पाँच साल पहले, 28 सितम्बर को एक भीड़ ने मोहम्मद अख़लाक़ की जान ले ली क्योंकि उन्हें शक था कि अख़लाक़ के घर में गौ मास है। शक गलत था, पर जान वापिस नहीं आ सकती। शायद हम में से किसी ने उस दिन ये नहीं सोचा था कि गाय के नाम पर हत्याओं की वो महज़ एक शुरुआत थी। धर्म, जाति और गाय के नाम पर मॉब हिंसा और लिंचिंग आज आम है।
पर दादरी के मोहम्मद अख़लाक़ से सहारनपुर के अख़लाक़ सलमानी तक, सब याद रखा जाएगा।
इसी भाव के साथ बोल के इस अंश में हम पेश करते हैं, नवीन चौरे की कविता, वास्तविक कानून, उन्ही की ज़ुबानी। नवीन को ये कविता सुनाने में तकलीफ़ होती है और वे चाहते हैं कि उनकी ये कविता जल्द से जल्द अप्रसंगिक हो जाए।
कौन थे वो लोग जिनके हाथ में थी लाठियाँ ?
न पुलिस न पत्रकार
नागरिक हूँ ज़िम्मेदार
सीधा उत्तर दो मुझे
है सड़क पे ख़ून क्यों ?
वो लोग आख़िर कौन थे ?