The following Urdu Qita and English free verse were inspired by a first person account of the author’s driver, who fled from Gurgaon to his village in Sultanpur district of Uttar Pradesh, covering a distance of over 600 kms on a friend’s bike in the aftermath of the lockdown proclaimed on March 24.
एक अनकही दास्ताँ
लक़ीरें दर्द की उनकी जबीं पे ज़ाहिर हैं
पर इबारत निहाँ है, पढ़ी नहीं जाती।
क़ह्र के दौर में बेज़ार से हैं अह्ले-सुख़न
आपबीती भी अब कही नहीं जाती।
उनके नालों पे जड़ दिए ताले
बेहिसी यह सही नहीं जाती।
ज़ीस्त में आ बसी है वीरानी
सब गए, बस, यही नहीं जाती।
An Untold Tale
The lines of pain are visible on their foreheads
But the text is in a script hard to decipher.
In the time of divine wrath the poets seem indolent
Unwilling even to narrate the tales of their suffering.
Their plaintive cries have been locked down
Oh! This apathy is hard to bear.
A pall of desolation has settled upon one’s existence
When everyone has gone, why hasn’t this feeling?
On NH 24
A returning migrant worker
That’s who I am
A faceless nameless drop
In the sea of humanity
Receding defeated
At low tide
Redundant
That’s what I am
Needed no longer
By the city
That ran on my ill paid labour
The city
Corralling itself
In the lockdown suddenly ordained
Like a bolt from the blue
Preceded by a faint rumble
Disgorged
I have been like half-digested food
By a fear stricken city
The city of my dreams
Source of precarious sustenance
To me and to my family
Eking out an existence
In a distant village
That has little to offer
By way of a future
To its half-educated youth
Stay put
The order came
Follow the guidelines
To defeat the virus
Wash your hands
With soap and warm water
Every now and then
Observe social distancing
Work from home
A tall order
For people like me
Living in crowded hovels
Lacking basic amenities
Compelled to leave for work
At the crack of dawn
To keep the wolf from the door
The lucky ones amongst us
Have the assurance of pay without work
But for the daily wager
The self-employed
There is nothing
Only despair
I had no option
I had to flee
Return to the village I had left
For a better future
But the village is too far
There are no trains or buses
No special flights
To take me home
That was a joke
Flights are for students
And hi-tech workers
Stranded in Wuhan
Milan and Isfahan
Not for the hapless
Migrant workers
Stranded in their homeland
The lucky ones amongst us
Have their bikes
But for the rest
It’s a long trudge home
Embarked
I have on this voyage
Ill equipped yet undaunted
A tiny paper boat
On a choppy sea
Unsure I am
Of my bearings
Soldiering on
With leaden feet
Somewhere on NH 24
Bearing my scant belongings
On an aching back
Spurred on
By the fire raging in my belly
Gnawing at my entrails
NH 24
Highway that used to pulsate
With the roar of incessant traffic
Day and night
Enveloped today in deathly silence
A silence punctuated
By toddlers’ whimpers
Wails of babies
Impatient to be nursed
But their mothers
Strangely indifferent
Unsure I am
Of what I may encounter
At the next police barrier
Will it be
A scowling cop
Brandishing his baton
Threatening to consign me
To a detention camp
In an alien land
For my transgression
Deemed a crime against humanity?
Will it be
An overzealous health worker
Armed with a hose pipe
Asking me kindly
To shut my eyes
Before dousing me with bleach
To cleanse me of the dreaded virus?
Will it be
A kindly soul
Who will offer me a food packet
A bottle of water
Hail a passing truck
Command it to give me a ride
To the next police barrier?
Unsure I am
Of my health status
Has the stranger
Who kept me company
For a part of the trek
Or the Good Samaritan
Who gave me food
To save my life
Given me the contagion
That will claim my life?
Apparently healthy
And asymptomatic
Will I carry the virus
To my home and village
Defenceless
Against this stealthy enemy?
A sliver of hope
Irrational recalcitrant hope
Stirs yet in my breast
Nudging me to carry on
Undeterred
By the travails of the road
Homeward
To the security of a shared want
They say God is merciful
He looks after everyone
Migrant workers included
Maybe I will get there
Safe and sound
Maybe not
एन एच 24 : एक सफ़रनामा
लौटता हुआ प्रवासी मज़दूर
यही है मेरी पहचान!
पराजित मानवता के महासमुद्र में
बिन चेहरे की एक गुमनाम बूँद!
ज्वार के उफान के
चुक जाने के बाद
तेज़ी से उतरते
समंदर की बल खाती
गिरती-पड़ती लहरों में
खोई थकी-हारी बूँद!
बेकार
यही तो हूँ मैं!
जिसकी अब ज़रूरत नहीं
मेरे उस शहर को
ख़ून पसीने से
चलता था जो मेरे!
तालाबंदी के फ़रमान के बाद
क़िलेबंद होता हुआ शहर!
एक हल्का सा इशारा भर
फिर दिल दहलाने वाला फ़रमान
बिजली गिर जाए जैसे
नामालूम गड़गड़ाहट के बाद!
उगल दिया है
डर के मारे शहर ने मुझे
अधपचे खाने की तरह!
मेरे सपनों का शहर
अनिश्चित आजीविका का आधार
जिसके सहारे था मेरा घर-परिवार
दूर दराज़ के उस गाँव में
जो कुछ नहीं दे सकता था
अपने अधपढ़ जवानों को
भविष्य का सपना तक नहीं!
जहाँ हो वहीँ ठहरो!
हुक्म जारी हुआ
हिदायतों पर अमल करो
हमने बनाई हैं जो
महामारी से बचने को!
हाथ धोते रहो
साबुन और गर्म पानी से
दूरी रखो परस्पर
घर से ही काम करो!
हुक्म पर अमल करते भी कैसे
लाखों जो मज़दूर हैं मेरे जैसे
भीड़ भरी मलिन बस्तियों में
सुविधा रहित दरबों से
तड़के ही निकल पड़ते जो
रोज़ी रोटी कमाने को?
हैं ऐसे भी क़िस्मत वाले
भरोसा है जिनको
नहीं कटेगी उनकी पगार
पर हम दिहाड़ी मज़दूर
रेहड़ीवाले रिक्शेवाले
क्या है हमारे पास
निराशा ही निराशा!
चारा ही क्या था?
वापस जाना था मुझे
फिर उसी गांव में
छोड़ आया था जिसे
बेहतर कल की तलाश में!
पर बहुत दूर है गांव
न कोई बस न रेलगाड़ी
न ही विशेष उड़ान
पहुँचा दे जो मुझे
मेरे अभागे गांव!
यह तो ठिठोली थी!
विशेष उड़ान तो भेजते हैं
होनहार छात्रों के लिए
हाईटैक कर्मियों के लिए
फँस गए हैं जो बेचारे
वुहान में, मिलान में
या फिर इस्फ़हान में!
हम तो हैं लाचार
प्रवासी मज़दूरभर
फँस गए हैं जो
अपने हिन्दुस्तान में!
हैं ऐसे भी क़िस्मत वाले
जिनके पास बाइक है
अपनी या दोस्त की
पर बाक़ी सबके लिए
दो पैरों का सहारा है
और एक अंतहीन सफ़र!
निकल पड़ा हूँ मैं
इस अभियान पर
नहीं कोई उपकरण
अपने बलबूते पर
उफनते समंदर में ज्यों
कागज़ की कश्ती!
जानता नहीं
कहाँ हूँ इस वक़्त?
कितनी दूर मंज़िल है?
चलता जाता हूँ मगर
पथराये क़दमों से
एन एच 24 पर कहीं!
दुखती पीठ पर लादे
अपना सारा सामान
पेट में धधकती आग
कचोटती है अंतड़ियाँ
थमने नहीं देती है
मेरे भारी क़दम!
एन एच 24 का राजमार्ग
धड़कता था जो कल तक
यातायात के गर्जन से
दिन-रात रात-दिन
लिपटा हुआ है आज
कफ़न में सन्नाटे के
चीर जातीं हैं जिसे
भूखे दुधमुहों की चीख़ें
ठुमकते बच्चों की खिन-खिन!
पहुँचती ही नहीं जो
माओं के कानों तक
जान कर भी जो
बन रही हैं अनजान!
जानता नहीं
क्या होने वाला है
अगले पुलिस नाके पर!
पाला पड़ेगा क्या
डण्डा घुमाते किसी
बिगड़ैल दरोगा से
ठूंस देगा जो मुझे
डिटेंशन सेंटर में
शंकित और भयभीत
अनजानों के बीच?
दोषी हूँ पलायन का
मुजरिम हूँ आख़िर
इंसानियत के ख़िलाफ़
संगीन जुर्म का!
या फिर कोई
होज़पाइप से लैस
उत्साही स्वास्थ्यकर्मी
दयालुता से द्रवित
होकर कहेगा मुझे
आँखों को बंद रखो!
और तर कर देगा
ब्लीच के सोल्युशन से?
वायरस से सबको
बचाना जो है हमको!
या फिर कोई
खुदा का फ़रिश्ता ही
लेकर खड़ा होगा
खाने का पैकेट
पानी की बोतल
पूरब को जाते
किसी ट्रक को रोकेगा
बोलेगा, छोड़ देना
अगले नाके तक?
जानता नहीं
स्वस्थ हूँ या संक्रमित!
कहीं ऐसा तो नहीं
वो अजनबी हमसफ़र
या फिर वो फ़रिश्ता
जिसने बचाई थी
भूख से मेरी जान
अनजाने में मुझे
देगया वो बीमारी
लेगी जो मेरे प्राण?
कहीं ऐसा तो नहीं
देखने में स्वस्थ और लक्षण रहित
वाहक इस अभिशाप का
अपने ही घर और गांव के विनाश का
कारण बनूँगा मैं?
ढीठ और तर्कहीन
आशा की एक किरण
फिर उगती है उर में
प्रेरित करती मुझे
चरैवेति! चरैवेति!
पथ की बाधाओं से
अनिरुद्ध अपराजित
बढ़े चलो! चले चलो!
गांव की अमराई की
छाँव जो बुलाती है!
अपने जनों के बीच
आधे पेट सोने में
कितना सुकून है!
कैसी सुरक्षा है!
लोग कहते हैं
भगवान है दयावान
सब पर उसकी नज़र
प्रवासी मज़दूरों पर
शायद हो मेहरबान!
क्या पता पहुँच जाऊं
मंज़िले मक़सूद पर
महफ़ूज़ तन्दरुस्त!
शायद न पहुँच पाऊं?