हम सब एक ऐसे वक़्त से गुज़र रहे हैं जहाँ ज़ुल्मो सितम के इस दौर का दूर-दूर तक कोई अंत नज़र नहीं आता। मगर हमारा देश इन अत्याचारों का मात्र दर्शक नहीं है। इस देश के नागरिकों ने ये साबित किया है कि नफ़रत, अन्याय और भेद-भाव के ख़िलाफ़ हमेशा आवाज़ उठी है और आगे भी उठती रहेगी। फिर चाहे उसके लिए सड़कों पे उतरना हो, लिखना, पढ़ना, हसना, गाना हो, प्यार करना हो या जेल की सलाखों कि पीछे ही क्यों न जाना हो।
प्रतिरोध की इसी भावना को दर्शाती है बोल के इस हफ़्ते की पेशकश, सत्यम् की आवाज़ में, जावेद अख़्तर की कविता, ‘जो बात कहते डरते हैं सब, तू वह बात लिख’, परिप्लब चक्रबर्ती के चित्रण के साथ।
जिनसे क़सीदे लिखे थे, वह फेंक दे क़लम
फिर खून-ए-दिल से सच्चे क़लम की सिफ़ात लिख
जो रोज़नामों में कहीं पाती नहीं जगह
जो रोज़ हर जगह की है, वह वारदात लिख