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आरएसएस पर मेरी किताब झूठ और नफ़रत के खिलाफ़ समुदायों की एकता चाहती है : देवनुरु महादेव

byDevanuru MahadevaandRajendra Chenni
October 31, 2022
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देवनुरु महादेव कर्नाटक में बहुत ही जानी-मानी और सम्मानित साहित्यिक आवाजों में से एक हैं। वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के मुखर आलोचक हैं। उन्होंने हाल ही में आरएसएस : आला मट्टू अगला (आरएसएस : इट्स डेप्थ एंड विड्थ) शीर्षक से एक पुस्तक लिखी है और उसे प्रकाशित किया है।

आरएसएस के देश भर में विस्तार के पदचिन्हों को तलाशती इस पुस्तक की हजारों प्रतियां तुरंत ही बिक गईं एवं शीघ्र ही कई अनुवाद भी उपलब्ध हो गए और तुरंत ही बिकते भी रहे। आला मट्टू अगला की सफलता आरएसएस और उसकी राजनीतिक शाखा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के विस्तार के पदचापों को लेकर कर्नाटक और उसके बाहर पैदा क्रोध और अंसतोष के परिमाण को प्रकट करती है।

उन्होंने यह पुस्तक क्यों लिखी, इसकी असामान्य प्रकाशन शैली और संस्थानों तथा राजनीति पर आरएसएस एवं भाजपा के प्रभुत्व व नियंत्रण के बारे में उन्हें सबसे ज्यादा कौन-सी चीजें चिंतित करती हैं, इस बारे में राजेंद्र चेन्नी ने देवनुरु महादेव से हाल ही में बातचीत की। देवानुरु कहते हैं कि नागरिकों को “आरएसएस के फ्रिंज समूहों द्वारा की जाने वाली विनाशकारी अराजकता” के मूल कारणों की पहचान करने में सक्षम होना चाहिए।

राजेंद्र चेन्नी [आरसी]: दक्षिणपंथी विचारों की आलोचना आपके लेखन या कार्यों के लिए नई बात नहीं है। आपके कार्य एडेगे विड्डा अक्षरा में बहुत से लेख इस तरह के विचारों की कठोर आलोचना प्रस्तुत करते हैं। बहरहाल, अपने वर्तमान लेखन कार्य में आपने आरएसएस के मूल स्वरूप को पकड़ने की कोशिश की है। इस पुस्तक को लिखने के लिए आपको किस चीज ने प्रेरित किया?

देवनुरु महादेव [डीएम]: आमतौर पर मैं ‘दक्षिणपंथ’ और ‘वामपंथ’ शब्दों का इस्तेमाल नहीं करता। एक बार एक बैठक में, जिसका पूरा विवरण मुझे याद नहीं है, किसी सज्जन ने मुझे ‘वामपंथी’ कहा था। मैंने वहां उपस्थित लोगों से कहा कि फ्रांसीसी साम्राज्य के समय में जो लोग परिवर्तन चाहते थे वे सम्राट के बाईं तरफ बैठे हुए थे और जो परिवर्तन नहीं चाहते थे वे दाईं तरफ बैठे थे। फिर मैंने टिप्पणी करने वाले सज्जन से पूछा, “तो, आप वामपंथी हैं या दक्षिणपंथी?” और उन्होंने कहा, “मैं वामपंथी हूं।” वर्तमान में ये शब्द जीवित नहीं हैं। इसलिए, सरलता के लिए मैं ‘अगड़ा’ (फॉरवर्ड) और ‘पिछड़ा’ (वैकवर्ड) शब्दों का इस्तेमाल करता हूं।

आरएसएस के मूल स्वरूप को पकड़ने का मेरा प्रयास बहुत सारे कारणों से प्रेरित था — आरएसएस की उकसाहट, भाजपा सरकार द्वारा छल-कपट, और आरएसएस के फ्रिंज समूहों की विध्वंसक अराजकता। काफी समय से कुछ घटनाएं मुझे परेशान कर रही थीं। मैंने ईडब्ल्यूएस के लिए आरक्षण में बारे में संक्षेप में लिखा था। मैंने कर्नाटक प्रोटेक्शन ऑफ राइट टु फ्रीडम ऑफ रिलिजन बिल, 2021, जो हकीकत में धर्म परिवर्तन को प्रतिबंधित करता है, पर कुछ नोट्स तैयार किए थे।

इस उथल-पुथल भरे वक्त में पाठ्यपुस्तक का विवाद छिड़ गया। इस मामले में सरकार को काफी परेशानी हुई। जब मैंने हेडगेवार के पाठ को पाठ्यक्रम में शामिल करने को लेकर आपत्ति की, तो माननीय शिक्षा मंत्री बी.सी. नागेश ने इसे कोई महत्व ही नहीं दिया। उन्होंने मेरी आपत्तियों पर एक क्षण के लिए भी विचार नहीं किया। मेरा इरादा यह पूछने का था कि विद्यार्थियों के सामने हेडगेवार का परिचय कैसे कराया जाएगा। मैं यह चर्चा करना चाहता था कि बच्चों की शिक्षा के लिए हेडगेवार का आरएसएस, जो हिंदू धर्म के चतुर्वर्ण श्रेणीक्रम पर आधारित था, के संस्थापक के रूप में परिचय कराना उचित होगा। मैंने कहा कि जब मुरली मनोहर जोशी मानव संसाधन विकास मंत्री थे, उस वक्त से ही एनडीए सरकार का पाठ्यक्रम के भगवाकरण का कार्यक्रम चला आ रहा है। मेरे इस बयान पर माननीय शिक्षा मंत्री बी.सी. नागेश ने यह कहते हुए प्रतिक्रिया व्यक्त की कि, “देवनूर महादेव सही हैं। वाजपेयी सरकार के खाते में कई उल्लेखनीय उपलब्धियां हैं। बहुत अच्छी सड़कें बनाई गई थीं।”

अब, मैं इस तरह के बयान पर क्या प्रतिक्रिया दूं? इस पूरे घटनाक्रम के दौरान, भाजपा नेता और आरएसएस समर्थक बुद्धिजीवियों ने झंडे उठा लिए। कुछ और भी थे जो बेहूदे बयान दे रहे थे। जब सनेहल्ली मठ के पुजारी ने पाठ्य (टेक्स्ट) में बसवन्ना के चित्रण को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करने को लेकर मुख्यमंत्री को लिखा, तो मुख्यमंत्री ने यह कहते हुए उत्तर दिया, “हां, कुछ छोटी-मोटी त्रुटियां हैं। उन्हें ठीक कर लिया जाएगा।” बसवन्ना का चित्र मौजूद है, लेकिन उसमें से उनकी आत्मा को निकाल दिया गया है। यदि वे इस तरह की विकृति को एक छोटी-सी त्रुटि कह सकते हैं, तो इस तरह के मामले में क्या कहा जा सकता है? इसने मेरे भीतर गहरी उथल-पुथल मचा दी। इस उथल-पुथल से बाहर निकलने के लिए, मैंने इस मुद्दे के बारे में और ज्यादा जानने के लिए एक महीना पढ़ने में लगाया, ताकि इसकी जड़ तक पहुंचने में सक्षम हो सकूं। इसके बारे में लिखने के लिए मैं और दो हफ्ते जूझता रहा। इसे सुस्पष्ट और सरल बनाने के लिए मुझे इसे संपादित करने में एक महीने से ज्यादा का वक्त लगा।

आरसी: आरएसएस के विचारों के प्रचार-प्रसार में आपने विगत के हानिकर, पुराने ढंग के और खतरनाक विचारों को समकालीन बनाने के लिए किए जा रहे प्रयासों को देखा है। अतीत के साथ उनके पागलपन-जैसे जुड़ाव का कारण क्या है? क्या आरएसएस देश को इतिहास के पुराने समयों में वापस घसीटने का बेतुका प्रयास कर रहा है?    

डीएम: मैंने इस परिघटना को समझने की कोशिश की है, मैंने संगठन के विस्तार के पदचिन्हों को ढूंढने का प्रयास किया है। मैंने जो कुछ भी समझा, उसके बारे में लिखा है।

आरसी : आपने कहा है कि आपकी पुस्तक का उद्देश्य आरएसएस की धारणा और उसकी हकीकत के बीच व्यापक अंतर की ओर ध्यान खींचना है। आज भी आरएसएस को शिक्षित भारतीय मध्य वर्ग से प्रशंसा और बचाव उपलब्ध है। यह कैसे हो गया?

डीएम: यह व्यवसायीकरण का युग है। एक वस्तु का मूल्य उसकी गुणवत्ता के बजाय मार्केटिंग रणनीति की चकाचौंध के जरिये तय होता है। समाज में सुसंस्कृत और शिष्ट मानदंड को बतलाने के लिए ‘इस्तेमाल करो और फेंको’ (यूज एंड थ्रो) का सिद्धांत बढ़ा है। मानव बुद्धिमत्ता, चतुरता और प्रतिभा आम आदमी को बहकाने के औजार बन चुके हैं। मानवीय मूल्यों को प्रोत्साहित करने के बजाय वे लोगों को धोखा देने की रणनीति विकसित करने की कोशिश में ज्यादा धन खर्ज करते हैं। ऐसी परिस्थितियों में हम उस स्थिति में पहुंच जाते हैं जहां हम आज स्वयं को पाते हैं।

आरसी: आपने उद्धृत किया है कि गोलवलकर ने आर्य नस्ल की शुद्धता की रक्षा के लिए यहूदियों के विनाश में नाजियों की युक्तियों की प्रशंसा की और भारतीय अल्पसंख्यकों के खिलाफ इसी तरह की रणनीतियों को अपनाने की वकालत की। यह एक ऐसा विचार है जो आज के समय में भी भयानक है। बहुत सारे बुद्धिजीवियों का मत है कि भारत जनसंहार के मुहांने पर खड़ा है। क्या आपको लगता है कि अल्पसंख्यकों और उनके समर्थकों का जनसंहार आसन्न है?    

डीएम: मुझे लगता है कि एक निश्चित बिंदु के बाद कुछ चीजें हैं जो मानव के तर्क या समझ से परे हैं। हमने कई बार देखा है कि स्थितियां पूरी तरह से बदल जाती हैं। इतिहास दर्शाता है कि कोई भी ‘चरम’ स्थिति अपनी ही कब्र खोदकर दफन हो जाती है। यही वर्तमान में हो रहा है। यहां तक कि हमारे अचेतन मन-मस्तिष्कों में हम सभी मिथकीय हस्तियों की कहानियों को जानते हैं, जिन्हें अपने अहंकार के बहुत बढ़ जाने पर धूल चाटनी पड़ी थी।

आरसी: गोलवलकर और सावरकर, दोनों का ही मत था कि मनुस्मृति को देश का वास्तविक संविधान होना चाहिए। बाबासाहेब आंबेडकर ने सावर्जनिक रूप से मनुस्मृति को जलाया था। क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि आरएसएस संविधान का दुश्मन है?

डीएम: क्या इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए किसी ज्योतिषी से पूछने की जरूरत है, चेन्नी?

आरसी: आपने गोलवलकर का हवाला दिया है, जिन्होंने आर्य नस्ल की श्रेष्ठता का प्रदर्शन करने के लिए केरल का उदाहरण दिया था और बाद में उन्होंने अपना बयान वापस ले लिया था। क्या आज भी यह आरएसएस का मूल सिद्धांत नहीं है? हमें इस विश्वास का विरोध करने के लिए क्या करना चाहिए?  

डीएम: हमें सबसे पहले झूठे और निराधार अनुमानों को शामिल किए बिना सच्चाई को समझना चाहिए। यदि हम अपने विचार केवल आपस में व्यक्त करते हैं, तो यह पर्याप्त नहीं है। हमें इस संदेश को लोगों तक पहुंचाने के लिए छोटी गतिविधियों का आयोजन करना चाहिए। असल में समुदाय को इस मुद्दे पर आगे आकर बोलने की आवश्यकता है।

आरसी: आपने कहा है कि मोदी ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण देकर संविधान को झटका दिया है। ऐसे समय में जब आरएसएस सामाजिक न्याय और आरक्षण की मूल अवधारणाओं को नष्ट कर रहा है, तो आरक्षण के लिए हमारे संघर्ष का स्वरूप क्या होना चाहिए?

डीएम: एक तरफ, स्वरोजगार के सृजन और स्थानीय समुदायों की प्रतिभा को निखारने के लिए छोटे सहकारी संगठनों की स्थापना में पिछड़े वर्गों और ग्रामीण समुदायों को हर हाल में सक्रिय रूप से भागीदारी करनी चाहिए। पूरे गांव की भलाई और इसी तरह के अन्य कार्यों के लिए सामूहिक लक्ष्यों को पूरा करने के लिए प्रत्येक घर से एक वालंटियर को जरूर आगे आना चाहिए। जहां भी संभव हो, इस तरह के समुदायों से लोगों को शैक्षणिक अवसरों का लाभ उठाना चाहिए। दूसरी तरफ, लोगों को सरकार की जन-विरोधी नीतियों और कानूनों पर विचार और विमर्श के लिए सक्षम होना चाहिए। जो हमारी रक्षा करना चाहते हैं उन्हें सदैव ही उन ताकतों पर निगाह बनाए रखनी चाहिए जो संविधान को कमजोर करना चाहते हैं। सहभागी लोकतंत्र और निजी क्षेत्रों में दमित वर्गों के लिए आरक्षण के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए एक आंदोलन की आवश्यकता हो सकती है।

आरसी: आपका तर्क रहा है कि आरएसएस के खिलाफ संघर्ष में सभी संगठनों के लिए आपस में हाथ मिलाना आवश्यक है। इसे हासिल करना क्यों मुश्किल हो रहा है? इस संबंध में कर्नाटक में दलित संगठनों ने क्या भूमिका निभाई है?

डीएम: हाल के घटनाक्रमों की तरफ देखें। पहले राज्य के सभी प्रमुख संगठन अलग-अलग संचालित होते थे। हाल के समय में, वे गठबंधन बनाने के लिए साथ आ रहे हैं। इसे हासिल करने के लिए बहुत सारे संघर्ष हुए हैं। चाहे वह सीएए के खिलाफ विरोध रहा हो या फिर किसान-विरोधी कानूनों के खिलाफ विरोध रहा हो, ये सभी प्रतिरोध संगठनों के फेडरेशनों के तहत किए गए हैं। इतना ही नहीं, जन आंदोलन महामैत्री एक प्रगतिशील मंच है जो अस्तित्व में आया है। मैंने यह करीब से देखा है कि दलित और किसान संगठन लगभग सहयोगी संगठन बन चुके हैं। मेरे हिसाब से यह एक असाधारण घटना है। यहां मुख्य मुद्दा यह है कि जो संगठन फेडरेशन बना रहे हैं वे अपनी विचारधारा और सिद्धांतों के इर्द-गिर्द रहें। जब हम वर्तमान में जीने लगते हैं, तो बहुत-सी समस्याओं का समाधान होने लगता है। तब कर्कशता कम होती है और रचनात्मक विचार विकसित होते हैं। जिसे वे विचारधारा मानते हैं वह खिल भी सकती है।

आरसी: आपके द्वारा सामने रखे गए समाधानों में से एक है विवेक के विकास की आवश्यकता। पक्षपाती मीडिया, फेक न्यूज और प्रोपगेंडा के व्यवस्थित प्रसार के चक्र के बीच क्या यह संभव है?

डीएम: यह सच है कि फेक न्यूज और पेड न्यूज का एक बवंडर चल रहा है, जो पूरे देश में फैल रहा है। साथ ही, जो सच बोलते हैं उन्हें ‘देशद्रोही’ चित्रित करने के लिए एक संगठित, व्यवस्थित प्रचार भी चल रहा है। इस तरह की परिस्थितियों में हमें क्या करना चाहिए? हम उनकी आलोचना करके कब तक निराश होते रहेंगे? क्या यह संभव नहीं है कि जो तकनीक उपलब्ध है उसका इस्तेमाल करके एक मीडिया का निर्माण किया जाए जो करोड़ों लोगों तक पहुंचे? हमारी आंखों के सामने इस तरह के प्रयास किए जा रहे हैं। हम इस तरह के प्रयासों को नहीं पहचानते।

कर्नाटक में कई संगठन www.eedina.com नामक वेबसाइट शुरू करने के लिए एक साथ आए हैं। इस वेबसाइट का संचालन पहले से हो रहा है, लेकिन यह पूर्णरूप से 15 अगस्त को लॉन्च होगी। मैंने भी इस उद्यम के समर्थन के लिए अपना हाथ बढ़ाया है। यह नए युग का आंदोलन है, जिसे सैंकड़ों लेखकों, प्रगतिशील कार्यकर्ताओं और तकनीकविदों द्वारा समर्थन दिया जा रहा है। हम मानते हैं कि व्हाट्सएप और फेसबुक के जरिये लोगों को संगठित करना पर्याप्त नहीं है। इसके बजाय हमने लगभग 100 तालुकाओं में जमीनी स्तर पर मीडियाकर्मियों का समुदाय बनाया है। इस वेबसाइट का वार्षिक अंशदान यानी सब्स्क्रिप्शन 1000 रुपये है। आजीवन सदस्यता 1,00,000 रुपये है। कोई भी व्यक्ति जो 10,00,000 रुपये का योगदान करने का इच्छुक है वह निवेशक बन सकता है। क्या कर्नाटक में 50 लोगों को ढूंढना मुश्किल है जो 10,00,000 रुपये का योगदान कर सकते हैं? इसी तरह से, क्या हम 1000 लोगों को नहीं तलाश सकते जो 10 वर्षों के लिए ग्राहक (सब्स्क्राइबर) बन सकते हैं? बड़ी ही कठिनाई के साथ मैंने निवेशक बनने का फैसला किया है। मैं आपसे और आपके दोस्तों से भी निवेशक बनने की गुजारिश करूंगा।

“एक बार जब यह वेबसाइट लॉन्च हो जाती है, तो आम लोगों की जिंदगी के बारे में सही तथ्य सार्वजनिक मंच पर विमर्श के केंद्र में होंगे। झूठ और नफरत से भरी हुई राजनीति के स्थान पर सच्चाई और प्रेम केंद्र में होंगे। यह जीवन-समर्थक विचारों के साथ समाज के विचार के तौर-तरीकों को बदलने की दिशा में एक अनूठा प्रयास है। यह सच्चाई, न्याय और मानवता की रक्षा और उसे पोषित करने का एक आंदोलन है।”

यह न्यू मीडिया का आदर्श वाक्य है। हम कब तक इस बारे में बातें करते रह सकते हैं कि वे कैसे आग लगाते हैं और समाज को तहस-नहस करते हैं? आज के बाद से हम सच्चाई के बारे में बात करें। जहां तक संभव हो हम छोटी-छोटी गतिविधियों में शामिल हों।

आरसी: आपका कार्य बड़े पैमाने पर प्रकाशित हो रहा है और इसकी मांग लगातार बनी हुई है। क्या आपने कभी यह अनुमान लगाया था कि यह इस तरह की उत्तेजना पैदा करेगा? क्या यह उत्साह आगे राजनीतिक प्रतिरोध की ताकत बढ़ने की तरफ बढ़ सकता है?

डीएम: मैं नहीं जानता कि क्या यह राजनीतिक प्रतिरोध की ताकत में विकसित हो सकता है। मुझे यह अंदाजा नहीं था कि मेरी किताब आरएसएस : आला मट्टू अगला इतने व्यापक रूप से वितरित होगी। आरएसएस : आला मट्टू अगला पुस्तिका का पहला संस्करण जून के अंत में प्रकाशित हुआ था। अब यह जुलाई है। जब मैंने यह पूछा कि कितनी प्रतियां बिकी हैं, तो मुझे बताया गया कि पाठकों ने एक लाख से ज्यादा प्रतियां खरीदी हैं। मुझे यह भी मालूम हुआ कि लोग और अधिक प्रतियां प्रकाशित करने के लिए अभी भी पैसे भेज रहे हैं। यह मेरी समझ से परे है।

यह भी हो सकता है – कि, पुस्तक का प्रकाशन अपने आप में एक अनूठा प्रयोग था। यह दूरदर्शिता के साथ किया गया था। जब छह प्रकाशक पुस्तक की 9,000 प्रतियों को छापने के लिए एकजुट हुए, तो उन्होंने सभी प्रतियां दो दिनों में बेच दी। उन्होंने पुस्तिका का पुनर्मुद्रण शुरू किया। ध्यान देने वाली एक बात यह भी है कि कुछ तालुकाएं पुस्तिका को छापने के लिए अपने प्रकाशन गृह स्थापित करने के लिए एक साथ आगे आईं। मेरे कार्य को प्रकाशित करने के लिए कुछ संगठन भी आगे आए हैं। उदाहरण के लिए, मैसूर में मनसा गंगोत्री से श्रम कुमार ने पुस्तिका की 2000 प्रतियां छापने के लिए अपने मित्रों के साथ मिलकर फंड जुटाया और वे इसे वितरित कर रहे हैं। गुलबर्ग से कुछ महिलाएं और दावणगेरे से कुछ युवा पुस्तक को छापने और इसे वितरित करने के लिए आगे आए हैं। इसी तरह से, एक सेवानिवृत्त अधिकारी ने फैसला किया कि वह अब तक बहुत बातें कर चुके हैं और वह पुस्तिका के प्रकाशन में पैसा लगाना चाहते हैं और इससे एकत्रित धन को दूसरे तालुक में दान करना चाहते हैं। बहुत सारी जगहों पर विवाह और ग़ृह प्रवेश के समारोहों में इस पुस्तिका को भेंट में दिया जा रहा है। कांग्रेस और जेडी (एस) और अन्य दलों के सदस्यों ने किताब की हजारों प्रतियां खरीदी हैं और उसे वितरित किया है। यह मत सोचिए कि इस सबसे भाजपा के सदस्यों ने कोई दूरी बनाकर रखी है!

आरसी: क्या आप शुद्र और दलित युवाओं से कुछ कहना चाहेंगे जो आरएसएस के पैदल सिपाही (फुट सोलजर्स) हैं और विध्वंसक और हिंसक गतिविधियों में शामिल हैं?

डीएम: कम से कम, हम उन्हें भूतपूर्व शूद्र कहें। आइए, हम उन्हें सामूहिक रूप से पिछड़े समुदायों के दलित, आदिवासी और खानाबदोश कहें। अगर आप कहते हैं कि ऐसे समुदायों से आने वाले युवा पैदल सिपाही बन गए हैं, तो मुझे यह अवश्य पूछना चाहिए कि ऐसे युवाओं के लिए रोजगार के अवसर कहां हैं? मोदी ने देश को बेरोजगारी में डूबो दिया है। युवा दिशाहीन हैं और बिना किसी उद्देश्य के घूम रहे हैं। दूसरी तरफ, ऐसे व्यक्ति, समूह और संगठन हैं जो आरएसएस का प्रतिरोध कर रहे हैं। वे आरएसएस के पेड आईटी सेल द्वारा प्रसारित-प्रचारित फर्जी खबरों (फेक न्यूज) को अपने तर्कों से काटने में लगे हुए हैं। हालांकि, वे इस तरह के दुष्प्रचार (प्रोपगेंडा) के खिलाफ युद्ध छेड़ने में अपना सारा समय और ऊर्जा खर्च कर रहे हैं। वे लगातार आरएसएस के बारे में सोच रहे हैं। अगर उन्होंने कुछ समय शांत रहकर चिंतन किया होता, तो उन्हें एहसास होता कि वे द्वीप बन चुके हैं। वे स्थानीय प्रयासों की पहचान कर सकते थे और उनकी तरफ अपनी ऊर्जा को निर्देशित कर सकते थे। अगर ऐसा होता तो सामुदायिक जीवन विकसित हो गया होता। अब मैं उनसे क्या कहूं? अगर मैंने कुछ कहा भी होता तो वे जिन्हें इस तरह की दिनचर्या की आदत पड़ चुकी है वे मुझे सुनने के लिए रुकेंगे नहीं। मैं लाचार हूं। मैं केवल प्रार्थना कर सकता हूं।

कृष्ण सिंह द्वारा हिंदी में अनुवादित। अंग्रेज़ी में यहाँ पढ़ें।

यह बातचीत पहले न्यूज़क्लिक में प्रकाशित हो चुकी है।
राजेंद्र चेन्नी एक अकादमिशियन, लेखक और मनसा सेंटर फॉर कल्चरल स्टडीज, शिवमोग्गा, के निदेशक हैं। वह सांप्रदायिक सौहार्द के कई आंदोलनों में सक्रिय हैं।

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