क्या मुस्लिम नौजवान ‘लव जेहाद’ करना चाहते हैं?
क्या मुसलमान कश्मीरी आतंकियों का समर्थन करते हैं?
क्या मुस्लिम मोहल्ले ‘मिनी पाकिस्तान’ होते हैं?
ये कुछ ऐसे सवाल हैं, जो आजकल अल्पसंख्यकों से अकसर पूछे जा रहे हैं। यही नहीं, उनके रहन-सहन, रीति-रिवाजों का उपहास किया जा रहा है और देश के प्रति उनकी निष्ठा पर भी उँगली उठायी जा रही है। यह काम बहुसंख्यक वर्ग का एक ख़ास तबक़ा कर रहा है। उसका मकसद पूरे समाज में अल्पसंख्यक वर्ग के प्रति नफ़रत पैदा करना है।
फरीद ख़ाँ द्वारा लिखित, अपनों के बीच अजनबी ऐसे माहौल में अल्पसंख्यक वर्ग के एक युवा की मनोदशा को सामने लाती है। इसमें लेखक ने उन सवालों और आरोपों के जवाब तार्किक रूप से दिये हैं जिनसे अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ फैलायी जा रही अफ़वाहों और धारणाओं का सच सामने आता है। यह किताब सिर्फ़ अल्पसंख्यकों की नहीं, उन सबकी भी आवाज़ है जो भारत को समरसता की भूमि के रूप में देखते हैं और धर्मनिरपेक्षता तथा समानता जैसे संवैधानिक मूल्यों के प्रति आदर का भाव रखते हैं।
निम्नलिखित है किताब की प्रस्तावना, जिसे लिखा है नसीरुद्दीन शाह ने।
मैं शुक्रगुज़ार हूं कि हिंदुत्व ब्रिगेड ने मेरी मुस्लिम पहचान खोज निकाली
– नसीरुद्दीन शाह
मैं शुक्रगुज़ार हूं कि हिंदुत्व ब्रिगेड ने मेरी मुस्लिम पहचान खोज निकाली — यह मैं अल्बर्ट आइंस्टीन के उन शब्दों से प्रेरित होकर लिख रहा हूं, जो उन्होंने 1935 के आसपास प्रिंसटन में रहते हुए अपने यहूदी समुदाय पर हुए अत्याचारों को याद करते हुए लिखा था। ये शब्द मैं बहुत ग़ुस्से के साथ दोहरा रहा हूं, जब मेरी भारतीय पहचान को पूरी तरह से नकारते हुए मुझे सिर्फ़ एक मुसलमान की पहचान तक महदूद कर दिया गया है और ऐसा महसूस करवाया जा रहा है कि मुझे उस जगह नहीं रहना चाहिए जो मेरा घर है। लेकिन मेरे साथ ऐसा कोई नहीं कर सकता है। जिस देश में मेरी पांच पुश्तों ने जन्म लिया और जहां की मिट्टी में वे सभी दफ़न हैं, जहां मैं पैदा हुआ, बड़ा हुआ और मुझे देश से प्रेम करना सिखाया गया, उस देश में अगर ज़रूरत पड़ी तो मैं अपने हक़ के लिए लड़ूंगा और सच को सच कहूंगा। पिछले दो सालों के तजुर्बे के बाद मुझे यह बात शिद्दत से समझ में आई कि आपको किसी धार्मिक समुदाय का होने की वजह से सताया जाना, आपकी सामाजिक हैसियत के लिए सताने से कुछ कम नहीं है।
यक़ीनन मैं अकेला ऐसा संपन्न कलाकार नहीं था, जो लॉक डाउन के ख़त्म होने का इंतज़ार बिना किसी बाधा के कर सकता था और न ही मैं एकमात्र ऐसा व्यक्ति था, जो अपनी फ़िल्म इंडस्ट्री के जूनियर आर्टिस्ट, लाइटमैन, मेकअपमैन, स्टंटमैन या किसी भी कार्यक्षेत्र के आवश्यक लोगों के बारे में लगातार चिंता करता था। मैं अक्सर रेस्तरां जाने वाला व्यक्ति नहीं हूं, मगर मैं उनके बारे में सोच कर परेशान रहता था कि बावर्ची, वेटर, सफ़ाईकर्मी या रिक्शा वाले, टैक्सी वाले और सब्ज़ी बेचने वाले अपनी ज़िंदगी को बचाए रखने के लिए क्या करते होंगे?
कोरोना के दौरान हमने अपने चारों तरफ़ मज़दूरों के घर वापस लौटने का भयानक दृश्य देखा। थके और सूजे हुए पैरों के असंख्य जोड़े और बोझिल आंखों के साथ उन्हें यह नहीं पता था कि दूसरे वक़्त का खाना कहां से आएगा। न जाने ऐसे कितने मज़दूर हर जगह फंसे हुए थे। हम मुसलसल अपने टेलीविज़न पर पुलिस को देख रहे थे उन मज़दूरों को सताते हुए। उन मज़दूरों को सताते हुए, जो निहायत ही कम तनख़्वाह और अत्यधिक काम के बोझ से त्रस्त हैं, जबकि उसी दौरान हमारी दयालु सरकार ने वाशिंगटन स्थित संसद भवन पर होने वाले हमले पर अपनी सहानुभूति प्रकट की, क्रिकेट में ऑस्ट्रेलिया पर भारत की जीत का जश्न मनाने की पर्याप्त उदारता दिखाई। उनकी इंसानियत देखिए कि नागरिकता देने में हमारे पड़ोसी देश के ग़ैर-मुस्लिम लोगों को जो फुर्ती दिखाई उसके उलट ग़ज़ब की बेहिसी दिखाई अपने देश के नागरिकों की भयानक स्थिति पर। मुमकिन है उनका समय चुनावी रणनीति बनाने और फूट डालने के नए तरीके अपनाने में जा रहा होगा।
इस बीच यूपी में ‘योगी–हुड’ का दावा करने वाला एक व्यक्ति एक योजना बना रहा था, ज़ाहिर तौर पर ‘प्रिय नेता‘ की मौन सहमति के साथ, जिसे वह देश के सामने सबसे ज़्यादा ज़रूरी समस्या मानता था और उसने तेज़ी से एक नया कानून पेश किया – ‘जबरन-धर्मांतरण’ के ख़िलाफ़। मानो यह इस समय हमारे देश का सबसे अहम मुद्दा हो।
यूपी के प्रशासन तंत्र ने बिना देर किए, किसी भी शादी में बाधा डालना शुरू कर दिया, यहां तक कि एक मुस्लिम जोड़े की भी शादी में बाधा डालने के बाद और उन्हें पूरी तरह से आतंकित करने के बाद, बिना किसी माफ़ी या पश्चाताप के बाद इस तरह छोड़ा जैसे उन पर बहुत बड़ा उपकार किया हो।
अगर एक मुसलमान लड़की हिंदू धर्म अपना ले तो उसमें कोई दिक़्क़त नहीं है, आख़िर वह अपने ‘वास्तविक’ या ‘पूर्वजों के धर्म’ में वापस आ रही है। वह ज़बरदस्ती हो रहा हो या जैसे भी। लेकिन सरकार में बैठे लोगों का बस चले तो ‘लव-जेहाद’ के तहत हिंदू–ईसाई या हिंदू–पारसी या बौद्ध–मुस्लिम शादी को भी प्रतिबंधित कर दें। या हम यह मान कर चलें कि भगवा-ब्रिगेड का ग़ुस्सा सिर्फ़ मुसलमान मर्दों के लिए है, जो उनके मुताबिक भोली हिंदू लड़कियों को गुमराह कर रहे हैं और भयावह दर से बच्चे पैदा कर रहे हैं?
इस्लामोफ़ोबिया की आग इतनी बढ़ गई है और इसे एक योजना के तहत बढ़ाया भी जा रहा है कि इस नव-प्रचारित विचार से प्रेरित पुलिस अधिकारी ने एक स्टैंड-अप कॉमेडियन मुनव्वर फ़ारूकी को, जो इत्तेफ़ाक़ से मुस्लिम है इसलिए गिरफ़्तार कर लिया क्योंकि ‘उन्होंने हिन्दू भगवान का अपमान नहीं किया था, लेकिन करने जा रहे थे।’
इन सब बातों का सबसे परेशान करने वाला पहलू यह है कि जितने जघन्य तरीके से ये सब किया जाता है, उतनी ही बेशर्मी से उसका ढिंढोरा पीटा जाता है। याद कीजिए, वह वीडियो जिसमें एक मरते हुए घायल मुसलमान को पुलिस वाले राष्ट्रीय गान गाने को बोल रहे हैं या वह वीडियो जिसमें बाबू बजरंगी, जो अभी ज़मानत पर बाहर है, एक बेबस इंसान की हत्या की शेखी बघार रहा है। उधर मुनव्वर फ़ारूकी की ज़मानत बार-बार रद्द की जा रही थी। वह युवक अपने पूरे आदर्शवादी युवा जीवन पर सवाल उठा रहा होगा। हमारे कितने सारे सामाजिक कार्यकर्ता जेल में बंद हैं और जो लोग भीड़ को हिंसा के लिए उकसाते हैं उनको पुरस्कृत किया जाता है।
कुछ तो है जो सड़ गया है….।
इससे पहले कि आप यह सोचें कि ये सारी बातें एक हताश और निराश मुसलमान का रुदन है, तो मैं यह साफ़ कर देना चाहता हूं कि मेरा मुसलमान होना मेरे जीवन में कभी भी महत्त्वपूर्ण नहीं रहा है। हाल के वर्षों में टोपी और दाढ़ी वाले युवकों और हिजाब में लड़कियों की बढ़ती तादाद मुझे उतना ही परेशान करती है जितना कि ‘विपरीत ख़ेमे‘ द्वारा भगवा तिलक और सिर पर पट्टी बांधना। मैंने ख़ुद की पहचान सिर्फ़ किसी धर्म से नहीं की, जबकि मेरी पैदाइश और परवरिश एक पारंपरिक मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवार में हुई है। मेरे माँ-बाप जीवन भर मज़हब के पाबंद रहे, वो पांचों वक़्त नमाज़ पढ़ते थे, पूरे महीने रोज़े रखते और हम तीनों भाइयों को मौलवियों से क़ुरान पढ़वाते थे, जिन्होंने न केवल अरबी हरूफ़ और क़ुरान पढ़ना सिखाया, बल्कि अपनी ड्यूटी के दायरे से काफ़ी बाहर जाकर इस बात पर ज़ोर दिया कि पृथ्वी तो समतल है। यह कहना हास्यास्पद है कि यह गोल है और घूमती है, असल में सूरज घूमता है। उन्होंने हमें बताया कि हूरें जन्नत में ईमान वालों का इंतज़ार कर रही हैं, लेकिन मुझे यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं कि मैं इन बातों के मोह में नहीं पड़ा। यहां तक कि दस साल की उम्र में भी मुझे लगता कि इतनी सारी बला की ख़ूबसूरत औरतों को इकट्ठा कौन संभाले! इसके अलावा इस ख़याल ने और भी हतोत्साहित कर दिया कि ऊपर एक बूढ़ा आदमी बैठा सारी रंगीनियां देख रहा है। क्या लगातार सिर झुकाना, सफ़ाई करना और उसकी अच्छाइयों व रहमतों की तारीफ़ करते रहना वास्तव में मज़ेदार होता? साथ ही मैंने यह भी सोचा कि क्या जहन्नुम वास्तव में इतना बुरा हो सकता है, यह देखते हुए कि मेरे सभी दोस्त वहां होंगे! मुझे मज़हबी क़ायदों को छोड़ने में बहुत वक़्त नहीं लगा – वे ऐसे कर्मकांडों की तरह लगते थे, जिन्हें आंख मूंदकर बस करते जाना है, यह जाने बग़ैर कि वे क्यों बनाए गए। और सभी तरह की प्रार्थनाएं जो मिन्नत-समाजत, इल्तिजा और माफ़ी मांगने के अलावा कुछ भी नज़र नहीं आती थीं, मुझे ज़रूरी नहीं लगीं। इन सबने मुझे विरक्त कर दिया और बीस साल की उम्र में मैंने अपनी मुस्लिम-पहचान को छोड़ दिया क्योंकि जिस तरह की ज़िंदगी मैं जीना चाहता था, उसमें इसका कोई अर्थ नज़र नहीं आता था। वैसा ही हुआ। मुझे हमेशा अपने काम में वह संतुष्टि मिली जो मुझे मज़हब में कभी नहीं मिली।
इसलिए मुझे बहुत हैरानी हुई जब मुझे पहली बार ‘मुसलमान ग़द्दार’ कहा गया और अपना बोरिया बिस्तर बांध कर, आप सोच सकते हैं, कहां जाकर रहने को कहा गया होगा। दरअसल मज़हब से आज़ाद होते ही मुझे ऐसे ‘क्लब’ से भी आज़ादी मिल गई जिसमें किसी और समुदाय के लिए प्रवेश न हो। मुझे कभी भी मुसलमानों से ऐसा कोई विशेष लगाव नहीं रहा, सिवाय इसके कि हमारी ज़बान और आदतें (मेरे ख़याल से तहज़ीब) एक जैसी थीं। लेकिन उसमें भी मैंने बहुत सारे हिंदुओं और सिखों को बहुत सारे मुसलमानों से और मुझसे भी बेहतर उर्दू बोलते हुए पाया। अब जाकर हम सब महसूस कर पा रहे हैं जिन्ना के उर्दू को पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा बनाने का बुरा असर! इसी के नतीजे में उस पर एक ‘मुस्लिम’ भाषा का ठप्पा लग गया, यहां तक कि भारत में भी कुछ जगहों पर, हालांकि यह अविश्वसनीय लगता है, उर्दू को अब वास्तव में एक विदेशी भाषा की श्रेणी में रखा जाता है। विडंबना यह है कि यह ‘विदेशी‘ भाषा, इसी देश में विकसित हुई और सिर्फ यहां बोली जाती है!
मुझे गहरा क्षोभ होता है जब मुझे बार-बार अपनी देशभक्ति साबित करने के लिए यह दोहराना पड़ता है कि हमारी पांच पुश्तों में, जिनमें कई सारे पुलिस, फ़ौजी और सरकारी ऑफिसर रहे, कभी भी किसी ने अपने करियर में मुसलमान होने की वजह से रुकावट महसूस नहीं की। मुझे एक हिंदू से शादी करने में कोई झिझक या दिक़्क़त नहीं हुई न ही रत्ना को। मेरी शादी के अड़तीस साल बाद एक भूतपूर्व कैबिनेट मंत्री के जीवन साथी ने सीधे-सीधे मुझ पर लव जेहाद का आरोप तो नहीं लगाया पर तंज़ ज़रूर कसा कि अपने ज़माने में आपने अपने धर्म से बाहर शादी तो कर ली लेकिन अब…। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दिन कोई मुझसे यह कहेगा।
मेरी माँ ने सिर्फ़ एक बार रत्ना के धर्म परिवर्तन के बारे में जानना चाहा था और हमने इंकार कर दिया था, तो उनका जवाब था, ‘हाँ, मज़हब कैसे बदला जा सकता है।’ क़ुरान का अनुसरण करने वाली उस महिला का यह बयान ज़्यादा समझदारी भरा है या नफ़रत फैलाने वाली यह सोच कि ‘हिंदू मुस्लिम साथ नहीं रह सकते’, यह फ़ैसला मैं पाठकों पर छोड़ता हूं। मैं सिर्फ़ इतना कह सकता हूं, एक हिंदू के साथ मेरी शादी (दोनों परिवारों द्वारा निर्विवाद रूप से स्वीकृत) जो चालीस साल से टिकी हुई है, इस बात का सबूत है — अगर किसी को सबूत की ज़रूरत है तो — कि हिंदू और मुस्लिम एक साथ सिर्फ़ रह ही नहीं सकते हैं बल्कि उनको साथ रहना भी चाहिए।
ये नफ़रत के बीज हमारे अंदर कहाँ से आए? क्या ये बीज बंटवारे के समय से हमारे अंदर उपज रहे थे? क्या हम सच बोल रहे थे, जब हम गाते थे, तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा या ख़ुद को बहला रहे थे?
मुझे यक़ीन है कि सिर्फ़ मैं ही नहीं बल्कि बहुत सारे लोग शाहीन बाग़ के धरने पर बैठी मुसलमान औरतों पर अपमान जनक आरोप से परेशान हुए होंगे। मैं अकेला नहीं हूं जिसे हैरत हुई यह देख कर कि किस तरह पहले इस शांतिपूर्ण प्रदर्शन को और बाद में किसान आंदोलन को ख़त्म करने और बदनाम करने की कोशिश की गई। मैं अकेला नहीं था जिसका ख़ून खौल रहा था जामिया के छात्रों के साथ पुलिस क्रूरता देख कर, जेएनयू पर हमला करने वाले गुंडों को देख कर और उस भीड़ को देखकर जिसने पूरे नॉर्थ-ईस्ट दिल्ली में दंगे कर दिए। मेरा यह भी अनुमान है कि मैं अकेला आश्चर्य करने वाला व्यक्ति नहीं हूं दिल्ली पुलिस की उस रिपोर्ट पर जो उन्होंने फ़रवरी 2020 में हुए दिल्ली दंगे के बाद दी थी। कोई इतना भी नादान नहीं होगा कि मान ले कि मुसलमानों ने अपने ही घर और दुकान जलाए, अपने सगे और रिश्तेदारों को मारा और मस्जिद तोड़े। क्या किसी मस्जिद पर एक भगवा झंडा फहराना उतना ही अपमानजनक नहीं है जैसे कि हम कोई धार्मिक झंडा फहरायें लाल किले पर? वैसे भी कब से लाल किला इतना पवित्र हो गया –- क्या इसे उन ‘विदेशियों ने नहीं बनाया था जिन्होंने देश को लूटा है?’ इन सब में सबसे ख़तरनाक बात यह है कि केंद्र सरकार को इसकी परवाह ही नहीं है कि हर बात के लिए अल्पसंख्यकों को ज़िम्मेदार ठहराकर (सभी साक्ष्य विपरीत होते हुए भी) उनके प्रति भेदभाव का खुलेआम प्रदर्शन किया जा रहा है — यह उन्हें मुख्यधारा से दूर करने की एक और कोशिश है। जब उनको कोविड-19 फैलाने के लिए ज़िम्मेदार ठहराने की योजना नाकामयाब हो गई, तो आग भड़काने की नई चाल चली गई।
महामारी, सरकार के लिए सीएए के विरोध प्रदर्शनों को ख़त्म करने के लिए एक वरदान के रूप में आई थी, लेकिन किसान बहुत कठोर मिट्टी के बने थे। दिल्ली की सीमाओं पर जो कुछ हुआ वह कल्पनातीत है। प्रदर्शनकारियों के धैर्य और प्रशंसा के बावजूद आंदोलन के तहत होने वाली कुछ ज़्यादतियों पर घबराहट हुई थी। एक धूर्ततापूर्ण चाल के तहत उन ‘हिंसक बर्ताव’ और ‘राष्ट्र-ध्वज के अपमान’ के लिए सिखों को बदनाम करने की कोशिश हुई। कब से सिख दुश्मन नंबर 2 बन गए?
1982 में जब मैंने और रत्ना ने शादी का फ़ैसला किया था और अपने से बड़े एक घरेलू दोस्त, जिनका अतीत भी कुछ ऐसा ही था, से मशविरा किया तो उन्होंने हमें इत्मीनान दिलाया था कि कोई राजनैतिक या धार्मिक अड़चन नहीं होगी, लेकिन शायद हमें सिर्फ़ सामाजिक अड़चन हो ; मसलन, दीवाली ज़्यादा ज़रूरी है या ईद, क्या घर में शराब की इजाज़त होगी, हमारे बच्चों को कौन सी धार्मिक शिक्षा मिलेगी, क्या हमारे घर में हिंदू संस्कृति होगी या मुस्लिम, वगैरह, वगैरह। हमें इस बात का गर्व है कि हमारे घर में शुरू से ही कोई धार्मिक व्यवस्था नहीं है, दीवारों पर कोई प्रतीक नहीं है (सौंदर्य कारणों से बुद्ध की एक सुंदर लकड़ी की मूर्ति के अलावा)। हमारे बच्चों का कोई धर्म नहीं है लेकिन हमने उन्हें सब बताया है, हालांकि मैंने उन्हें मज़हबी रस्मों को लेकर अपने आग्रह उन्हें नहीं बताए हैं। हमारे यहाँ दीवाली और ईद, दोनों ही त्यौहार पूरे उत्साह से मनाया जाता है, एक धार्मिक विधि से नहीं बल्कि एक पारिवारिक जलसे की तरह। हम नमस्ते और सलाम-अलैकुम उतनी ही पाबंदी से इस्तेमाल करते हैं और प्रार्थना के नाम पर हर चीज़ के लिए आभार प्रकट करते हैं। हमारे बच्चे अंतर्धार्मिक विवाह के अभ्यस्त थे, वे हैरान हो गए थे यह जान कर कि असल में मुस्लिम – मुस्लिम या हिंदू–हिंदू ही शादी होती है। हमें विश्वास था कि हम एक-दूसरे से शादी करके एक स्वस्थ मिसाल कायम कर रहे हैं; ख़ासकर इसलिए भी कि हमने सामाजिक मुद्दों को आसानी से पार कर लिया। हमें उम्मीद ही नहीं थी कि एक ऐसा फ़रमान भी आएगा जो न केवल एक अंतर-धार्मिक वैवाहिक संबंध के विचार को अकल्पनीय बना देगा बल्कि वास्तव में हिंदू-मुस्लिम सामाजिक संपर्क को भी झकझोरने का प्रयास करेगा, जिसकी अभिव्यक्ति हमें उस प्रस्तावित निर्देश में स्पष्ट दिखाई देती है कि रेस्तराओं को अब घोषणा करनी होगी कि वो जो मांस परोस रहे हैं वो झटका है या हलाल?
ऐसा लगता है कि हमारे प्रिय बुज़ुर्ग पूरी तरह ग़लत थे।
मैं और मेरा परिवार यह देखकर हैरान है कि किस तरह से नफ़रत बढ़ाने वाले लोग खुलेआम ये सब कर रहे हैं और हम जैसे लोग ख़ुद को ‘ग़द्दार’ करार दिए जाने का इंतज़ार।
कुछ समय पहले मेरे भाई ने मुझे एक चिट्ठी लिखी थी जो काफ़ी परेशान करने वाली थी। ज़ाहिर सी बात है हम दोनों की परवरिश एक सामान हुई है, हालांकि वह मेरे विपरीत धार्मिक विचार के इंसान हैं, वह लिखते हैं – ‘अचानक से हमारे दोस्तों को हमारा मुस्लिम होना दिखाई देने लगा है, अगर हम इस सरकार की ज़रा भी बुराई करते हैं तो हमें ग़द्दार घोषित कर दिया जाता है। परेशानी की बात यह है कि यह बदलाव सिर्फ़ कुछ चंद लोगों में नहीं देखा जा रहा है जिन्हें उंगलियों पर गिना जा सके। मेरे छात्र जीवन में जब मैं आईआईटी में था, तब हमारे दोस्तों में विभिन्न संस्कृतियों के लोग थे, भारत का एक छोटा रूप। उसमें बंगाली, सिख, पंजाबी, मलयाली, गोवन, तमिलियन और एक यूपी का भईया (मैं), कई लोग थे। भारत के सभी धर्म के लोग –- हिंदू, सिख, ईसाई, मुस्लिम, जैन, पारसी। हम सब ख़ुशी-ख़ुशी मिलते थे, 2018 तक, जब हमारा पचासवाँ स्नातक मिलन हुआ। उसके बाद से चीज़ें बदल गई हैं। लोग आपस में बात नहीं करते हैं वरना आज जो कुछ भी भारत में हो रहा है उसके बारे में सबके अंदर गहरे बैठी बात उभर कर निकल आती है।
मैं अभी तक इस सदमे और झटके से उबर नहीं पाया हूं।
मुझे उनके अहसासात से हमदर्दी है, हालांकि मैंने अभी तक उनके जैसा महसूस नहीं किया है। मेरे बहुत से दोस्त हैं जो बीजेपी के ज़बरदस्त समर्थक हैं और प्रधानमंत्री के भक्त ; हमारे बीच वैचारिक मतभेद के बावजूद एक-दूसरे के प्रति इज़्ज़त बरकरार है। देखने की बात यह होगी, आख़िर कब तक? मेरे भाई अब भारत में नहीं रहते, वे इस चिंताजनक स्थिति से बच गए। शायद यह बहुत निराशाजनक और जल्दबाज़ी वाली बात हो, लेकिन हम धीरे-धीरे एक फ़ासिस्ट राष्ट्र में तब्दील होते जा रहे हैं। हम साफ़-साफ़ देख सकते हैं कि नस्ल की शुद्धता और श्रेष्ठता के बारे में किस तरह से बातें हो रही हैं, किस तरह से पुलिस को खुली छूट है, सरकार समर्थक नफ़रत फैलाने वालों और मॉब लिंचिंग करने वालों को या किस तरह से पढ़े-लिखों और ईमानदार पत्रकारों और सामाजिक विकास के कार्य में लगे कार्यकर्ताओं को परेशान किया जा रहा है, विश्वविद्यालयों में दख़ल दिया जा रहा है, इतिहास फिर से लिखा जा रहा है। असहमतियों को दबाना, डराना, अपने चुने हुए ‘दुश्मनों’ पर मुक़दमे चलाना, कुछ मीडिया वालों को समर्थन देना और कुछ के गले घोंटना, काल्पनिक आंतरिक शत्रुओं का निर्माण और यह माहौल बनाना कि बहुसंख्यकों को ख़तरा है, जो अपराध वो कर रहे हैं उसके लिए दूसरों पर आरोप मढ़ना, और एक ऐसे नेता को जन्म देना जो अचूक, अविनाशी और सर्वज्ञ है, जो अपने बारे में प्रशंसा पसंद करता है, और अपना नाम ऐसे लेता है जैसे स्वयं से इतर किसी महान व्यक्ति का नाम ले रहा हो ; साफ़ दिख रहा है कि सत्ता में बैठे नेताओं ने फ़ासिज्म का अध्ययन अच्छे से किया है लेकिन अच्छा होगा अगर उन्होंने यह भी अध्ययन किया हो कि इतिहास में ऐसे नेताओं का क्या हश्र हुआ था।
आख़िर आइंस्टीन भी हिटलर के ऐसे हश्र का पूर्वानुमान नहीं कर पाए थे।