निम्नलिखित आशुतोष पोतदार के नाटक “आनंदभोग मॉल” का एक अंश है, जिसका हिंदी में अनुवाद व्यंकटेश कोटबागे ने किया है।
यह अनुवाद, हिंदी कवि उदयन वाजपेयी द्वारा संपादित और द रज़ा फाउंडेशन में अशोक वाजपेयी द्वारा प्रकाशित हिंदी पत्रिका, समस के वर्तमान अंक का हिस्सा है। मोहित टकलकर द्वारा निर्देशित, इस नाटक का प्रदर्शन सबसे पहले आसक्त कलामंच, पुणे की टीम ने किया था। अब इस नाटक का निर्देशन रुचिका खोत, भालजी पेंढारकर सांस्कृतिक केंद्र एवं सर्जनशाला प्रोडक्शन, कोल्हापुर के साथ कर रहीं हैं।
दृश्य दूसरा
(स्त्री वृत्तान्त पढ़ रही है। उस पर कुछ निशाने लगा रही है। टिप्पणियाँ बना रही है। पुरुष बाहर से आता हुआ दिखता है। उसी की ओर देखता है। उसकी पीठ पीछे बैठता है। उसे पास लेता है। स्त्री प्यार से उससे छुटकारा पाने का प्रयत्न करती है। वह स्त्री के बालों में हाथ फेरते हुए बात करता है।)
स्त्री : (प्यार से छुटकारा पाते हुए) मुझे काम करने दो।
पुरुष : कितना काम करोगी।
स्त्री : हाँ (वह उसकी पढ़ाई में कुछ रोमांटिक हँसी-मज़ाक़ करके व्यंग लाने का प्रयत्न करता है। उससे वह छुटकारा कर लेते हैं) चाय बना लूँ?
पुरुष : मेडिकल एसोसिएशन में पीकर आया हूँ।
स्त्री : आधा कप ?
पुरुष : (सौम्य हंसते हुए) नहीं चाहिए। (बूट निकालते हुए) तेरा क्या चल रहा है?
स्त्री : एड्स देख रही हूँ (पेपर दिखाते हुए) यह साईट देख कैसी लगती है? देख, पीछे कितनी झाड़ी हैं।
पुरुष : फ्लैट लेने का ठान लिया लगता है।
स्त्री : (वह पेपर का पन्ना बाजू में रखते हुए) पिछले साल कितना टैक्स दिया। जल्दी कर्जा ले लेंगे तो जल्दी लौटा पायेंगे भी।
पुरुष : यानी यहीं रहने का?
स्त्री : (पेपर समेटते हुए) फिर जाना कहाँ ?
पुरुष : तू ही तो पूना जाने की कह रही थी।
स्त्री : लगता है रे। फिर लगता है मेरी यहाँ की पक्की नौकरी, तेरी प्रेक्टिस, पूना में यह सब थोड़े ही मिलने वाली है। और इसके अलावा आई, बाबा का क्या करें, यह प्रश्न ही है। (वह एकदम शान्त )
पुरुष : इसमें इतना सोचने का क्या है। उन्हें भी साथ ले जायेंगे। (शान्ति)
स्त्री : गाँव छोड़कर वे कहाँ अपने साथ आने वाले हैं।
पुरुष : ले जाने का।
स्त्री : सब कॉम्पिलीकेटेड। अलावा दूर जाने पर प्रॉपर्टी कॉम्प्लिीकेशन्स? पूना का रहने दो। जैसे भी हो यहीं रहेंगे और यहाँ अब कितनी तरह-तरह की कम्पनियाँ आ रही हैं। जगह की कीमतें बढ़ रही हैं (पेपर का विज्ञापन पढ़ते हुए) यह देख ‘आशियाना रेसिडेन्सी’ विशाल परिवेश, स्विमिंग पूल शहर के बीचों बीच। जिम भी है। दस मिनिट की दूरी पर स्कूल, कॉलेज भी हैं।
पुरुष : कौन सी रेसिडन्सी ?
स्त्री : आशियाना।
पुरुष : मोह मेडल दिखता है।
स्त्री : किससे?
पुरुष : नाम से।
स्त्री : हट।
पुरुष : विज्ञापन में हरा रंग है न ?
स्त्री : यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं है।
पुरुष : वहाँ होगा नहीं पर उधर के चौराहे के घर का नाम आशियाना मंज़िल नहीं क्या?
स्त्री : इसलिए ऐसा तो नहीं कि केवल मुसलमान ही घर को ऐसा नाम देते हैं?
पुरुष : वह भी सच है। लेकिन मुस्लिम कॉन्ट्रॅक्टर कहाँ होते हैं?
स्त्री वह ठीक है लेकिन रिस्क लेने की ज़रूरत नहीं।
पुरुष : पूरे विचार के साथ सब शुरू करें।
स्त्री : अपार्टमेंट का नाम क्या हो — वेंकटेश विला, गणेश अपार्टमेंट नहीं तो महालक्ष्मी टावर्स।
पुरुष : (वह आगे आकर देखता है) यह देख (दिखाते हुए) ड्रीम पार्क- पूरे परिवार के लिए परिपूर्ण, घर नहीं स्वर्ग, ३/२ बी. एच. के. प्रशस्त पार्किंग।
स्त्री : वाव! फिर, वास्तुशास्त्र के नियम ?
पुरुष : इतना उसमें क्या देखना होता है?
स्त्री : वह शास्त्र है।
पुरुष : उसमें क्या शास्त्र है?
स्त्री : माँ देवी कहती है वह सभी शास्त्र हैं जो विश्वास के साथ किया जाता है।
पुरुष (उपहास के साथ) जय माँ देवी (विषय बदलते हुए) मुझे एक बात बता, हम टू बी. एच. के. फ़्लैट में ही रहेंगे?
स्त्री : इतना तो नहीं चाहिए? अपने लिये और अपने एक बच्चे के लिये।
पुरुष : एक ही बच्चा?
स्त्री : याने?
पुरुष : थ्री बी. एच. के. देखेंगे। दो बच्चे तो चाहिये।
स्त्री : अरे बाबा।
पुरुष : एक लड़का और एक लड़की से घर में बेलेन्स रहता है।
स्त्री : बड़ा महत्वकांक्षी है।
पुरुष : मेरी माँ को दो लड़कियाँ, उसके बाद हम दोनों।
स्त्री : तुम्हारी माँ को सल्यूट।
पुरुष (इतराते हुए। ) दो बच्चे चाहिये ही।
स्त्री : बच्चों का बाद में देखेंगे। पहले फ्लैट।
पुरुष : (अपने से) अपने बच्चों के संस्कार होने चाहिए। (उसकी ओर देखते हुए प्यार से कहता है) हमारे अम्मा की जहाँ तबादला होता वहाँ वे ब्राह्मण पड़ोस को देखते थे। (मुस्कुराते हुए) कहते थे संस्कार अच्छे होते हैं।
स्त्री : इसलिये मेरा पड़ोस क्या ? (वह हँसता है)
लेकिन मुझसे प्रेम क्यों करने लगे इसे एक बार तो बता दो।
पुरुष : अब पूरी हो गयी न रामायण।
स्त्री : (प्यार से) नहीं एक बार बता न।
पुरुष : (लाड़ से) तू भाती थी।
स्त्री : क्यों?
पुरुष : अब क्यों पूछ रही है?
स्त्री : यूँ ही।
पुरुष : (विचार करते हुए) अच्छी दिखती थी इसलिये भाती थी।
स्त्री : और?
पुरुष : मीठी बात करती थी।
स्त्री : यानी कैसी?
पुरुष : अब कैसे बताऊँ? बहुत दिन हो गये।
स्त्री : (प्रेम से) इसलिये वह भूलने वाले हो क्या?
पुरुष : कैसे बताऊँ? (सोचते हुए) उस समय तू ऐसे ही सहलाते सहलाते बात करती थी। हम कितने जोर-जोर से बात करते थे। लेकिन अन्त में पता भी नहीं चलता कि तू मीठी बात करके अपनी बात कब चला लेती और कब अपना साध लेती।
(मोबाइल पर एस. एम. एस. आने का रिंग टोन । कण्ठस्थ हुआ क्या?) अरे धत्-तेरी (गड़बड़ी से उठता है। बैग की ओर जाता है। स्क्रिप्ट निकालता है और पढ़ने लगता है।) निकली रेलगाड़ी निकली। छुक-छुक-छुक निकली रेलगाड़ी। यहाँ के पसीने का कोयला, संस्कृति की पटरी, चलाती है ग्लोबल की लड़की निकली आरोग्य की गाड़ी, छुक-छुक-छुक निकली आरोग्य की गाड़ी।
स्त्री : वही बार-बार कितना पढोगे?
पुरुष : याद ही नहीं होता।
स्त्री : तू ही लिखता है और तुझे ही कण्ठस्थ करना पड़ता है?
पुरुष : हम प्रध्यापक नहीं जो घण्टों भर बिना पढ़े भाषण करें… और मैं जो लिखता हूँ उसे नाटक से बनाना यानी मदन होने का समय आता है।
स्त्री : एक जगह बैठ जाओ और पढ़ो। याद कर। रिहर्सल कर।
पुरुष : कहाँ इतना समय मिलेगा?
स्त्री : आज क्लिनिक मत जा ।
पुरुष : (हँसते हुए) क्या पेशेंट ऐसे घर में बैठने देंगे? थोड़ी देर हो गयी तो चार फोन आयेंगे। आज अब ज़रूर करने की सोच रहा था पर महानगर पालिका के ऑफीसर्स के साथ दोपहर में मीटिंग है। कर्मचारी की बस्ती पर हमारे एसोसिएशन द्वारा किया गया रिपोर्ट उनके साथ बैठकर फायनलाइज़ करना है।
स्त्री : गाँव की व्यवस्था करनी हो तो ये सब होगा ही।
पुरुष : सब हमारे सम्बन्धी है… चार घण्टे नौकरी करना काफी नहीं होता।
स्त्री : समाज कार्य… कुछ भी हो, आजकल तुम्हारी एसोसिएशन चार्ज्ड हुई होगी न? अमेरिका के लोग काम देखने आनेवाले हैं…।
पुरुष : बस, सभी उत्साह से भरे हैं।
स्त्री : पच्चीस-तीस लाख तो मिलेंगे न! और इसके अलावा अमेरिकी ट्रिप।
पुरुष : यस। अमेरिका ! चौहान कल से बता रहा था कि अमेरिका जाते समय क्या-क्या कपड़े ले जाने है। इसकी लिस्ट बना रहा हूँ।
स्त्री : अमेरिका कॉलिंग। अमेरिका जाने के लिए कितनी झंझटें?
पुरुष : केवल अमेरिका ही नहीं। पच्चीस लाख क्या सहज मिलने वाले हैं?
स्त्री : इसे मत बताना। तुम्हारी एसोसिएशन अमीर डॉक्टर लोगों की है। पच्चीस लाख क्या सहज ही मिलेंगे।
पुरुष : लेकिन समाज में सम्मान मिलेगा प्रोफेसर बाई। अमेरिका की किसी फंडिंग एजन्सी द्वारा मदद मिलने पर लोगों को अभिमान लगेगा। अलावा इसके छोटे गाँवों के प्रश्न विश्व के स्तर पर दर्ज होंगे। तुम्हारे कॉलेज में समाज कार्य के एन. एस. एस. के कार्यक्रम में पथनास्य प्रस्तुत करते हो उतना ही काम यहाँ नहीं होता।
स्त्री : तुम ग्रेट हो बाबा। हमें सर्टिफिकेट के लिए आये हुए लड़कों को लेकर यह सब करना पड़ता है।
पुरुष : और प्राध्यापकों को भी कहाँ सामाजिक क्रान्ति करनी होती है।
स्त्री : तुम्हारा काम बड़ा है। भारत के प्रश्न के लिए अमरिका का पैसा । कुछ भी हो रिटर्नस तो तड़ातड़ मिलते हैं।
पुरुष : यस। कष्ट करो और पैसे पाओ।
स्त्री : मस्त! (उसके पास जाते हुए) हेल्थ के नाम पर फॉरेन एजन्सी से ग्राउण्ड रियल्टी पर काम करने को पैसा (उसका हाथ पकड़कर चक्कर काटती है।) हमारी मिट्टी हमारे लोग। मिस्टर डॉक्टर आनन्दराव पाटिल, खानदानी मराठा किसान का लड़का (वह मुलाकात लेने वाले की नकल उतारते हुए) हेलो, डॉक्टर पाटिल कांग्रेच्युलेशन्स फॉर दिस ग्रांट। भारत के हेल्थ सम्बन्धी इश्युज पर काम करने के लिये अमेरिका पैसा देता है। आप नेक्स्ट वीक अमेरिका जा रहे हैं। आपको आज कैसे लगता है? मेडम थैंक्स यू.सी. मेरी जड़ें यहाँ की मिट्टी में है। मेरा गाँव, मेरे लोग मुझे इशारा करते रहते हैं। मैंने यह काम हमें उनके लिये कुछ करना चाहिये इस फीलिंग से हाथ में लिया है।
पुरुष : (अपने से) गाँव के लोग खुश हो जायेंगे। हमारी सोसायटी को बुलायेंगे, सत्कार करेंगे। उन्होंने मेरे लिये कितना किया है। (यादों में खोया है।) गुरुओं ने मन लगाकर, जी जान से पढ़ाया इसलिये यहाँ तक आ गया। यह सुनकर तुझे मज़ा आया न। रिश्तेदार लोग गोरा-चिट्टा दिखने से मुझे ब्राह्मण करके बुलाते थे। (हँसता है) जाने से पहले आबा ने हाथ में हाथ लेकर अण्णा से कहा, ‘आनन्द को बहुत पढ़ा, पाटिल के घराने का नाम करना चाहिए।’ (रुकता है) मेरी पढ़ाई के लिये अण्णा ने कितने कष्ट उठाये। छोटी-छोटी नौकरियाँ की। हमारी पढ़ाई के लिये निरन्तर तबादला । नहीं तो हमारे घराने में ऐसी नौकरियाँ कौन करता? और किसी का सपोर्ट न रहते हुए…
स्त्री : फिर तुम शहर के होकर रह गये।
पुरुष: कोई रास्ता नहीं था।
स्त्री : ऐसा कुछ नहीं। गाँव में न रहते तो खाली पेट न रही।
पुरुष : ऑफकोर्स नहीं। खानदानी खेती और वह भी तरी की भूमि ।
स्त्री : जी जी करने वाले लोग और सिर पर आँचल ओढ़ने वाली स्त्रियाँ।
पुरुष : वह हमारी परम्परा है।
स्त्री : ( उपहास के साथ) यह परम्परा ?
पुरुष : हमें देखकर तुझे क्या लगता है?
स्त्री : अरे तुझे क्या होता है यानी क्या? परम्परा?
पुरुष : अपनी सोशालॉजी मुझपर मत थोपना और सिर्फ हमारी परम्परा की बात मत करना मुझे मालूम है तुम्हारे अँधेरे घर के बीच के हिस्से में स्त्रियों की आवाज़ कैसे शान्त की जाती है।
स्त्री : मुझे भी मालूम है।
पुरुष : लेकिन उसके सम्बन्ध में कभी कुछ नहीं कहा?
स्त्री : तुझे समझ लेना चाहिये।
पुरुष : हमारी परम्परा भी तुझे समझ लेनी चाहिये।
स्त्री : मत कर हमारी तुम्हारी।
पुरुष : हमारी बात निकालकर शुरुआत करने की तुझे क्या ज़रूरत थी? कितना स्वातन्त्र्य देना होता है?
स्त्री : ओह, द ग्रेट मराठा डॉक्टर आनन्दराव पाटिल मुझे स्वतन्त्रता देगा।
पुरुष : हमेशा हमारी घूँघट के अन्दर की स्त्रियाँ दिखती हैं।
स्त्री : दिखायी देते है ना तेरे अण्णा । वन्दन करने गयी तो बोले ‘क्या आनन्दा, स्त्री पुरुष जैसे बाल रखती है।’
पुरुष : उन्होंने बालकटी स्त्रियाँ कभी देखी नहीं थी।
स्त्री : अण्ट-सण्ट मत बक। नौकरी के बहाने वे घूम चुके हैं। खूब लोग देखे हैं और उनकी लड़कियों ने भी बाब कट रखा है।
पुरुष : वह बाद में। तेरे समय में उन्हें मालूम नहीं था और आई ने तब संहाल लिया था न।
स्त्री : (अकड़ से) किया ना। रसोई घर में जाने पर घूँघट लेने कहा…
पुरुष : तुम्हारे लोग भी कुछ कम नहीं है। शादी के बाद पहले ही दिन तेरा मामा, सिरियसली बता रहा था, ‘हमारे लोगों में भी कुछ हेंडसम लोग थे।’ मैं बता रहा था सिरियसली कह रहा था, “मैं माँस नहीं खाता’ पर सुन ही नहीं रहा था। फिर अपनी वही डुगडुगी, ‘हम माँस नहीं खाते, हम ज़्यादा तीखा नहीं खाते’ हमें मालूम नहीं माँस किसने महँगा किया है।
स्त्री : मुझे मालूम था यह होकर ही रहेगा —
पुरुष : ( उछलते हुए) अरे हम क्या रास्ते पर पड़े हैं, आते-जाते हमारे ऊपर किसी भी तर के ताने मारें ।
(शान्ति)
स्त्री : (आवाज़ उठाती हुई) यह तो होगा तभी मैं कह रही थी कि हम बिना शोरगुल के शादी करेंगे। लेकिन तुझे ज़्यादा ही मस्ती थी ।
पुरुष : पर शादी ठीक-ठाक हुई न।
स्त्री : क्या ठीक-ठाक ? हमारे रिश्तेदारों को अच्छा न लगने पर भी माँस दिया गया।
पुरुष : खाना हम देनेवाले थे और हमारी रस्म के मुताबिक ऐसा ही होता है।
स्त्री : क्या धानबे कुल दिखाना था?
पुरुष : खुद को प्रोफेसर समझती हो और माँस खाने पर जात-पात पर उतर आती हो।
स्त्री : जात की बात तूने ही उठायी थी।
पुरुष : मैंने? और माँस खाने की बात करके जात को कौन लाया।
स्त्री : अगर हमें पसन्द नहीं था तो वैसा खाना बनाया ही क्यों?
पुरुष : तुममें से कोई माँस नहीं खाता? सच बता?
स्त्री : (वह रुककर बोलती है) दरअसल शादी में वह नहीं होना था।
पुरुष : विद्रोह करते समय थोड़ा एडजस्टमेन्ट करना पड़ता है।
स्त्री : हमें नामंजूर सत्यनारायण की पूजा करके? वर्ना आन्दोलन के किसी दोस्त के पुरोहित को बुलाकर विवाह किया सुनकर झगड़ा करते हो।
पुरुष : तू भी माँ देवी के आश्रम जाती है….
स्त्री : तुझे उसका कारण मालूम है।
पुरुष : मेरे भी कारण तुझे मालूम हैं।
(पॉज़)
स्त्री : अरे, लेकिन निमन्त्रण पत्रिका पर हमारे लोगों के नाम नहीं थे।
क्यों? कुलकर्णी, देशपाण्डे नामों के आने से तुम्हारा वंश गड़बड़ा जाता?
पुरुष : हमारे लोगों ने सीधी भूमिका लेकर नाम नहीं डाले। पर तुम लोगों ने तो डर के मारे पत्रिका ही नहीं बनायी। क्यों? मेरे साथ विवाह कर रही है इसलिये? फिर भी वे सब मिस्री डालकर मीठी बात करेंगे। मीठी-मीठी बातें कर तेरे मौसी ने अम्बाबाई को आने कहा। आई को ले गया तो तेरी मौसी उसके घर की कामवाली बाई को लेकर बैठी थी लेकिन मेरी आई को अन्दर नहीं आने दिया (शान्ति) आई को अन्दर जाकर अम्बाबाई का दर्शन लेना था (रुकता है) बाहर आकर गुस्से में भीतर गयी। धत् तेरी की।
स्त्री : धत् तेरी क्या कहते हो….
पुरुष : सॉरी (रुकता है) पर तुम लोग….
स्त्री : तुम लोग? तुम लोग, तुम लोग क्या कह रहे हो?
पुरुष तुम लोग याने तुम लोग।
स्त्री : तुम लोग याने कौन?
पुरुष : बताता हूँ। तुझे छोड़ता हूँ क्या? तुम लोग याने बामन।
स्त्री : (ज़ोर देकर) आनन्द, जात सम्बन्धी कुछ नहीं कहना। इसके पहले भी कई बार कह चुकी हूँ।
पुरुष : मालूम है। तू ही पुराने गड़े मुर्दों को उखाड़ती है और मुझे बोलने को मजबूर करती है…
स्त्री : (ऊँची आवाज़ में) अब रुकोगे भी?
पुरुष : अपने पे गुज़री तो मैं रुक जाऊँ? और तू? मैं कहीं नहीं हूँ, शुद्ध निर्मल? अब मैं बोलता हूँ। सुन, खानदानी मराठे का लड़का ब्राह्मण की लड़की के साथ व्याह करता है याने वह पुण्य कर्म किये जाते हैं।
स्त्री : ओ, द ग्रेट मराठा (ऊँची आवाज़ में) कुलीन ब्राह्मण की बेटी मराठे के लड़के के साथ विवाह करती है याने उस पर उपकार किये जाते हैं।
पुरुष : तुम्हारी कितनी पीढ़ियों ने सताया है…
स्त्री : तुम लोग भी निष्पाप नहीं थे।
पुरुष : तुम्हारे कर्त्तव्य की लिस्ट पढ़ते समय मेरा खून खौलता है।
स्त्री : अण्णा कल परसो तक नौकरों को पिछले दरवाज़े से चाय देते थे।
पुरुष : तुम तो दूसरों के साये को अपने पास फटकने नहीं देती थीं।
स्त्री : तुमने ज़्यादा सताया है।
पुरुष : तुमने कुछ कम नहीं।
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