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जन्माष्टमी और रसूल मियां

byMridula Garg
September 20, 2022
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आज मुल्क में जो हालात बनते जा रहे हैं, उनमें यह मामूली क़िस्सा यादगार लगने लगा है। 

करीब 40 साल पहले की बात है। हमारे घर रसूल मियां नाम के एक बढ़ई आया करते थे। काफी उम्र थी और हम जवान थे। दो स्कूल जाते बेटे थे। रिवायत बन गई की जो भी छोटा बड़ा काम होता रसूल मियां ही करते। उन दिनों मोबाइल तो होता नहीं था। उन्होंने हमें एक लैंड लाइन नंबर दिया हुआ था, जो शायद उनके बेटे के घर का था। उसी पर फ़ोन करके हम उन्हें बुला लेते थे। 

दूसरी रिवायत यह बनी कि वे हमेशा दोपहर का खाना हमारे साथ खाते। पति आनन्द कभी होते कभी नहीं पर बच्चों के स्कूल से लौटने पर ही भोजन लिया जाता था। एक दिन…. जन्माष्टमी थी उस दिन, मैं उन्हें काम करता छोड़ बाहर चली गई। शाम को लौटी तो चाय का वक्त हो रहा था। मैं चाय नाश्ता ले कर  रसूल मियां के पास गई तो उन्होंने लेने से मना कर दिया।  बहुत उदास लगे। मैंने पूछा क्या तबियत ठीक नहीं  थी तो  बोले, नहीं मेरा जन्माष्टमी का उपवास है पर आँखों से आँसू ढुलक गए। मैं कुछ कह पाती, उससे पहले वे उठ कर चले गए। मैंने रसोइए से पूछा क्या दुपहर, खाना भी नहीं  खाया था तो जवाब मिला, “ओहो वह तो हम देना ही भूल गए।” बच्चों के पास दोस्त आ गए थे सो उन्हें किसी की फ़िक्र न रही थी। मुझे अपने पर बहुत गुस्सा आया, बच्चों और रसोइये पर भी।

अगले दिन मैंने कई बार उनका फ़ोन नंबर मिलाया पर किसी ने उठाया नहीं। दो एक बार और मिलाया किसी ने नहीं उठाया। फिर मैं और बातो में मसरूफ़ हो गई। बढ़ई का कोई काम भी न निकला। करीब महीने भर बाद अचानक एक दिन रसूल मियां शिद्दत से याद आए तो उनका दिया फोन नम्बर लगाया। एक बंदे ने उठाया, कहा मैं तो महीना पहले ही इस घर में आया हूँ।जो परिवार यहाँ रहता था, मकान छोड़ रहा था तो जाते हुए अपना फ़ोन नम्बर भी मेरे नाम दर्ज करवाता गया। 

मैंने पूछा क्या कोई बुज़ुर्ग बाशिंदा भी था उनके साथ तो बोला, “नहीं दो जवान मियां बीवी और दो बच्चे थे, बस।“

तब रसूल मियां…“आपके पास उनका नया पता है क्या? या फ़ोन नम्बर?”

वह कुछ तल्ख़ी से बोला,” मैं उनका रिश्तेदार नहीं हूँ, बस इस घर में रहने वाला नया 

किरायेदार हूँ। सारी उम्र का ठेका नहीं ले रखा मैंने।” 

बात तो सही थी। माफ़ी माँग कर मैंने फ़ोन काट दिया। 

पर रसूल मियां? ज़रूर उस जनमाष्टमी उनकी तबीयत ख़राब रही होगी और वे… 

इंतकाल फरमा गए‌ होंगे!

कुछ दिन अफ़सोस के साथ गुनहगार महसूस करते बीते। फिर देखती क्या हूँ कि 

एक दुपहर, अपना बक्सा थामे, पहले से जवां दिखते रसूल मियां चले आ रहे हैं। 

बच्चे उनके गले से जा लगे। उस दिन उन्हें काफ़ी फटकार मिली थी और वे भी 

रसूल मियां के लिए दुखी थे। कहाँ चले गए थे… मैंने रुआंसे स्वर में कहा। इतना फ़ोन 

मिलाया, सोचा आप बीमार होंगे शायद….

“था तो,” उन्होंने ठहाका लगा कर कहा, “डाक्टर ने कहा बचेंगे नहीं। मैंने सोचा 

आखरी बचे दिन बेटे की  बेमुरव्वत सोहबत में काटने से बेहतर है, मस्जिद में जा पड़ूं। 

फिर अल्लाह जाने और उसका करम। तो बीबीजान वहीं पड़ रहा। पर अल्लाह बड़ा कारसाज़

है। कुछ दिनों में भला–चंगा हो गया। पड़ोसी बतला गए थे, बेटा बला टली मान, बीवी के 

रईस बाप के घर जा बैठा था। पर मेरे बक्से ने साथ न छोड़ा। तो दिन उसके सहारे

और रातें माजिद में कटने लगीं।

 

बहुत दिन हो गए तो सोचा, अब तक तो आपके घर भी कुछ न कुछ टूट लिया होगा, 

अपना तो दूसरा जन्म हो लिया, अब ख़फ़ा क्या रहना, सो चला आया, कह उन्होंने फिर 

ठहाका लगाया। 

“तो मेरा क़यास सही था, आप ख़फ़ा थे तभी मेरा फ़ोन न उठाया।“

“ख़फ़ा नहीं उदास था। जब आपके घर के लिए चलता था तो घर पर कह कर आता,

हमारे लिए मत पकाना, हमारा खाना बाहर है।और उस त्योहार के दिन आपने हमें 

खाने को न पूछा। बेटे से न कहा। हँस देता तो शर्मिंदा हो जाते हम।” 

मैंने शर्मिंदा हो सिर झुकाया तो बोले, “रोनी सूरत न बनाओ बीबीजान, क्या जानें जन्माष्टमी

पर उपवास रखने की वजह से  ही अल्लाह ने इस गुनहगार को बचा लिया हो।“

आज पहले खाना, छोटा बेटा ललक कर बोला, फिर मेरे साथ कैरम। दो गोटियां खो गईं। 

आप नई बना देंगे ना।

वह उन्हें पकड़ अपने कमरे में ले गया।

मैं रसोई में जा कर पहले तबीयत से रोई। फिर खीर बनाई। 

हम सबने दुपहर का खाना साथ खाया। पहले की तरह।

रसूल मियां आते रहे, दुपहर का भोजन हमारे साथ करते रहे पर कसम खुदा की,  

कभी जो जन्माष्टमी का उपवास रखना भूले हों। अलबत्ता हमने कभी न रखा। हमारे लिए

उनका करम काफ़ी था।

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