले ऊंची जाति में पैदा हुए व्यक्ति की स्थिति भी जटिल है। क्या आप केतकर के समय में इस ‘सुधारवादी’ इरादे और कार्रवाई के लिए परिणामी योजना को एक संदर्भ में देखने में हमारी मदद करेंगी, विशेषकर राष्ट्रवाद के संदर्भ में?
एसजी : ब्राह्मण कन्या में केतकर का विशुद्ध रूप से तर्क है कि समाज के संगठनात्मक सिद्धांत के रूप में जाति के पदानुक्रम को यदि कोई बदल सकता है तो वह ब्राह्मण हैं, व्यवस्था के मूल रचियता और इसके सबसे अधिक लाभार्थी। केवल ब्राह्मणों के पास उस व्यवस्था के खिलाफ खड़े होने की सामाजिक शक्ति है, जिसे उनके प्राचीन पूर्वजों ने स्थापित किया था।
केतकर के समय में कार्रवाई की कोई ठोस योजना नहीं थी। बड़ी पहलकदमियां प्रार्थना और आर्य समाज की थी। उपन्यास में व्यवस्था के खिलाफ प्रतिरोध के रूप में इनकी जांच पड़ताल की गई है। फिर एक कल्पित पात्र वैजनाथ शास्त्री हैं (वह स्वयं केतकर हो सकते हैं), जो मनु स्मृति के प्रतिवाद में एक स्मृति लिखने का प्रयास करते हैं, लेकिन वह इसे पूरा कर पाते उससे पहले ही उनकी मृत्यु हो जाती है। उपन्यास के नायक अनुभव के आधार पर इस बोध पर पहुंचते हैं कि जाति व्यवस्था को निर्मूल करने के लिए एक समावेशी आंदोलन को भविष्य के लिए छोड़ देना चाहिए। इस बीच, केतकर के समय में यथास्थिति में जो परिवर्तन आ सकता था वह व्यक्तिगत कार्रवाई से ही आ सकता था। उपन्यास व्यक्तिगत कार्रवाई से शुरू होता है – अंतरजातीय, अंतरवर्गीय विवाह – जिसे इस भोली-भाली उम्मीद के साथ लिया गया कि यह एक उदाहरण के रूप में कार्य करेगा और ऐसा संभव था। हकीकत है कि जो कुछ वह कर रहे थे वह फलीभूत नहीं हुई, और एक आदर्शवादी के लिए एक झटके के रूप में सामने आती है। अब वह और उनके बच्चे उन संभावनाओं को तलाशते हैं जो व्यक्तिगत कार्रवाई से परे जाती हैं। उनमें से कोई भी उस जरूरत का जवाब नहीं देता जिसे वह बदलाव के लिए महसूस करते हैं। इस बोध के ग्रहण करने के साथ, वे पुनः व्यक्तिगत कार्रवाई की तरफ लौट आते हैं। यह उस वापसी की ओर लौटने का मामला नहीं जहां से वह शुरू करते हैं। यह सर्कल नहीं है, बल्कि चक्राकार का पहला मोड़ है। वे जो व्यक्तिगत विकल्प चुनते हैं, जो कि सामाजिक मानकों के खिलाफ जाते हैं, वे अब इस पूर्ण बोध से निर्मित हुए हैं कि शुरुआती कार्रवाई जिस भोली-भाली उम्मीद पर आधारित थी उनका समाज पर आमतौर पर बहुत कम या कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। उम्मीद यह है कि इस तरह की अधिकाधिक व्यक्तिगत कार्रवाइयां दीर्घकाल में सामाजिक मानकों में सेंध लगा सकती हैं। इस लिहाज से यह प्रगति है।
जीएच : केतकर के उपन्यास को एक क्लासिक कृति के रूप में प्रशंसा मिली है। यह अपने समय से आगे की रचना है। सही है कि जाति और जेंडर के अर्थों में अधिक समतावादी समाज का विमर्श बहुत साहसपूर्ण है; जिस तरह से उनके पात्र जोखिम उठाते हैं, उसी प्रकार केतकर ने भी जोखिम उठाया। लेकिन अपने ‘समय से आगे’ के बजाय क्या यह उनके अपने समय का बहुत कुछ नहीं है? क्या यह सामान्य तौर पर महिलाओं के अधिकारों, और विशेषरूप से महिलाओं की शिक्षा पर बहस का हिस्सा नहीं है, जो उस वक्त हिंदू सुधार के लिए बड़े आंदोलन में जारी थी?
एसजी : एक अर्थ में ब्राह्मण कन्या अपने समय की ही कृति है। लेकिन दूसरे महत्वपूर्ण अर्थ में कहा जा सकता है कि यह अपने समय से आगे की रचना है। उपन्यास अपने समय का है, क्योंकि जाति और स्त्री शिक्षा सहित जिन बहुत-से सामाजिक मुद्दों को सुधारवादी आंदोलन संबोधित कर रहा था, वे सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा थे और उसके केंद्र में भी थे। हालांकि, विमर्श पर शिक्षित और सशक्त ढंग से व्यक्त करने में सक्षम लोगों का प्रभुत्व था, जो अपनी कलम की ताकत का इस्तेमाल करते थे और सार्वजनिक मंचों के हकदार थे। लेकिन परिवर्तन के विरुद्ध रूढ़िवादी विश्वास की एक व्यापक अंतर्धारा भी थी, जो महत्वपूर्ण समय पर सामने आ जाती थी। हमने अपने समय में भी इसका पुनरुत्थान देखा है। तिलक अपने समय के थे और आज हमारे समय के भी बने हुए हैं। वह आज भी महाराष्ट्र में पूजनीय हैं। आगरकर को पूरी तरह से भुला दिया गया है। केतकर अपने समय के लोकप्रिय उपन्यासकार नहीं थे, क्योंकि वह धारा के विपरीत चले। वह अपने जीवन में भी रूढ़िवादिता के शिकार थे – वह इसलिए पीड़ित थे, क्योंकि उन्होंने एक जर्मन यहूदी लड़की के साथ विवाह का विकल्प चुना, जिसे पुणे के रूढ़िवादी नागरिक म्लेच्छ या व्रत्य मानते थे। उनके परिवार ने उनसे अपने संबंध तोड़ लिए थे।
रूढ़िवाद की अंतर्धारा स्वतः ही उस समय सामने आई जब ब्रितानवी सरकार ने भारत में वह किया जो वह आमतौर पर नहीं करती थी। उसने 1856 के हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम और 1891 के एज ऑफ कंसेन्ट अधिनियम (सम्मति आयु अधिनियम) जैसे कानूनों के माध्यम से हिंदू सामाजिक रीति-रिवाजों में हस्तक्षेप किया। जिन सुधारवादियों ने इन नए कानूनों का समर्थन किया था उनका हुक्का-पानी बंद कर दिया गया और उन्हें बहिष्कृत कर दिया गया। उनमें से कई लोगों ने अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में भयानक प्रभावों को भुगता। तब समय के साथ कौन थे? रूढ़िवादी, न कि सुधारवादी।
जीएच : केतकर व्यक्तिगत रूढ़िविरोधी कार्रवाई के मूल्य पर सवाल उठाते प्रतीत होते हैं – उदाहरण के लिए, एक ब्राह्मण जो सिद्धांत रूप में निचली जाति की महिला से विवाह करता है। व्यक्तिगत सुधारवादियों – हम उन्हें एक्टिविस्ट कहेंगे – की प्रेरणा को लेकर भी प्रश्न हैं, साथ ही साथ यह प्रश्न भी कि यदि वे कामगार वर्ग के कल्याण के लिए कार्य करते हैं तो वे किस तरह से मध्य वर्ग का जीवन जीते हैं। व्यक्तिगत स्तर पर भी और सांगठनिक स्तर पर भी, क्या एक्टिविज्म के संबंध में बहस में संतुलन की तलाश तनावपूर्ण प्रतीत होती है?
एसजी : केतकर व्यक्तिगत रूढ़िविरोधी कार्रवाई के मूल्य पर प्रश्न नहीं करते हैं। वह केवल इसका पुनर्मूल्यांकन करते हैं। उनके नायक को अपने कृत्य पर एक बार भी पछतावा नहीं होता, वह (नायक) महज यथार्थवादी दृष्टिकोण से इसकी समीक्षा करता है और सच्चाई को न देख पाने की अपनी अफलता पर पछताता है, एक ऐसा तथ्य जिसकी वजह से वह अपने बच्चों से दूर हो जाता है, लेकिन जब वह अपने बच्चों को वापस घर आने के लिए आमंत्रित करता है तब भी वह अपने सही होने पर जोर देता है। और यही उनके द्वारा किए गए रूढ़िविरोधी चयनों को शक्ति देता हैं और उम्मीद करते हैं कि उन मुद्दों को जाति के बारे में होने वाली बहस में शामिल किया जाएगा। उपन्यास में एकमात्र पात्र जो ‘मध्य वर्ग’ का जीवन जीते हुए मजदूर वर्ग के कल्याण के लिए कार्य करते हुए एक्टिविस्ट के वर्णन में स्टीक बैठता है, वह है रामराव। वह अपने कामकाजी और निजी जीवन के बीच में तनाव का कोई भाव नहीं दिखाता है और न ही उसे अभिव्यक्त करता है। बल्कि, उपन्यास में वह सबसे खुले दिमाग वाला और संतुलित पात्र है।
जीएच : मुझे लगता है कि एक अनुवादक के रूप में आप लेखकीय आवाज के साथ एक कड़ी तलाशती हैं। उदाहरण के लिए, आपने लक्ष्मीबाई तिलक की स्मृतिचित्र के अपने अनुवाद के विषय में कहा था कि आपने उनकी ‘सीधी-सादी’ भाषा और अपनी स्वयं की भाषा के बीच एक आत्मीयता पाई। आपने ब्राह्मण कन्या के पाठ्य के साथ; उसकी लेखकीय विश्व दृष्टि; और उसके कहन की शैली, के साथ किस तरह का संबंध स्थापित किया?
एसजी : मैंने ब्राह्मण कन्या को पहली बार साठ के दशक के उत्तरार्ध में पढ़ा था। और करीब एक दशक के बाद मुझे उसको फिर से पढ़ने की तीव्र इच्छा हुई। जिस बात ने मुझे इस उपन्यास को ओर आकर्षित किया, वह थी इसकी प्रमुख पात्र कालिंदी और उसकी बेने इजराइल [यहूदियों का एक समुदाय] मित्र एस्थर के बीच सहज और स्वाभाविक दोस्ती। यह साहित्यिक दुनिया में हवा के ताजा झोंके की तरह था, जिसने रूढ़िवादी हिंदू मध्य वर्ग को बहुत जोर से झटका दिया। मेरी एक बहुत ही करीबी मित्र बेने इजराइल समुदाय से थी, बेने इजराइल समुदाय का मराठी कथा-साहित्य में कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिलता। फिर अचानक मैंने एस्थर को खोज लिया।
उपन्यास को दूसरी बार पढ़ने के क्रम में, मैं केतकर की सीधी कथा कहने की शैली, और जिस आजादी से उन्होंने नए शब्द गढ़े, जो मेरे वक्त में बोलचाल की भाषा में प्रचलित हो चुके थे, से प्रभावित हुई। यह मेरे लिए राहत की बात थी कि उनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ मराठी के पांडित्य के साथ-साथ भावनात्मक अभिव्यक्त की अतिशय भावुक अस्पष्टता से मुक्त थी, एक ऐसी शैली जो पचास के दशक और साठ के दशक के शुरुआती वर्षों में कथा साहित्य पर हावी थी। यद्यपि, केतकर का संस्कृत का ज्ञान उनके द्वारा गढ़े गए शब्दों के माध्यम से स्पष्ट था, फिर भी वे एक आधुनिक भाषा के साथ सहजता से घुलमिल गए, जिनकी जड़ें यूरोपीय विचारों द्वारा निर्मित संवेदनशीलता में थीं। सबसे महत्वपूर्ण बात, ब्राह्मण कन्या ने कपड़ा मिलों की दुनिया और मालिकों एवं मजदूरों के बीच के संबंध को उजागर किया। हालांकि, मैं जिस शहर में रहती थी उसी शहर के एक बड़े इलाके में कपड़ा मजदूर रहते थे, और वही मजदूर एक बार फिर से मराठी साहित्य में अनुपस्थित था। एकमात्र अपवाद नाटककार बी.वी. वरेरकर का उपन्यास था जो उसी वर्ष प्रकाशित हुआ था जिस वर्ष ब्राह्मण कन्या प्रकाशित हुआ – वरेरकर का उपन्यास मिल मालिकों और मिल कामगारों के बीच के संबंधों पर केंद्रित था। उस उपन्यास को उस समय बहुत ज्यादा नहीं पढ़ा गया, और उसके बाद उसे भुला दिया गया। लेकिन वरेरकर ने बाद में उपन्यास पर आधारित एक नाटक लिखा जो विशेष रूप से इसलिए ठीक-ठाक चला, क्योंकि वह केतकर के उपन्यास के जैसी दृढ़ता के साथ सच्चाई का सामना नहीं करता, और अपने उपसंहार की सरल भावुकता में दर्शकों की रूचि के अनुरूप ढल जाता है।
मेरे पहले उपन्यास रीता वेलिणकर के प्रकाशित होने के बाद कुछ समालोचकों ने यह अवलोकन किया कि इसमें ब्राह्मण कन्या की छाया है। मैंने यह महसूस नहीं किया था, लेकिन जब यह इंगित किया गया, तो मैंने देखा कि यह अवलोकन कितना सही था और मैंने केतकर के उपन्यास की कितनी गहराई से प्रतिक्रिया दी थी।
अंग्रेजी में यहाँ पढ़े।
अनुवाद : कृष्ण सिंह