प्रमुख कन्नड़ विद्वान और तर्कवादी विचारक डॉ. एमएम कलबुर्गी की आज ही के दिन 30 अगस्त, 2015 को गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। इस मामले में अभी तक किसी को सज़ा नहीं मिली है। इसी तरह उनसे पहले तर्कवादी नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे की हत्या की गई थी। इसी सबको लेकर 5 सितंबर, 2015 को कवि-पत्रकार मुकुल सरल ने कविता लिखी- ‘बेचारे हत्यारे!’, ‘इतवार की कविता’ में आइए काव्यांजलि स्वरूप पढ़ते हैं उनकी यही कविता।
‘बेचारे’ हत्यारे!
सुनो, हत्यारो !
तुमने ग़लत आदमी को मार दिया है
डॉ. एमएम कलबुर्गी तो ज़िंदा हैं
सच्ची ! मैंने उन्हें देखा है दिल्ली के जंतर-मंतर पर
इसी तरह गोविंद पानसरे और नरेंद्र दाभोलकर को लेकर भी
तुम्हे धोखा हुआ है
वे दोनों भी जीवित हैं / मस्त हैं
मैंने उन्हें कलबुर्गी के साथ ही देखा है
तीनों हाथों में हाथ डाले गपिया रहे थे
हँस रहे थे, ठहाके लगा रहे थे
क्या, इनकी हत्याओं से पहले
तुम्हारे आकाओं ने तुम्हे इनकी तस्वीरें नहीं दिखाईं थी?
हाँ, तुम्हारे आकाओं ने…
मैं जानता हूं कि
तुम तो निमित्त मात्र हो
भाड़े के टट्टू
किराये के हत्यारे
सुपारी किलर
शार्प शूटर…
तुम्हे पूरा पेमेंट तो मिल गया न…
नहीं !
तुम्हे कुछ पेमेंट तो एडवांस में ले ही लेना चाहिए था
अब वे तुम्हे कुछ भी नहीं देने वाले
क्या कहूँ, तुमने काम भी तो पूरा नहीं किया
तुम्हे पता है कि जिसे तुमने धमकाया था
वो तमिल लेखक पेरुमल मुरगन…
वो भी एकदम झुट्ठा निकला
उसने भले ही “अपने लेखक की मृत्यु का ऐलान” कर दिया
लेकिन आज भी लिख रहा है धड़ाधड़
मेरे क़लम से… मेरे जैसे न जाने कितनों के क़लम से
मुझे तो तुम पर तरस आ रहा है
हमदर्दी है तुमसे
क्या कहा ?
तुम किराये के हत्यारे नहीं हो
फिर !
क्या? राष्ट्रवादी हो !
देश-धर्म के लिए लड़ रहे हो !
कौन से धर्म के लिए ?
जिसमें तर्क की कोई जगह न हो !
विचार का कोई स्थान न हो !
कौन से देश के लिए ?
“हिन्दू राष्ट्र” के लिए !
अरे कुछ तो अपने पिताओं से, बड़े भाइयों से पूछ लेते
सन् (उन्नीस सौ ) नब्बे-बानवे में भी यही हुआ था
ऐसे ही लाखों नौजवान धोखा खा गए थे
मंदिर के नाम पर
उनसे तो शिला पूजन
और पत्थर तराशने के नाम पर
पैसे भी ऐंठ लिए गए थे
जिनका आज तक हिसाब नहीं दिया गया
क्या कहा, तुम्हारे पिता गुज़र गए
ओह ! अफ़सोस हुआ
क्या ‘कारसेवा ‘ करते हुए ?
बाबरी मस्जिद का बुर्ज गिराते हुए ?
नहीं, बाद में !
उसी नफ़रत और जुनून में !
ग़रीबी और बीमारी में !
पर मैंने तो उनका नाम तक नहीं सुना
किसी शोक का ऐलान नहीं हुआ कभी
एक दिन तुम भी गुज़र जाओगे
ऐसे ही, उन्हीं की तरह गुमनाम
सच्ची…
सन् 2002 में तो तुम पैदा हो गए होगें !
उसी से कुछ सबक़ लेते
याद है गुजरात दंगों का वो “पोस्टर ब्यॉय ”
नहीं, हाथ जोड़कर रहम माँगने वाला नहीं
वो दोनों हाथ हवा में उठाए हुए
एक हाथ में तलवार
और दूसरे हाथ की मुट्ठी ताने हुए
“अशोक मोची ”
उसी से पूछ लेते
उस नफ़रत और जुनून की असलियत
अपने आकाओं का सच
नहीं, तुम्हे इस सबसे कुछ नहीं लेना-देना
मेरी बात नहीं सुननी
क्या तुम्हे ये बताया गया कि
ये तीनों बूढ़े (कलबुर्गी, पानसरे और दाभोलकर )
विधर्मी हैं / नास्तिक हैं
जो तर्क की बात करके लोगों को
भड़का रहे हैं
अंधविश्वास के ख़िलाफ़ खड़ा कर रहे हैं
इस देश को अंधेरे से बाहर लाना चाहते हैं
बिल्कुल वैसे ही
जैसे बांग्लादेश और पाकिस्तान में
काफ़िर कहकर मार दिए गए
तमाम नौजवान ब्लॉगर
ईश निंदा के जुर्म में
क़त्ल कर दिए गए
तमाम सोचने-समझने वाले
देश निकाला दे दिया गया
तसलीमा नसरीन को
तो अब तो समझ जाओ
कि ये सब एक ही हैं
तुम्हारे आका-उनके आका
और इन आकाओं के “काका ”
बस नाम अलग-अलग हैं
शह और मात के खेल में
तुम तो महज़ एक मोहरे हो
पैदल सिपाही
तुम कहोगे
मेरा दिमाग़ फिर गया है
मैं ऊल-जलूल बक रहा हूँ
आयँ-बाएँ-शाएँ
क्या तुम्हे अब भी यक़ीन नहीं
कि उनके लिए
तुम एक व्यक्ति नहीं
महज़ एक सैंपल हो
जिसपर किए जा रहे हैं तरह-तरह के प्रयोग
अपने बारे में यक़ीन करो
या न करो
लेकिन मेरी इस बात पर यक़ीन ज़रूर करो
कि कलबुर्गी आज भी ज़िंदा हैं
अच्छा तुम बताओ कि
कहीं तुम्हे नकली बंदूक तो नहीं थमा गई थी !
तुम्हारी गोली तो असली थी न !
अच्छा, क्या गति रही होगी तुम्हारी गोली की ?
तुम्हारी गोली उनके सिर से किस रफ़्तार से टकराई होगी ?
यूं ही पूछ रहा हूँ
क्योंकि तुम्हारी गोली से भी
लाख गुना तेज़ी फैल गए हैं
उनके विचार देशभर में
बिल्कुल उसी तरह जैसे भगत सिंह कहा करते थे-
“हवा में रहेगी मेरे ख़्याल की बिजली
ये मुश्ते-ख़ाक है फ़ानी, रहे न रहे ”
सच, कल तक मैं भी नहीं जानता था कलबुर्गी को
मैंने नाम तक नहीं सुना था दाभोलकर और पानसरे का
और आज में गले में तख़्ती डालकर
खुलेआम सड़कों पर ये कहता घूम रहा हूँ कि
मैं भी कलबुर्गी, मैं भी दाभोलकर, मैं भी पानसरे
और मैं ही नहीं
मेरे जैसे लाखों-करोड़ों नौजवान, महिलाएं, बुजुर्ग
एक छोर से दूसरे छोर
एक शहर से दूसरे शहर
गली-मोहल्लों, गाँव
चारों दिशाओं में
यही ऐलान करते फिर रहे हैं कि
हम भी कलबुर्गी, हम भी दाभोलकर, हम भी पानसरे
तुम कैसे मारोगे इतने सारे लोगों को
कैसे रोक पाओगे
तर्क और विचार
प्रेम का प्रसार
पूछकर आओ अपने आकाओं से
आका नहीं कहते, तो जो भी कहते हो
सर / साहेब / जनाब / गुरुजी…
पूछकर आओ कि क्या करें इन सिरफिरों का
ये तो चुप होते ही नहीं
कैसे मारें
जिस्म को तो मार सकते हैं
आवाज़ को कैसे क़त्ल करें ?
कैसे करें विचार की हत्या !
कैसे दें देश निकाला !
क्या, अभी वे बहुत व्यस्त हैं
फ़ोन भी नहीं मिल रहा
उस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं
देखना वे कभी नहीं मिलेंगे तुमसे
चुनाव के अलावा
लेकिन हम मिलेंगे
अपने लेखकों से, कवियों से
कहानीकारों से, कलाकारों से, पत्रकारों से
विद्वानों से, विज्ञानियों से
बार-बार
खुलेआम
सड़कों पर
चौराहों पर
चायख़ानों में
कॉफी हाउस में
सभाओं में, समारोह में
ख़्वाबों में
किताबों में
तुम कैसे मारोगे-कितनों को मारोगे
तुम्हारे पास इतनी बंदूकें नहीं
जितने हमारे पास क़लम हैं
– मुकुल सरल
(05/09/2015)