साहिर लुधियानवी के गीत और नज़्में आज के दौर में एक बार फिर से प्रासंगिक और अहम लग रहे हैं। सांप्रदायिक अलगाव, नफ़रत, जंग, आर्थिक विषमता और सामाजिक व्यवस्था की खामियों पर पैनी नज़र और उनके ख़िलाफ़ बेबाक़ कलम का नतीजा था कि साहिर के लिखे नफ़्सियाती और नज़रियाती अलफ़ाज़ आज भी विरोध के जज़्बे का इज़हार करने के लिए मुनासिब हैं।
मौजूदा राजनैतिक हालातों के मद्देनज़र, जहाँ इश्क़ को ग़ैरक़ानूनी करार कर दिया गया है और सांप्रदायिक मतभेद भड़काया जा रहा है, साहिर की लिखी फिल्म “ताज-महल” के गीत के बोल याद आते हैं :
जुर्म-ए-उल्फ़त पे हमें लोग सज़ा देते हैं
कैसे नादान हैं, शोलों को हवा देते हैं
बोल के इस अंक में पेश है साहिर की नज़्म “परछाइयाँ”, जिसे प्रगतिशील लेखक सरदार अली जाफरी ने सबसे उत्कृष्ट जंगविरोधी नज़्म कहा है। ये नज़्म नफरतों के दौर में अमन और मोहब्बत की बात करती है। इसे पढ़ा है सईदा हमीद ने। सईदा जानी मानी सामाजिक और नारीवादी कार्यकर्ता, योजना आयोग की पूर्व सदस्य और इस्लाम संस्कृति और उर्दू साहित्य की विशेषज्ञ हैं।