हम सब एक ऐसे वक़्त से गुज़र रहे हैं जहाँ ज़ुल्मो सितम के इस दौर का दूर-दूर तक कोई अंत नज़र नहीं आता। मगर हमारा देश इन अत्याचारों का मात्र दर्शक नहीं है। इस देश के नागरिकों ने ये साबित किया है कि नफ़रत,अन्याय और भेद-भाव के ख़िलाफ़ हमेशा आवाज़ उठी है और आगे भी उठती रहेगी। फिर चाहे उसके लिए सड़कों पे उतरना हो, लिखना, पढ़ना, हसना, गाना हो, प्यार करना हो या जेल की सलाखों कि पीछे ही क्यों न जाना हो।
प्रतिरोध की इसी भावना को सलाम करते हुए, इस हफ़्ते बोल में हम प्रस्तुत करते हैं, दुनू रॉय की व्यंग्य कविता ‘ऐ ज़ुल्म! आ मुझे मार’, डिजिटल आर्टिस्ट सिद्धेश गौतम उर्फ़ बेकरी प्रसाद की उम्दह प्रदर्शन के रूप में।
तू मारेगा किसे, तू खुद घायल है
खामोश करेगा जिसे, वो तेरा सायल है
सीना काटेगा, फूटेगा तेरी मौत का अंगार
लाश में जान नहीं पर गले में तेरी हार
ऐ ज़ुल्म आ मुझे मार,ऐ ज़ुल्म आ मुझे मार