वर्तमान भारत में सामाजिक और सांप्रदायिक दरारें पहले से कहीं ज्यादा गहरी हो गई हैं। एक समय में जिन अंतर-धार्मिक विवाहों को विविधता से परिपूर्ण समाज की कसौटी माना जाता था, आज विभाजनकारी राजनीति के आख्यान (नैरेटिव) को आगे बढ़ाने के लिए इनका लगातार जोर-शोर से इस्तेमाल किया जा रहा है।
सुमित्रा एंड अनीस : टेल्स एंड रेसपीज फ्रॉम ए खिचड़ी फैमिली किताब में पत्रकार सीमा चिश्ती, जो स्वयं उस वक्त के अंतर-धार्मिक विवाह की संतान हैं जब ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ मात्र एक विचार नहीं था बल्कि एक जीवंत सच्चाई थी, हमें अपने माता-पिता की कहानी बताती हैं। उनकी मां सुमित्रा कर्नाटक के मैसूर के एक क्षत्रिय हिंदू परिवार से थीं और पिता अनीस उत्तर प्रदेश के देवरिया के एक सैयद मुस्लिम परिवार से थे। उनकी कहानी में सुमित्रा की रसोई से निकली व्यंजन बनाने की विधियों के ताने-बाने गुंथे हुए हैं, और यह विविधता भरी पाक कौशल की परम्पराओं का वह संगम है जिसमें उन्हें महारत हासिल थी।
गीता हरिहरन के साथ इस बातचीत में सीमा चिश्ती अपनी इस किताब और बहुत-सी अन्य चीजों के बारे में बात करती हैं।
गीता हरिहरन (जीएच): मैं इस बातचीत की शुरुआत आपकी किताब के उपशीर्षक ‘टैल्स एंड रेसपीज फ्रॉम ए खिचड़ी फैमिली’ से करना चाहती हूं। यह वाक्यांश कथा और भोजन से लेकर परिवार तथा घर की धड़कन रसोई घर तक के मनुष्य के अनुभव के अहम पहलुओं को अपने में समेटे हुए है। यह शीर्षक आपको कैसे सूझा?
सीमा चिश्ती (एससी): खिचड़ी को चावल और दालों (और भी चीजों) को मिलाकर बनाया हुआ एक मिश्रण माना जाता है और मुझे यह हमेशा ही आकर्षित करती रही है। मुझे हमेशा से ही लगता था कि मैं दालों और चावल का हिस्सा हूं, इसलिए इसके बारे कहना चाहिए। जब हम हाई क्विजीन की बात करते हैं, तो सभी अच्छी और उपयोगी चीजों की तरह इसे (खिचड़ी) भी कम करके आंका जाता है। हम जानते हैं कि घर पर जब कोई बीमार हो, तो खिचड़ी कितनी अनमोल होती है। मैं इस शब्द को इस तरह से रखना चाहती थी, जिस तरह से मैंने अपने घर को – गर्व के साथ – एक रंग में रंगा हुआ नहीं, बल्कि खिचड़ी जैसा देखा था। समाज की सेहत इस समय बहुत अच्छी दिखाई नहीं देती है, इसलिए मैंने सोचा कि मुझे खिचड़ी का संदर्भ जरूर लेना चाहिए। फिर, मेरी मां की भोजन विधियों की एक किताब भी थी जो वह अपने पीछे छोड़ गई थीं – मेरी किताब के भोजन के पहलू के हिस्से और ‘कई चीजों के मिश्रण’ (‘मिक्स्ड-अप’) वाले सेहतमंद खाने की चीज, इन सभी ने अच्छा काम किया। खिचड़ी के संदर्भ के साथ सुमित्रा और अनीस को एक साथ करीब लाने का इससे बेहतर तरीका क्या हो सकता है?
जीएच: विविधता से भरे हुए देश और आपके माता-पिता के साथ जीवन जीने की कहानी के लिए, खिचड़ी एक बहुत ही बड़ा रूपक है। यह एक प्रकार से विविधता में एकता की जीवंत कहानी है। (यहां यह याद रखना भी जरूरी है कि खिचड़ी के शाकाहारी के साथ-साथ गैर-शाकहारी प्रकार भी होते हैं।) आप इस बारे में किस तरह से सोचती हैं कि इस विविधता से भरी हुई “खिचड़ी” की पहचान को व्यक्तिगत रूप में, दंपति के रूप में और एक परिवार के रूप में अपनाने के लिए आपके माता-पिता सभी शुद्धतावादी धारणाओं को निकाल बाहर करने में कैसे सफल रहे और जब आप बड़ी हो रही थीं तो आपने इस संवेदनशील मुद्दे का सामना कैसे किया?
एससी: मेरे माता-पिता उस दुनिया में एक-दूसरे से जुड़े जो उस वक्त में खुले तौर पर उतनी शत्रुतापूर्ण नहीं थी। हालांकि, इसका यह मतलब यह नहीं है कि उस वक्त में पूर्वाग्रह या समूह की पहचान की भावना मौजूद नहीं थी। आखिरकार, यह वर्तमान की ईजाद नहीं है। लेकिन अब इसको ज्यादा धारदार और हथियारों से लैस कर दिया गया है। यह आंशिक रूप से समय के कारण, या नई तकनीक के कारण या अन्य कारणों से, इसे जिस प्रकार व्यक्त किया जाता है वह तरीका बहुत अधिक निर्लज प्रतीत होता है। दूरदृष्टि से देखा जाए तो, मैं सोचती हूं कि यह कहना उचित होगा कि उन दोनों को एक-दूसरे के प्रभाव से और एक साथ जीवन जीने से बहुत लाभ हुआ। इसने उन्हें न केवल व्यक्तियों के रूप में बल्कि अन्य तरह से भी सक्षम बनाया। उन्होंने सुमित्रा और अनीस के रूप में एक साथ मिलकर कुछ निर्मित किया था – एक ईकाई के रूप में अपने-अपने हिस्सों के योग से ज्यादा। इसलिए हम सांस्कृतिक रूप से बहुत खुश थे कि हम हिंदू, मुस्लिम और कुछ ज्यादा भी हैं, संभवतः ईसाई और सिख भी, लेकिन हम एक ही खांचे में न समाने से भी खुश थे। उनके व्यक्तित्व की सच्चाई का गुण और उन्हें एक साथ बांधने वाले बंधन के आधार पर मेरे माता-पिता, दोनों ही परिपक्व थे और अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़े हुए थे। इसने उन्हें दूसरे के लिए ज्यादा स्वीकार्य बनाया। वास्तव में, इसने उन्हें लगातार अधिक और अधिक के लिए व्याकुल और इच्छुक बनाया। अहम बात यह है, भारतीय राज्य उस समय एक भिन्न चीज थी – हम नेहरू की मृत्यु के बाद के उन शुरुआती वर्षों की बात कर रहे हैं – इसलिए प्रधानमंत्री के रूप में उनके कार्यकाल ने भारतीय राज्य किस तरह से व्यवहार करे और वह किस चीज के पक्ष में खड़ा हो, इसको लेकर आधुनिकता का जो संचार किया था वह उस वक्त तक जीवित था। तथ्य है कि राज्य सामाजिक पूर्वाग्रहों और पक्षपात का सक्रिय समर्थक नहीं था, इसने सुमित्रा और अनीस के लिए यह संभव बनाया कि वे पूरी तरह से सुरक्षा के मुद्दों पर ही व्यस्त न हों, जैसा कि आज अलग-अलग धर्मों से वास्ता रखने वाले दंपतियों के साथ होता होगा। इसलिए वे केवल अपने जिंदा रहने के बजाय अपनी उन्नति के बारे में ज्यादा सोच सकते थे।
जीएच: किसी के पास एक महानगर का घिसा-पीटा मूर्खतापूर्ण विशेषाधिकार है, जो एक जगह से दूसरी जगह पर छलांग मारता फिरता रहता है, लेकिन आपकी किताब कॉस्मोपोलिटनिज्म (महानगरवाद) के गहरे अर्थ को इंगित करती है, यहां तक कि उत्तर प्रदेश में एक छोटे शहर को भी। आपके के लिए कॉस्मोपॉलिटन (महानगर) क्या है? और सच्चा कॉस्मोपोलिटिन्स एक लुप्तप्राय प्रजाति क्यों है?
एससी: आह! यह बहुत ही बढ़िया और बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल है। यूरोप और अन्य बहुत सारी जगहों पर पश्चगामी “राष्ट्रवाद” के विरोध में मोमबत्ती पकड़ कर खड़ा होना बहुत ही फैशनेबल है। “महानगरीय अभिजात वर्ग” के हवाले से यह धुर-दक्षिणपंथी पार्टियों के लिए वोट करने वालों के खिलाफ तथाकथित “क्रोध” के कारण किया जाता है। मेरे अनुसार, यह एक बहुत ही चतुर और एक छलपूर्ण प्रोपगेंडा है। यह टकराती हुई संकीर्ण पहचान के मुद्दों के सामने महानगरवाद को एक अभिजात और अंजान – और जैसा कि कहा जाता है जेट–सेटर, के रूप में गलत तरीके से प्रस्तुत करके वर्ग का मुद्दा भी बना देता है। महानगर के लोगों का यह अपमान सभ्य धरती पुत्रों के तर्क का केंद्र है, जो कि वास्तव में संकीर्ण होते दिमागों के लिए एक दलील है।
मेरे लिए एक खुला हुआ दिमाग ही महानगरीय दिमाग है, जो कि अपने स्वयं की पहचान द्वारा अपने ऊपर थोपी गई सीमाओं से बाधित नहीं है, जिसके बोलने का तरीका विकसित है जो कि व्यस्त है और दूसरों के साथ अपनी दोस्ती एवं संबंधों को लेकर केवल इसलिए खुश नहीं है क्योंकि वे लोग उसी के ही परिवार या जात-बिरादरी वाले हैं। मेरी समझ में एक महानगरीय व्यक्ति एक जेट-सेटर या फिर वो व्यक्ति नहीं होता जो कि पूरे विश्व का भ्रमण कर चुका हो, बल्कि वो व्यक्ति होता है जो विकसित होता है, और वह उन सब चीजों का एक योग होता है जो कि इस ग्रह पर जीवन का अंग हैं – वह “दूसरी” भाषाओं, पहचान, सोच, जीवन जीने के तरीकों, खान-पान, प्रेम को खुशी से स्वीकारता है जो उसको पता भी नहीं थे, या उसे जन्म के समय बताए नहीं गए थे। पूरे विश्व के साथ क्रमिक रूप से विकसित होना और ऐसे जुड़ना जो कि शत्रुतापूर्ण न हो, बड़ी/बेहतर सोच – जहां ब्रह्मांड संचालन की एक ईकाई है – संभवतः यही संसार की उत्पत्ति है?
इन्हें विलुप्त होती प्रजाति के रूप में इसलिए देखा जाता है, क्योंकि आज राजनीति को विश्व के बहुत सारे हिस्सों में और विशेष रूप से भारत में उन लोगों द्वारा रस्सी से कसकर बांधा गया है जो कि यह नहीं चाहते कि उनके मतदाता अपने बारे में सोचें और गहराई से सोचें। इससे दिमाग और विकल्प, दोनों ही खुलेंगे। “एक नेता”, “एक टैक्स”, “एक धर्म”, “एक व्यक्ति”, “एक ही प्रकार का भोजन” के नारों से इस घृणा भरी सोच को इसलिए आगे बढ़ाया जा रहा है ताकि दिमागों को ठप्प कर दिया जाए और किसी भी प्रकार की आलोचनात्मक सोच और तार्किकता पर नकेल कसी जा सके। इसलिए, महानगरवाद पर हमले किए जा रहे हैं और महानगरवाद को अलग-थलग, कुलीन, अपनी जड़ों से कटा हुआ कहकर उसका मजाक उड़ाया जा रहा है। मजाक उड़ाना और उसकी प्रतिष्ठा को खत्म करना बहुत महत्वपूर्ण है – कुत्ते को मारने से पहले उसे पागल कहना होता है। अगर मतदाताओं का एक बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा महानगर के लोगों की तरह सोचने लग जाए तो, वो उस संकीर्ण किस्म के भारत को उखाड़ फेंकेगा जिसे बनाने की ये लोग जी-तोड़ मेहनत कर रहे हैं।
जीएच: समुदाय, जाति या क्षेत्र के अर्थ में क्या आप अंतर-धार्मिक/अंतर-जातीय शादियों (मिक्स्ड मैरिजेज) के महत्व के बारे कुछ कहना चाहेंगी? न केवल विशेष विवाह अधिनियम जैसे कानून बनाने से काम चलेगा, बल्कि ऐसे नए कानून जो अंतर-धार्मिक विवाहों को आपराधिक बना देते हैं या फिर अंतर-जातीय/अंतर-धार्मिक शादियों के रास्ते में मुसीबतें बढ़ा देते हैं, उन्हें भी रोकना होगा? वे सांप्रदायिकता/जातिवाद और पितृसत्ता को कैसे एक साथ खड़ा कर देते हैं?
एससी: यह बहुत ही रोचक है (और साथ ही हमें उदास भी करता है) कि एनएफएचएस के डेटा के अनुसार, अंतर-धार्मिक विवाह करीब 2.5 प्रतिशत या उससे भी कम रह गए हैं। और अंतर-जातीय विवाह भी करीब 13 प्रतिशत के आसपास ही हैं। (मुझे ऐसा संदेह है कि ये अंतर-जातीय विवाह संभवतः आवश्यक नहीं है कि कोई एक रेडिकल विकल्प हों। ऐसे विवाह सवर्णों के बीच में या दलितों की अन्य श्रेणियों के भीतर ही हो सकते हैं, लेकिन ये बड़ी विभाजन रेखा के पार नहीं होते)। भारत में आज युवा 1968 की पीढ़ी नहीं है। उपलब्ध डेटा (वर्ल्ड वेल्यूज सर्वे और प्यू की रिपोर्टें) बतलाते हैं कि वे बहुत ही परंपरावादी हैं और अपने घर के “बुजुर्गों” के अनुरूप ही व्यवहार करते हैं।
फिर भी, अंतर-धार्मिक/अंतर-जातीय शादियां चाहें बहुत कम संख्या में हों, पर वे महत्वपूर्ण हैं। ऐसे विवाहों के प्रति राज्य और समाज का रवैया यह जानने के लिए एक बहुत ही उपयोगी बैरोमीटर है कि लोग कितना खुला दिमाग रखते हैं और समाज बहुलतावाद को कैसे स्वीकारता है। ऐसी बात नहीं है कि किसी एक पक्ष को साबित करने के लिए सबको अंतर-विवाह करना आवश्यक हैं, लेकिन महत्वपूर्ण है कि जिन लोगों ने ऐसा विवाह किया है आप उन्हें कैसे देखते हैं और राज्य उनके प्रति कैसा रवैया रखता है। यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण संकेतक बनाता है कि एक स्थान के लोग कितने लोकतांत्रिक हैं और वे नए विचारों से कितने आलोकित हैं तथा उन्हें स्वीकार करते हैं।
मौजूदा समय में जो कानून मिक्स्ड मैरिजेज को अपना लक्ष्य बना रहे हैं वे बहुत ही गंभीर निषेधक हैं और इस बात का एक सुस्पष्ट संकेत देते हैं कि आज राज्य बहुलतावाद, आधुनिकता और पितृसत्ता के संदर्भ में कहा खड़ा है। अपने समुदाय या क्षेत्र से बाहर शादी करने वाली “हमारी महिलाओं” पर एक झटके में लगाम कसने से, आप औरतों के ऊपर नियंत्रण स्थापित कर देते हो, उन्हें संपत्ति में बदल देते हो और यह सुनिश्चित करते हो कि पितृसत्ता निरंतर बनी रहे। इससे अंतर-सामुदायिक संबंधों पर दबाव बना रहता है और सामाजिक गतिशीलता भी समाप्त हो जाती है। नुरेम्बर्ग कानूनों की तरह ये कानून केवल एक समुदाय को छोटा या अलग दिखाने के बारे में नहीं हैं, लेकिन हमारे जैसे सामंती ढांचे में पारिवारिक संरचनाओं में मुख्य होता है सभी प्रकार के प्रतिगामी रवैयों को बनाए रखना, सजातीय विवाह और रूढ़िवादी परिवारों का बने रहना आवश्यक है अगर हम चाहते हैं कि पितृसत्ता के साथ-साथ सांप्रदायिक और जातीय अंतर बने रहें। इसलिए यह एक राजनीतिक परियोजना भी बन जाती है कि परिवार पर नियंत्रण रखा जा सके और इसके चलते समाज को प्रतिगामी बनाए रखा जा सके।
राजनीति में बदलाव के बिना और भारत को जरूर आधुनिक होना चाहिए ऐसा स्वीकार करने वाली खुली मानसिकता को बढ़ावा दिए बिना मैं 1954 के विशेष विवाह अधिनियम जैसे कानूनों को उस मकसद के लिए काम करने के लिए सक्षम बनाने का कोई तरीका नहीं देख पा रही हूं जिस उद्देश्य के लिए उनको बनाया गया था।
मौजूदा समय में पौराणिक और काल्पनिक प्राचीन हिंदू अतीत में वापस लौटाने वाले जो भाषण दिए जा रहे हैं, जिनमें “स्थायीत्व” का अर्थ है एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था जो असमान है, अलगावपूर्ण है और निश्चित तौर पर महिलाओं और दलितों को बिल्कुल तरजीह नहीं देती है।
एस. रुक्मणि की किताब ‘होल नंबर्स एंड हाफ ट्रूथ्स : ह्वट डेटा कैन एंड कैननॉट टेल अस अबाउट मॉडर्न इंडिया’ में एक टिप्पणी है जो उन्होंने तब की है जब वह मिश्रित विवाहों की छोटी-सी संख्या के बारे में बात कर रही थीं। इंटरव्यू देने वाले एक व्यक्ति ने उन्हें बताया कि वह शादी जैसे एक गलत वेरीअबल पर गौर कर रही हैं। उसने सुझाव दिया कि उन्हें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि प्रेम करने वालों में से कितने लोग दूसरे धर्म या जाति से अपना साथी चुन रहे हैं। लेकिन यह ‘मुगल-ए-आजम’ की मधुबाला जैसा सुनाई देता है – प्यार किया तो डरना क्या?, और अगर यह आज लिखा जाता तो शायद इसे सेंसर का सामना करना पड़ता – क्योंकि यह बहुत ही ज्यादा मुक्ति दायक है।
जीएच: आपके पास आपके माता द्वारा साथ जीये गए एक जीवन का बहुत ही प्यारा विवरण है : “भारत का एक बहुत बड़ा वायदा वे अपने छोटे से घर में ले आए”। क्या आप ऐसा कहेंगी कि वे वास्तव में संविधान को एक अच्छे नागरिक की तरह “जी” रहे थे, और उन शब्दों और आकांक्षाओं को वास्तविक बना रहे थे? भारत को घर के भीतर लाने की उनकी कोशिशों और आपकी कोशिशों में क्या फर्क है?
एससी: मैसूर और देवरिया से आने वाले उन दो लोगों का दिल्ली में आकर मिलना एक इत्तफाक था। लेकिन साथी बनकर एक घर बनाने की राह में वे उससे बहुत ज्यादा बन गए जो वे शायद तब बनते अगर वे एक युगल के रूप में साथ नहीं आते। उऩ्होंने अपनी इकलौती संतान (जो कि मैं हूं) को इतना सक्षम बनाया कि वह अपने वजूद के हर पहलू को पहचाने और उसे अपनी ही गति से स्वीकार करे और वह बने जो वह बनना चाहती है। और जिस तरह का घर उन्होंने बनाया था उसके लिए यह एक बहुत बड़ी श्रद्धांजलि है।
मैं नहीं समझती कि उन्होंने यह सब एक “आदर्श नागरिक” बनने के लिए किया था, लेकिन अपने घर के हर खिड़की-दरवाजे से हवा को अपने साथ कुछ भी उड़ा कर अंदर आने की इजाजत देना और फिर जो कुछ भी भीतर आया है उससे पूरी क्षमता से निपटना – यह सब बहुत असाधारण था। कोई भी व्यक्ति कभी भी स्वयं को पा नहीं पाता, यह एक कभी न समाप्त होने वाली खोज है – लेकिन मैं उनके घर में/हमारे घर में अपने स्वयं के वजूद के साथ रह सकती थी – और इसका अर्थ है कि मेरी जिंदगी के अलग-अलग पड़ावों में बहुत अलग-अलग चीजों का होना। यही अनुभव इतने वर्षों में मेरे मित्रों का भी रहा और मेरे उस परिवार का भी रहा जिसे एक व्यस्क के रूप में मैंने चुना। मैं समझती हूं कि यह उनके द्वारा “भारत के उस बहुत बड़े वायदे को जिसे वे अपने छोटे-से घर में ले आए थे”, उसके लिए एक बहुत बड़ी श्रद्धांजलि है।
मेरे माता-पिता के मित्र, परिवारवाले और जान-पहचान वाले इस बात की गवाही देंगे कि मेरे माता-पिता की उपस्थिति, और उनके सोचने का तरीका उन सभी लोगों के लिए क्या मायने रखता था और वह उन्हें कैसे सक्षम बनाता था। इतने वर्षों में मेरे माता-पिता बहुत सारे लोगों के लिए स्पोर्ट सिस्टम बन गए थे, ये वे लोग थे जिन्होंने हर प्रकार की रुकावटों को पार किया था – फिर चाहे वह कॉलेज में अपरंपरागत विषय को चुनना हो या फिर अपने लिए जीवन साथी चुनना हो। घिसा-पिटा सुनाई देने का जोखिम उठाकर, जैसा कि मैंने किताब में कहा है, वर्जनाएं ही वर्जित थीं।
जन्म की लॉटरी की बात की जाए तो – मैं वही सेब हूं जो पेड़ से गिरा था। मेरे डीएनए और परवरिश – प्रकृति और पोषण, दोनों के मद्देनजर – मैं उन मूल्यों की गवाह हूं और वारिस हूं जो मुझे जीवन जीते हुए प्राप्त हुए हैं। जब मैं जीवन में पीछे मुड़कर देखती हूं तो मैं विश्वास के साथ कह सकती हूं कि मैंने हमेशा जीवन में संकीर्णता से रहित चुनाव किए हैं। मुझे कभी भी जातीयता ( एथिन्सिटी) या पहचानों की उन संकीर्ण चिंताओं ने दिशा-निर्देशित नहीं किया जो कि लोगों पर जन्म के समय जबरदस्ती थोप दी जाती हैं और जिन्हें वे सारी जिंदगी मौन रहकर ढोते रहते हैं। इसलिए अगर ऐसे देखें तो, मैंने भी हमेशा से ही और आज भी भारतीय संविधान के वायदे को वास्तव में अपने छोटे-से घर में जीया है।
कृष्ण सिंह द्वारा हिंदी में अनुवादित। अंग्रेजी में यहाँ पढ़ें।