अ मोस्ट नोबल लाइफ : द बायोग्राफी ऑफ अशरफुन्निसा बेगम (1840-1903) बाई मोहम्मदी बेगम (1877-1908) (ओरिएंट ब्लैकस्वान, 2022), हयात-ए-अशरफ (1904) का उर्दू से अंग्रेज़ी में किया गया संपूर्ण अनुवाद है। यह अशरफुन्निसा बेगम की असाधारण कहानी है। वह उत्तर प्रदेश के बिजनौर में पैदा हुई थीं। उन्होंने अपने बुजुर्गों की इच्छा और उस वक़्त मौजूद नियम-कायदों के खिलाफ जाकर गुपचुप तौर पर खुद ही पढ़ना-लिखना सीखा। वह लाहौर में लड़कियों के लिए बने पहले स्कूल विक्टोरिया गर्ल्स स्कूल में पढ़ाने गईं और उन्होंने युवा लड़कियों की पीढ़ियों को प्रेरित किया। उनके असाधारण जीवन के बारे में मोहम्मदी बेगम ने बहुत मार्मिकता से लिखा है। मोहम्मदी बेगम पहली महिला थीं जिन्होंने उर्दू के साप्ताहिक पत्र तहज़ीब-ए-निस्वान का संपादन किया था। मोहम्मदी बेगम कथा-साहित्य और कविता, दोनों की ही सफल लेखिका थीं। अपने छोटे से जीवन काल में उन्होंने बड़ों और बच्चों, दोनों के लिए लिखा और महिलाओं के लिए मार्गदर्शक संबंधी किताबें भी लिखीं। उन्होंने जीवनी हयात-ए-अशरफ को उपयुक्त शीर्षक दिया : यह उनके विषय के नाम को प्रतिध्वनित करता है, लेकिन इसका अर्थ ‘महान उत्कृष्ट जीवन’ भी है। वास्तव में, प्रोफेसर नईम कहते हैं कि यह जीवनीकार और विषय, दोनों को ही ‘महान उत्कृष्ट जीवन’ के रूप में परिभाषित करता है।
दोनों महिलाएं संयोग से एक शादी में मिलीं और उनकी यह मुलाकात जल्द ही एक प्रगाढ़ संबंध में तब्दील हो गई जो फिर जीवनभर के जुड़ाव में बदल गई। मोहम्मदी बेगम, जिनकी मां बचपन में ही गुजर गई थीं, ने अशरफुन्निसा बेगम में न केवल अपनी मां को देखा, बल्कि उन्हें एक प्रेरणादायी रोल मॉडल के रूप में भी देखा। अशरफुन्निसा ने स्वयं के बनाए सिद्धांत से भरा हुआ जीवन जिया और गंभीर बाधाओं के खिलाफ अद्भुत शालीनता और शक्ति का परिचय दिया।
उर्दू साहित्य और संस्कृति के प्रख्यात विद्वान सी.एम.नईम पाठ और टिप्पणियों, टीकाओं तथा व्याख्याओं से सज्जित इस जीवनी के बारे में इसकी लेखिका मोहम्मदी बेगम के कार्यों और जीवन के बारे में पहला विस्तृत अध्ययन सामने रखते हैं। और आख़िर में वह उस समय के दो प्रमुख सामाजिक मुद्दों, जो आज भी प्रासंगिक हैं, महिलाओं की साक्षरता और विधवा पुनर्विवाह पर रौशनी डालते हैं।
लेखिका गीता हरिहरन के साथ बातचीत में सी.एम.नईम मोहम्मदी बेगम और अशरफुन्निसा के जीवन और उनके वक्त तथा उनके कार्यों और दोनों के बीच में बनी अनूठी दोस्ती के बारे में बताते हैं।
गीता हरिहरन (जी.एच.) : मैं इस बातचीत की शुरुआत में उन चीजों के बारे में आपकी टिप्पणी चाहूंगी जो मोहम्मदी बेगम द्वारा लिखी गई अशरफुन्निसा की जीवनी में उन्नीसवीं सदी और संभवतः बीसवीं सदी की मुस्लिम महिलाओं की खामोश और पृथकता (एकाकीपन) से भरी उदास छवि को तितर-बितर करती हैं।
सी.एम.नईम (सी.एम.एन.) : समस्या जैसा कि मैं देखता हूं, वह इसमें है कि हम इन दावों को ‘सम्रगता’ और ‘अनन्यता’ (मात्र किसी वर्ग विशेष तक सीमित होने) की इजाज़त देते हैं। उन्नीसवीं सदी में मुसलमान पुरुष भी उतनी बड़ी संख्या में पढ़े-लिखे नहीं थे, जितनी बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलाएं अलग-थलग नहीं थीं, या फिर समान वर्ग, व्यवसाय या धर्म की गैर-मुस्लिम महिलाओं के मुकाबले कोई बहुत ज्यादा अलग-थलग नहीं थीं। मुस्लिम जुलाहों, नाइयों और खाने की चीजों को बेचने का काम करने वालों की पत्नियों ने पुरुषों के साथ काम करते हुए भले ही अपने चेहरों को ढक कर रखा हो, लेकिन वे बिल्कुल भी अलग-थलग नहीं थीं, जैसा कि हम उच्च वर्ग की महिलाओं को लेकर सोचते हैं। फिर हम बीबी अशरफ की जिंदगी में फर्क को देखते हैं। उनका परिवार शिया था; घर की औरतें हर हफ्ते मजलिस किया करती थीं, जिसमें वह धार्मिक किताबों से पाठ पढ़ती थीं। जब वह आठ वर्ष की थीं, तो उन्होंने अपनी मां को खो दिया था; वरना वह भी परिवार में अन्य लड़कियों की तरह लिखना और पढ़ना सीख पातीं। हम यह भी देखते हैं कि एक युवा मुस्लिम विधवा, एक पठान, ने कुरान की शिक्षिका के रूप में परिवार के साथ काम किया।
जी.एच. : मैंने अ मोस्ट नोबल लाइफ को दो महिलाओं की जिंदगी में एक आकर्षक प्रवेश बिंदु की तरह पाया, मैं इसके बारे और ज्यादा जानना चाहती हूं। बल्कि उनके समय और कार्य के संदर्भ के बारे में जानने में भी मेरी रुचि अधिक है। अशरफुन्निसा का विवरण, कि किस तरह से उन्होंने पढ़ना और लिखना सीखा, वह इस किताब का दिल को छू लेने वाला हिस्सा है। वह किस तरह से पढ़ना सीखीं, इसमें उन्हें बहुत-सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, लेकिन लिखना सीखने के लिए उन्हें जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ा था वे और भी ज्यादा कठिन थीं। मैं यह जानने के लिए बहुत उत्सुक हूं। क्या यह निष्कर्ष निकालना दूर की कौड़ी है कि महिला जो एक लेखन प्रस्तुत करती है, वह पितृसत्तात्मक व्यवस्था के लिए एक ज्यादा बड़ा खतरा है, क्योंकि अब वह मात्र एक ऐसा शरीर (या दिमाग) नहीं है जिस पर कि छाप छोड़ी जाए, बजाय इसके अब वह स्वयं के ‘लेखन’ की ताकत रखती है?
सी.एम.एन. : यहां हठधर्मी दादा और चाचा मुख्य रोड़ा हैं। परिवार में दादा सबसे ज्यादा अधिकार रखते हैं और चाचा की घर में महिलाओं की जिंदगी में हर समय बहुत अधिक मौजूदगी रहती है। दादा सैद्धांतिक रूप से महिलाओं के पढ़ने-लिखने के खिलाफ नहीं हैं। वह स्वेच्छा से इसकी इजाज़त तब तक देते हैं कि जब तक विधवा महिला अध्यापिका की दोबारा शादी न हो जाए। उनकी नजर में यह लिखने-पढ़ने से भी ज्यादा बड़ा ‘गुनाह’ है। लेकिन वह अपने ही बेटे, बीबी अशरफ के पिता, के द्वारा वकालत का पेशा अपनाने के लिए ग्वालियर चले जाने को अपने सम्मान के लिए भी उतना ही बड़ा खतरा मानते हैं। परिवार का लेखन के प्रति रवैया जटिल है। उनके दादा ने परिवार में कुछ लड़कियों का अपनी मांओं से लिखना सीखने को बर्दाश्त किया; उनके अब्बा को इस बात की खुशी हुई जब उन्हें पता चला कि बीबी अशरफ अच्छी तरह से पढ़ और लिख सकती हैं; लेकिन उनके चाचा का रवैया अधिक उग्र और दंडात्मक हो गया। मुझे लगता है कि उच्च वर्गों में, जहां पृथकता को बहुत करीब से देखा जाता था, वहां लेखन को एक ऐसे औचार के रूप में देखा जाता था जो कि महिलाओं के लिए उस अलग-थलग स्थिति को तोड़कर उससे बाहर निकलना संभव कर सकता था। हमें यह नहीं मानना चाहिए कि लेखन को उस वक़्त शिक्षा का अभिन्न तत्व माना जाता था। बहुसंख्य पुरुषों और महिलाओं के लिए आवश्यक या अपेक्षित ज्ञान का प्रसारण मौखिक रूप से किया जा सकता था या वास्तव में, विवादास्पद रूप से, समाज उस वक्त यही विश्वास करता था।
जी.एच. : दोनों महिलाओं ने जिस तरह से अनेक विधाओं का इस्तेमाल किया उससे मैं चकित हूं – कविता, निबंध, जीवनी, उपन्यास, बच्चों के लिए कहानियां, ‘निर्देश’ पुस्तिकाएं। क्या उस दौर में यह ‘शिक्षित’ लोगों की विशेषता थी, या फिर पाठकों के एक वर्ग के लिए उपयोगी होने की आवश्यकता से प्रेरित था? और क्या आप यह कहेंगे कि महिलाओं के मामले में, या कम-से-कम इन दो महिलाओं के मामले में, आत्मकथात्मक तत्व उन सभी विधाओं से संबंधित हैं जिनका वह इस्तेमाल करती हैं?
सी.एम.एन. : यह बहुत ही मजेदार सवाल है, और मेरे पास इसका कोई स्पष्ट जवाब नहीं है। मैं कुछ भरोसे के साथ दृढ़तापूर्वक केवल यह कह सकता हूं कि बीसवीं सदी से पहले अधिकांश गद्य लेखन में पद्य भी होता था। बहुत बार, ये पाठ के लेखक द्वारा लिखे गए मौलिक पद्य थे, इसके साथ-साथ सुप्रसिद्ध या अज्ञात कवियों द्वारा लिखे पद्य को उद्धृत किया जाता था। उद्देश्य अधिक अविस्मरणीय रूप में पुनरावृत्ति द्वारा एक विचार पर जोर देना रहा हो सकता है, या जो विचार बनाया जा रहा है उसमें विगत की अथॉरिटी को जोड़ना रहा हो सकता है। उदाहरण के लिए, कहावतों/लोकोत्तियों के इस्तेमाल द्वारा भी यह किया गया। सुधारवादी उपन्यासकार नज़ीर अहमद एक महान पद्यकार और जन वक्ता थे। वह जिन आयोजककर्ताओं का समर्थन करते थे उनके द्वारा आयोजित वार्षिक अधिवेशनों में नज़ीर अहमद के भाषण और लंबी कविताएं बहुत ज्यादा लोकप्रिय थीं। इसलिए, उन दिनों में जो पढ़ना सीखता था तो उसका सामना पहले दिन से ही कविता से होता था। और यदि आपके भीतर रचनात्मक उमंग होती थी, तो आपको स्वयं को पद्य के साथ-साथ वाक्यों के रूप में लिखने के लिए भी तैयार करना होता था। मोहम्मदी बेगम के मामले में, वह वास्तव में दूसरी स्त्रियों – उनकी बहनें – विशेषकर उनकी समाकालीन यानी युवा विवाहित स्त्रियों और लड़कियों के लिए उपयोगी होने के दृढ़ आग्रह से प्रेरित थीं, और उन्होंने अनेक विधाओं में लिखा।
जी.एच. : चूंकि, दोनों स्त्रियों की जिंदगियों और कार्य के संदर्भ में महिलाओं की शिक्षा बहुत ही अहम है, लेखन एक तरफ रचनात्मक और स्वयं की अभिव्यक्ति के बीच संतुलन का काम करता है और दूसरी तरफ उपदेशात्मक (प्रबोधक) का भी कार्य करता है। इस तरह का उपदेशात्मक कथा-साहित्य – या ‘मार्गदर्शक पुस्तकें’ – जब पुरुषों द्वारा लिखा जाता है (जैसे कि नजीर अहमद द्वारा, जिनके कार्य में महिलाओं की शिक्षा के साथ-साथ आचरण भी शामिल था) और जब अशरफुन्निसा और मोहम्मदी बेगम जैसी महिलाओं द्वारा लिखा जाता है, तो दोनों में किस हद तक अंतर होता है? मेरे मित्र, लेखक और साहित्यिक आलोचक आमिर हुसैन लिखते हैं कि, “मोहम्मदी बेगम, नजीर अहमद द्वारा सुझाए गए सुधारों पर लगाव और अंतर्दृष्टि के साथ पुनः कार्य करती हैं और संशोधन करती हैं।” महिलाएं, विशेषकर मोहम्मदी, एक लेखक, पत्रकार, शिक्षिका और प्रकाशक के रूप में किस तरह से इस प्रोजेक्ट को आगे ले जाती हैं?
सी.एम.एन. : जिस पर आज हम ‘उपदेशात्मक कथा-साहित्य’ का लेबल चस्पा करते हैं, उसे उसके लेखकों ने मात्र उपदेशात्मक नहीं माना था; इससे उनका तात्पर्य मनोरंजन करना भी था। यह खेल-खेल में काम की बातें करने की तरह रहा होगा। लेखकों ने इन्हें महज़ उपन्यास कहा था। और यह महिला लेखकों और पाठकों पर भी लागू होता है, जब तक कि उन्होंने अंग्रेजी सीखना शुरू नहीं किया।
जहां तक आपका मूल प्रश्न है, मैं अपनी प्रतिक्रिया को बढ़ा-चढ़ाकर इसका बेहतर उत्तर दे सकता हूं। नजीर अहमद और हाली तथा अन्य सुधारवादी पुरुष चाहते थे कि महिलाएं शिक्षित हों, ताकि वे अपने बच्चों के लिए अच्छी मां बन सकें और अपने घरों का बेहतर तरीके से प्रबंधन कर सकें। बीबी अशरफ और मोहम्मदी बेगम इन लक्ष्यों को तो महत्व देती ही हैं, लेकिन वे मानसिक और आध्यात्मिक आत्म-सुधार के तरीकों के रूप में भी शिक्षा को महत्व देती हैं। यहां तक कि बेहतर तरीके से स्वयं को अभिव्यक्त करने के लिए भी। लेकिन मोहम्मदी बेगम के साथ सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वह एक तरह की समानता और अपने साथियों के बीच बहनापे पर जोर देती थीं। उनकी यह अभिलाषा थी कि महिलाएं अपने परिवार से बाहर भी, और यहां तक कि अपने खुद के घर की दहलीज से पार जाकर भी निपुण बनें। उस हद तक कि वह एक उच्च-वर्ग की महिला की आकांक्षा से भी अधिक हो सके। लेकिन यह, यह भी सुझाता है कि उनके लिए महिला साक्षरता एक उतना ही बड़ा वरदान थी, जितना वास्तव में वह उस समय के वेतनभोगी मध्य-वर्ग के लिए थी।
जी.एच. : यह स्पष्ट है कि मर्यादा का एक ढांचा है जिसके भीतर इन दो महिलाओं, और उनकी जैसी दूसरी महिलाओं को कुछ लाभ हासिल करने के लिए काम करना पड़ता है। इसको ध्यान में रखते हुए, क्या मैं आपसे ‘हयात’ शब्द के अर्थ को हमारे लिए खुलकर बताने के लिए कह सकती हूं? जीवनी को ‘हयात-ए-अशरफ’ नाम दिया गया और आपने उसका ‘अ मोस्ट नोबल लाइफ’ के रूप में अंग्रेजी में अनुवाद किया है। हम जैसे लोग जो उर्दू नहीं जानते हैं उनके लिए जब मैं आपसे ‘हयात’ शब्द की व्याख्या करने को कह रही हूं तो मैं अंग्रेजी में ‘रीस्पेक्टबल’ और ‘नोबल’ के बीच के अंतर के बारे में सोच रही हूं।
सी.एम. एन. : हयात शब्द के बारे में खुलकर बताने के लिए उन्नीसवीं सदी में मोहम्मदी बेगम या एक उर्दू लेखक के लिए ‘जीवन’ के क्या मायने थे, उसको समझाने की आवश्यकता होगी – यह एक कठिन काम है। मैं केवल इतना कह सकता हूं कि ऐसा लगता है कि मोहम्मदी बेगम ने अपनी किताब के लिए सबसे उपयुक्त शीर्षक चुना। यह अलताफ हुसैन हाली की सर सैय्यद की प्रतिष्ठित जीवनी हयात-ए-जावेद (एन एवरलास्टिंग लाइफ – एक सदाबहार जीवन) के शीर्षक की प्रतिध्वनि लगती है। हाली द्वारा लिखी गई वह जीवनी हयात-ए-अशरफ से केवल तीन वर्ष पहले प्रकाशित हुई थी। “द लाइफ ऑफ अशरफ [उन्निसा बेगम]” या “एन अशरफ लाइफ”, यानी “अ मोस्ट नोबल लाइफ” के रूप में हयात-ए-अशरफ को पढ़ा जा सकता है। अशरफ, शरीफ (कुलीन) का सर्वोत्कृष्ट सूचक है, और बाद वाला निश्चित रूप से कई अनुमानित व्यक्तिगत विशेषताओं को चिन्हित करने वाला है, जन्म की कुलीनता से लेकर बातचीत में शालीनता और बहुत कुछ है। मोहम्मदी बेगम ने अपनी किताब को इसी तरह से सुनियोजित किया : पहला, एक कालानुक्रमिक विवरण, जिसके बाद उन्होंने अपने विषय के आदर्श लक्षणों पर विचार किया, या जैसा कि उन्होंने इसे प्रस्तुत किया, उनका (अशरफुन्निसा) “स्वभाव, आदतें और शिष्टाचार।” पूरे पाठ के दौरान वह अपने पाठकों – अपनी ‘बहनों’ – साथ ही खुद के प्रयास और बीबी अशरफ के उदाहरण का अनुसरण करने की याद दिलाने से कभी नहीं चूकती हैं।
जी.एच. : मार्गदर्शकों को केवल इसलिए याद नहीं किया जाना चाहिए कि उन्होंने अपने वक्त में क्या काम किए, बल्कि इसलिए भी कि उनके वंशजों के साथ उनके संबंधों के बारे में भी उन्हें याद किया जाना चाहिए। क्या इस बात पर आप अपने विचार प्रस्तुत करेंगे कि किस तरह से मोहम्मदी ने अपने बाद आने वाली बीसवीं सदी की उर्दू लेखिकाओं के लिए दरवाजे खोले?
सी.एम.एन. : मोहम्मदी बेगम उर्दू की पहली महिला कवि नहीं थीं, न ही वह पहली कथा-साहित्य की लेखिका थीं। यद्यपि, कई अन्य तरीकों में वह पहली महिला थीं। वह पहली महिला थी जिन्होंने उर्दू पत्रिका का संपादन किया था और उन्होंने अपने समुदाय और वर्ग की महिलाओं से संबंधित व्यापक चिंता से जुड़े बहुत-से मसलों पर लिखा। उन्होंने महिलाओं के लिए ‘मार्गदर्शक पुस्तिकाएं’ भी लिखीं – पत्र लिखने पर, घर को संभालने पर, या परिवार के बाहर अपनी हम उम्र साथियों के साथ मुलाकात पर। उन्होंने जो कुछ भी लिखा उसमें यह साफ किया कि महिलाओं की क्षमताओं की कोई सीमा नहीं है। और सबसे महत्वपूर्ण यह है कि उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि महिलाएं स्वयं की खोज करने में और इन क्षमताओं का इस्तेमाल करने में एक-दूसरे की मदद कर सकती हैं। मैं यहां एक बिंदु पर जोर देना चाहूंगा। वह उनके पति ही थे जिनका शरीफ (कुलीन) महिलाओं के लिए पत्रिका निकालना एक सपना था, उस पत्रिका का संपादन एक शरीफ (कुलीन) महिला ने किया था – इन पत्रिकाओं के विपरीत जो पहले प्रकाशित हुई थी वह असफल रही। मुमताज अली मुस्लिम महिलाओं से संबंधित मुद्दों के चैंपियन थे और लैंगिक समानता में उनका दृढ़ विश्वास था। इसमें कोई शक नहीं कि वह खुद को एक बुद्धिमान मार्गदर्शक के रूप में देखते थे और चिंता के कुछ विषयों पर पत्रिका में अपने खुद के विचारों को लिखने में कभी भी नहीं हिचकिचाते थे; लेकिन जिस बात ने मुझे प्रभावित किया वह थी दूसरे के विचारों को जगह देने की उनकी तत्परता, और उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया में संरक्षण देने वाला या खारिज करने वाला लहजा कभी भी नहीं अपनाया।
अब आपके सवाल पर वापस आते हैं, मोहम्मदी बेगम की पत्रिका, तहज़ीब-ए-निस्वान, का सदस्यता के माध्यम से प्रसार बढ़ रहा था, हालांकि सदस्य बनने की रफ्तार धीमी थी। लेकिन उदीयमान महिला लेखकों के लिए वह उनके पसंद की पत्रिका बन गई। हिजाब इम्तियाज़ अली, कुर्रतुलऐन हैदर और रशीद जहां ने इसी पत्रिका के पेजों से अपने लेखन की शुरुआत की थी। और इस्मत चुग़ताई ने ‘तहजीबी बहनों’ (तहज़ीबी सिस्टर्स) के बारे में यह लिखते हुए कि रशीद जहां अपनी मेडिकल की पढ़ाई पूरी कर चुकी हैं, अलीगढ़ से एक उत्साही रिपोर्टर के रूप में प्रिंट में अपनी पहली मौजूदगी दर्ज की।
वास्तव में, मैं सोचता हूं कि यह दरवाजे खोलने का उतना बड़ा मसला नहीं है जिसने मोहम्मदी बेगम की पत्रिका को अहम बनाया; बल्कि यह आत्मविश्वास से भरी हुई बहनापे की भावना है जिसे उन्होंने पहचाना और आगे बढ़ाया।
जी.एच. : मैं नहीं चाहती कि ये दोनों ही महिलाएं, अशरफुन्निसा और मोहम्मदी, इतिहास के जंगल में गुम हो जाएं, चाहे वह महिलाओं की शिक्षा का इतिहास हो या फिर पत्रकारिता का या फिर साहित्य का हो। मैं उऩकी दोस्ती को शुक्रिया कहना चाहती हूं – जिसने उन्हें एक बहुमूल्य रिश्ता बनाने की इजाजत दी, जिसमें एक रोल मॉडल, एक सहकर्मी और एक सरोगेट फैमिली शामिल है। और यह सब दोनों के बीच उम्र के फासले, एक का सुन्नी होने और दूसरे का शिया होने के बावजूद हुआ। क्या आप यह कहेंगे कि उनकी दोस्ती संस्मरण और जीवनी लेखन में उनकी रुचि को लाभ पहुंचाती है?
सी.एम.एन. : मेरे ज़हन में उनके बारे में सबसे ज्यादा सोचने वाली और प्रेरणा देने वाली बात थी, उनकी गहरी दोस्ती और एक-दूसरे पर उनका अटूट विश्वास। इसमें संदेह नहीं है, दोनों का बचपन बहुत ही कष्टकर था – दोनों ने ही छोटी उम्र में अपनी मांओं को खो दिया था। लेकिन वे एक-दूसरे को कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाले एक साथी की तरह देखती थीं, जिनका मेल किसी लक्ष्य के लिए हुआ था। उम्र में बड़ी बीबी अशरफ ने अभी-अभी किशोरावस्था की दहलीज को पार करने वाली मोहम्मदी बेगम को सभी महिलाओं से जुड़े मामलों में एक तरह से अपना लीडर मान लिया था। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि उन दिनों में शऱीफ (कुलीन) महिलाओं की ‘पृथकता’ (सिक्लूजन) काफी सख्त थी। यहां तक कि महिलाओं को बहुत सारी अन्य महिलाओं की संगत, विस्तारित परिवारों के भीतर और साथ-साथ ही आस-पड़ोस, से पृथक रहना पड़ता था। मोहम्मदी बेगम ने अपनी पत्रिका तहज़ीब-ए-निस्वान को 1898 में शुरू किया था और आश्चर्यजनक रूप से, उन्होंने शुरुआत में ही इसे एक ऐसे मिलन-स्थल के रूप में सोचा जहां पूर्व में एक-दूसरे से अजनबी महिलाएं आपस में मिल सकती थीं और बहनें बन सकती थीं। उन्होंने आपस में एक साथ आने को व्याख्यायित करने के लिए तहज़ीबी बहनें, (‘तहजीबी सिस्टर्स’) की अभिव्यक्ति को गढ़ा। फिर, बड़े मसले के प्रति पूरी तरह से जागरूक होने की वजह से उन्होंने जल्दी ही मुलाकात की कला पर एक मार्गदर्शक पुस्तिका लिखना शुरू किया, यह बताते हुए कि अपने खुद के परिवार से बाहर, पूरी तरह से अजनबी महिलाओं की संगत में समझदार महिलाओं को किस तरह से व्यवहार करना चाहिए। जाहिर है कि यह वह वक्त था जब सभी स्तर की सरकारी नौकरियों, जिसमें वेतनभोगी मध्य और निम्न मध्य वर्ग की नौकरियां भी शामिल थी, में कार्यरत पुरुषों का एक जिले से दूसरे जिले में तबादला लाजिमी था, ऐसे में उनकी पत्नियों को भी उनके साथ एक जगह से दूसरी जगह पर जाना पड़ता था। ऐसे में जब तक वे अपने पड़ोसियों – अजनबियों या हम उम्र – को जानने का प्रयास नहीं करती थी, जिसके मार्गदर्शन के लिए उनके पास पूर्व का कोई अनुभव नहीं था, तब तक उन्हें एकाकी जीवन जीना पड़ता था।
कृष्ण सिंह द्वारा हिंदी में अनुवादित। अंग्रेज़ी में यहाँ पढ़ें।