फिलस्तीनी वकील और लेखक राजा शहादे मानवाधिकार संगठन अल-हक के संस्थापक हैं। यह संगठन अंतरराष्ट्रीय न्यायविद् समिति से संबद्ध है। कानून के मसलों पर लिखने के अलावा उन्होंने कई अन्य विषयों पर भी पुस्तकें लिखी हैं। उनकी क़िताब पैलिस्टिनिअन वॉक्स : नोट्स ऑन अ वैनिशिंग लैंडस्केप को 2008 में ऑर्वेल पुरस्कार मिला। उनकी महत्वपूर्ण पुस्तकों में शामिल हैं – स्ट्रैनजर्स इन द हाउस, ह्वेन द बर्ड्स स्टॉप्ड सिंगिंग : लाइफ इन रामल्लाह अंडर सीज, और ह्वेर द लाइन इन ड्रॉन : क्रॉसिंग बाउंडरिज इन ऑक्यूपाइड पैलिस्टाइन। उनके बहुत ही प्रशंसित लेखन कार्य में फिलस्तीन पर इज़राइली कब्जे पर तीक्ष्ण टिप्पणियां शामिल हैं। जिसमें वह लोगों का अपने घरों से बेदख़ल होना और फिलस्तीनी लोग जिस प्रकार हर रोज अपनी ही भूमि में भेदभाव, हिंसा और नस्लीय नीतियों का अनुभव कर रहे हैं उसको बहुत ही मार्मिक अंतर्दृष्टि के साथ सामने रखते हैं।
अपनी नई पुस्तक वी कुड हैव बीन फ्रेंड्स, माई फादर एंड आई : अ पैलिस्टिनिअन मेमॉयर (प्रोफाइल बुक्स, 2022) में शहादे एक बार पुनः निजी और राजनीतिक इतिहास को एक साथ लाते हैं। वह अपने पिता के साथ अपने संबंधों की बहुत ही गहरी संवेदना के साथ पड़ताल करते हैं – एक ऐसा संबंध जिसे कब्जे वाले फिलस्तीन में मानवाधिकारों के लिए संघर्ष के संदर्भ में आवश्यक रूप से याद किया जाता है।
शहादे के पिता अज़ीज़ शहादे एक वकील, एक्टिविस्ट और राजनीतिक बंदी थे। वह ब्रिटिश मैंडेटरी पीरियड को लेकर, फिर जॉर्डन के तहत फिलस्तीन के मामले में और आखिर में इज़राइल के तहत फिलस्तीन के मसले में अपने प्रतिरोध को लेकर काफी मुखर थे। एक युवा व्यक्ति के रूप में राजा शहादे अपने पिता के साहस को पहचानने में विफल रहते हैं और वहीं दूसरी तरफ उनके पिता फिलस्तीनियों के मानवाधिकारों के लिए अभियान चलाने हेतु राजा के प्रयासों की सराहना नहीं करते। जब 1985 में अज़ीज़ शहादे की हत्या कर दी गई, तो यह घटना राजा शहादे को अटल रूप से बदल देती है। वी कुड हैव बीन फ्रेंड्स, माई फादर एंड आई पुस्तक में पिता और पुत्र का यह रिश्ता फिलस्तीनियों पर कब्जे की दुखद जटिलताओं के साथ-साथ उम्मीद के लिए एक जरूरी संघर्ष की रूपरेखा तैयार करता है।
लेखिका गीता हरिहरन के साथ इस बातचीत में राजा शहादे अपने पिता के जीवन और एक एक्टिविस्ट के बतौर उनकी सक्रियता तथा स्वयं अपने जीवन के बीच में समानता पर रौशनी डालते हैं। वह कभी भी उम्मीद नहीं छोड़ने या फिलस्तीनी अधिकारों के लिए निरंतर संघर्ष के महत्व पर भी पुरजोर ढंग से जोर देते हैं। वह कहते हैं कि नकबा की स्वीकृति और मान्यता – वह ‘तबाही’ जो 1948 में हुई थी जब फिलस्तीनियों को जबरन उनकी ही मातृभूमि से बाहर कर दिया गया था, फिलस्तीन के लिए न्याय के केंद्र में है।
गीता हरिहरन (जीएच) : पूरी किताब के दौरान हमें यह बोध होता है कि हम एक विरासत को देख रहे हैं। यहां पिता-पुत्र के संबंध का एक स्पष्ट पहलू है : वे (नैतिक, सामाजिक और व्यक्तिगत) मूल्य जैसे कि मेहनत और दृढ़ निश्चय जो आपके पिता से आपको मिले हैं। पुस्तक का शीर्षक वी कुड हैव बीन फ्रेंड्स, माई फादर एंड आई, संकेत देता है कि इसमें संबंधों में दूरियां भी रही हैं। लेकिन मैं इस प्रश्न को और विस्तार देती हूं, क्योंकि विरासत कहीं अधिक जटिल मसला है। जैसा कि किताब में है, हम इस विरासत को परत-दर-परत उघाड़ सकते हैं। अब उस ‘भोलेपन’ (इनअसंस) से शुरुआत करते हैं जो आपके पिता और आप, दोनों ही अलग-अलग समय पर दर्शाते रहे हैं कि किसी-न-किसी रूप में कानून का शासन जीवित रहेगा। फिर, हर मोड़ पर यह पाते हैं कि यह सच नहीं हैं, उम्मीद के लिए संघर्ष।
राजा शहादे (आरएस) : मेरे पिता की विरासत को सामने लाने की इच्छा से कहीं अधिक यह बहुत सारी भावनाओं और घटनाओं का एक मिलन था जिसने इस किताब को लिखने की प्रेरणा दी। हाल में मुझे यह यक़ीन हो गया था कि फिलस्तीनियों के वापसी के अधिकार की स्वीकृति इजराइलियों और फिलस्तीनियों के बीच में किसी भी प्रकार की शांति की स्थापना के लिए महत्वपूर्ण है। मैं इसे अपने लेखन में उजागर करना चाहता था, लेकिन यह तय नहीं कर पा रहा था कि इसे शुरू कैसे किया जाए।
फिर ऐसा हुआ कि मेरे एक मित्र जाफ़ा/तेल अवीव की टेलीफोन डायरेक्टरी की एक प्रति मेरे लिए लाए, यह टेलीफोन डायरेक्टरी फ़िलस्तीन के ऊपर बिट्रिश मैनडेट की अवधि की थी। उसमें मैंने अपने नाना जज सलीम शहादे और मेरे पिता अज़ीज़ शहादे के नाम देखे। मैंने उसे एक सामान्य दस्तावेज के एक टुकड़े के रूप में ही देखा और सोचा कि मेरे माता-पिता और नाना-नानी जाफ़ा में रहते थे। वह एक वास्तविक जगह थी और अब वहां जीवन को नकार दिया गया है। मैं तब समझता था कि मुझे इसके बारे में लिखना चाहिए – उस जीवन को जगाने के लिए। उसी वक़्त में मेरे एक और मित्र जो लंदन में ब्रिटिश म्यूजियम में काम करते थे, मेरे लिए वहां पास के एक बुक स्टोर से एक पुस्तिका लाए, जिसे मेरे पिता ने “द एबीसी ऑफ द अरब केस इन पैलिस्टाइन” शीर्षक से 1936 में लिखा था। जब मैंने उसे पढ़ा, तो मैं चकित रह गया कि यह कितनी स्पष्ट और सार्थक तर्कसंगत पुस्तिका है। वह किसी व्यापक चीज का दिख रहा एक बहुत ही छोटा-सा हिस्सा था। लेकिन उस पुस्तिका ने मुझे अपने पिता के काग़ज़ातों को खंगालने के लिए प्रोत्साहित किया – मैंने अपने दफ्तर में उन काग़ज़ातों को बिना पढ़े ही दराज़ों में ढेर करके रखा था।
इन काग़ज़ातों में मुझे उन मामलों के बारे में जानकारी का खजाना मिला, जिन मामलों पर मेरे पिता ने एक वकील और एक एक्टिविस्ट के रूप में अपने लंबे करियर के दौरान काम किया था – इस सूचना के बारे में मुझे महसूस हुआ कि इन सब जानकारियों से लोग वाकिफ नहीं थे। इन फाइलों में से एक फाइल फिलस्तीनी शरणार्थियों की अपने पहले वाले घरों में लौटने के अथक प्रयासों से संबंधित थी, जो कि 1948 के बाद इजराइल बन गया। मैंने इस कहानी को लिखना शुरू किया। फिर भी, इस पुस्तक में जो सबसे पहले लिखा जाना था वह था मेरे माता-पिता का उस जाफ़ा में बिताया गया जीवन जिसे वह जानते थे और जहां से उन्हें यहूदी सेना ने अप्रैल, 1948 में जबरन निष्कासित कर दिया था, यानी उसका विवरण। केवल इसी तरीके से पाठकों द्वारा उस त्रासदी के पैमाने को समझा जा सकता था। इस कहानी और अन्य कहानियों को बताने के क्रम में इस या उसको कहीं अधिक महत्व देना एक दूसरी बात थी, जिसे मैंने पूरी पुस्तक के दौरान तलाशने की कोशिश की : ऐसा क्यों था कि जब मेरे पिता ने जॉर्डन से निर्वासन को झेला था, या कारावास भुगता था, या अपने जीवन के कई सारे मौकों पर हताशा को झेला था, मैं उनसे दूर ही रहा और कभी भी उनके नजदीक जाने की कोशिश नहीं की और न ही उनसे अपने अनुभवों का वर्णन करने के लिए कहा? हम दोनों के बीच उस तनाव का स्रोत और उसका कारण पुस्तक में एक महत्वपूर्ण विषय बन गया जो मेरे पिता के लिए मेरे द्वारा प्रेम पूर्वक लिखे गए पत्र के साथ समाप्त हुआ।
जीएच : क्या आप कहेंगे कि कब्जे और प्रतिरोध की व्यापक विरासत को आपके पिता के वक़्त से लेकर आपके समय तक परिवर्तन के साथ-साथ निरंतरता द्वारा भी चिन्हित किया गया है?
आर.एस. : वी कुड हैव बीन फ्रेंड्स, माई फादर एंड आई और इसके विभिन्न अध्यायों के लिखने के क्रम में मैंने अपनी कल्पना की जो कसरत की, तो मुझे अपने पिता के अनुभव और अपने अनुभव के बीच में घनिष्ठ समानता का एहसास हुआ। मैं पहले इससे वाक़िफ़ नहीं था। मैंडेट फिलस्तीन का हिस्सा रहे पश्चिमी तट (वेस्ट बैंक) पर जॉर्डन द्वारा कब्जा करने को लेकर मेरे पिता का अनुभव किस तरह का था और इसके परिणामस्वरूप उस जगह के परिदृश्य और जीवन में हुए परिवर्तनों के बारे में लिखते हुए मुझे यह महसूस हुआ कि यहूदी बस्तियों के निर्माण के माध्यम से 1967 के युद्ध के बाद इजराइल में पश्चिमी तट के परिवर्तन को देखने का मेरा अनुभव मेरे पिता के अनुभव से अलग नहीं था। मैंने यह भी महसूस किया कि जिस तरह से वह यह विश्वास नहीं कर सके थे कि अब वे फ़िलस्तनीन में अपने पहले के घरों में नहीं लौट पाएंगे, मैं भी यह विश्वास नहीं कर सका कि इजराइल हमारे क्षेत्र को बदलने में और उस पर इजराइल का वास्तव में कब्जा हासिल करने में सफल हो जाएगा। और जैसे उन्होंने उन तरीकों का प्रतिरोध करने के लिए कानून का इस्तेमाल करते हुए उसमें अपनी सारी ऊर्जा खफा दी थी, मैंने भी वैसा ही किया।
जीएच : अगर हम पहले के संघर्ष के अधिकांश हिस्से का एक ‘असफल कार्रवाई’ के रूप में वर्णन करते हैं, हालांकि वह बहुत ही साहसपूर्ण थी, तो क्या आप हमारे अपने समय में स्वतंत्रता और न्याय के लिए संघर्ष को मजबूत करने के इस इतिहास की अहमियत पर टिप्पणी करना चाहेंगे?
आरएस : यह कहा जा सकता है कि हम दोनों ही अपने तात्कालिक लक्ष्य को हासिल करने में असफल रहे : मेरे पिता की शरणार्थियों की वापसी के मामले में और मेरी ज्यादा बस्तियों के निर्माण को रोकने में असफलता के बारे में। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमने इस यूं ही नहीं होने दिया, बल्कि बहुत गंभीर संघर्ष किया। मैंने इस पुस्तक में अपने पिता के संघर्ष का दस्तावेजीकरण करने की कोशिश की है। भागवत गीता में श्रीकृष्ण की अर्जुन को दी गई सलाह की बुद्धिमता से मैं हमेशा ही प्रभावित रहा हूं, जिसमें वह अर्जुन से कहते हैं, “आपके कर्मों (कार्यों) पर आपका अधिकार है/आपके कर्मों के फलों पर कदापि नहीं/ अपना फर्ज निभाते हुए कर्म करो/ और अकर्मण्यता से न जुड़ो।” हो सकता है कि मेरे पिता की गतिविधियों और मेरी गतिविधियों के पीछे भी यही प्रेरक शक्ति रही हो। वे ताकतें जो आज दुर्जेय लग सकती हैं, उन ताकतों के खिलाफ आज जो लोग संघर्ष कर रहे हैं उनके लिए इसे याद रखना और इसे कभी भी नहीं छोड़ना महत्वपूर्ण है। अन्य बहुत-से लोग आएंगे और जब तक लक्ष्य हासिल नहीं हो जाता तब तक विगत के संघर्षों पर नया संघर्ष निर्मित करेंगे। आजादी और न्याय को छोड़ना असल में उस तत्व को छोड़ना है जो हमें मनुष्य बनाए रखता है।
जीएच : एक प्रश्न जो शायद सामान्य सा प्रतीत हो : ‘फिलस्तीन के लिए स्वतंत्रता और न्याय’ के संबंध में आपका विचार क्या है?
आरएस : फिलस्तीन के मामले में नकबा की स्वीकृति फिलस्तीन के लिए स्वतंत्रता और न्याय के केंद्र में है। इज़राइल के एक जाने-माने लेखक ने लिखा है कि 1948 में इज़राइल की सफलता एक चमत्कार से कम नहीं थी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं था। यहूदी सेना और अरब सेनाओं के लिए उपलब्ध साधनों में असमानता ने यह सुनिश्चित कर दिया था कि यहूदी सेना जीतेगी। इज़राइल की सफलता का वास्तविक चमत्कार यह नकारने में है कि फिलस्तीन में फिलस्तीनी राष्ट्र रहता था जिसे वे पूरी तरह से मिटाने में सफल रहे। 75 वर्षों के बाद और फोटोग्राफिक सबूतों के खजाने तथा फिलस्तीनियों की अनगिनत यादों के बावजूद वे लगातार इससे बचते रहे हैं। वे लगातार फिलस्तीनी नकबा को नकारते रहे हैं।
जीएच : वक़्त के इस दौर में आपकी पुस्तक बहुत ही सशक्त रूप से प्रतिध्वनित होती है। नकबा और उसका जो प्रकटीकरण चल रहा है उसके विरुद्ध आपने दो पीढ़ियों के फिलस्तीनी वकीलों के संघर्ष को लिखा है। नेतन्याहू सरकार का न्यायिक ‘सुधार’ लाने के प्रयास के रूप में इस पाठ को पढ़ना हमें सचेत करता है कि स्थिति कितनी विकट है, न केवल ‘कानून के राज’ के अर्थों में, बल्कि वास्तव में कानून के स्वयं के विचार के मायने में भी, या कानूनी नीति के अर्थ में; न्याय के अर्थ में भी।
आरएस : नेतन्याहू के नेतृत्व वाली इज़राइल में दक्षिणपंथी अधिवासी (सेटलर) सरकार के खिलाफ प्रदर्शनकारी यह समझने नाकामयाब रहे हैं कि कानून के शासन का उल्लंघन और उसे किसी प्रकार की धमकी देने से उन उपायों के साथ कोई शुरुआत नहीं होगी जिन्हें इज़राइली सरकार शुरू करने का प्रस्ताव रख रही है। वे चार दशकों से भी अधिक समय से चल रहे हैं, तब से जब हथिया लिए गए क्षेत्रों में यहूदी अधिवासियों ने इज़राइली सेना की मदद से फिलस्तीनियों के खिलाफ अत्याचारों को अंजाम दिया था – उनकी (फिलस्तीनियों की) जमीन पर कब्जा कर लेना और उनके अधिकारों का उल्लंघन करना और इसके साथ ही साथ उन पर और उनकी संपत्तियों पर हमला करना। इस संबंध में व्यापक रिपोर्टिंग के बावजूद इज़राइल में कानून को लागू करने वाली संस्थाओं ने इन उल्लंघनों की जांच करने और अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई करने से इनकार कर दिया। फिलस्तीनियों के खिलाफ शर्मनाक कार्य-कलापों ने इज़राइल की राजनीतिक व्यवस्था को संक्रमित किया है और इस तरह के शर्मनाक कार्य-कलाप वर्तमान दक्षिणपंथी सरकार के तहत जारी रहेंगे।
मेरे पिता जिस बात पर विश्वास करते थे और लगातार जिसकी वकालत करते थे उस बात का जिक्र करते हुए मैंने अपनी पुस्तक को समाप्त किया : सच्ची जीत तब होती है जब हम दोनों ही जीत जाते हैं।
कृष्ण सिंह द्वारा हिंदी में अनुवादित। अंग्रेज़ी में यहाँ पढ़ें।