भीमा कोरेगाँव-एलगार परिषद मामले में दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी के प्राध्यापक हैनी बाबू मुसलियारवेट्टिल थारायिल की गिरफ़्तारी दुर्भाग्यपूर्ण है। इसे सजग और मुखर बुद्धिजीवियों को चुप कराने के विराट अभियान की ताज़ा कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए। हैनी बाबू दलितों और पिछड़े वर्गों के संवैधानिक अधिकारों के संघर्ष में सक्रिय एक प्रखर बुद्धिजीवी हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में दाख़िले से लेकर नियुक्तियों तक में व्याप्त सवर्णवाद को चुनौती देने में उनकी अहम भूमिका रही है। मानवाधिकारों की लड़ाई का भी वे एक सुपरिचित चेहरा हैं। आश्चर्य नहीं कि भीमा कोरेगाँव-एलगार परिषद के जिस मामले में दो-दो साल से मानवाधिकार-कर्मियों को जेल में रखकर चार्जशीट तक दाख़िल नहीं की गई है, उसी गढंत मामले में हैनी बाबू की भी गिरफ़्तारी हुई। अब यह बहुत साफ़ हो चला है कि इस मामले में फँसाए गये लेखकों-मानवाधिकारकर्मियों को ज़मानत न देकर उन्हें जेलों में जिन हालात में रखा जा रहा है, वह जुर्म साबित किए बगैर सज़ा देने का एक निंदनीय उदाहरण है।
हम सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन प्रो. हैनी बाबू की गिरफ़्तारी पर अपना क्षोभ प्रकट करते हुए उसकी निंदा करते हैं और हैनी बाबू समेत भीमा कोरेगाँव-एल्गार परिषद मामले में गिरफ़्तार किये गए सभी बुद्धिजीवियों-मानवाधिकारकर्मि
जनवादी लेखक संघ | प्रगतिशील लेखक संघ | जन संस्कृति मंच | दलित लेखक संघ | न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव | इप्टा | प्रतिरोध का सिनेमा | संगवारी