यह लेख 2019 के आम चुनावों की पूर्वसंध्या पर प्रकाशित हुआ था। लेखक ने साक्षी महाराज के एक बयान का हवाला देते हुए बाबासाहब अम्बेडकर की तीन चेतावनियों को याद किया था और यह रेखांकित किया था कि आने वाले चुनावों में कौन-सी चीज़ें दाँव पर लगी हैं। आज, नतीजों के कई महीने बाद इस लेख को दुबारा देखना दिलचस्प है।
निम्नलिखित है वक़्त की आवाज़ श्रृंखला की पहली किताब, जाति से जंग से एक अंश।
तुलना बड़ी विचित्र है, किन्तु विडंबनाओं के दौर में संभावनाओं के विकल्प सीमित हो जाना लाज़मी हैं।
2019 के आम चुनावों को लेकर साक्षी महाराज का ‘ये चुनाव देश के आख़िरी चुनाव होंगे’ का आप्तवचन पढ़ा तो बाबासाहब अम्बेडकर की याद आई। ख़ास तौर से उनकी वे तीन चेतावनियाँ याद आईं, जो उन्होंने 25 नवंबर 1949 को भारतीय संविधान का फ़ाइनल ड्राफ्ट राष्ट्र को सौंपते वक़्त अपने भाषण में दी थीं। उनकी ग़ज़ब की दूरदर्शिता और उनके मुल्क की असाधारण सामाजिक जड़ता, दोनों पर आश्चर्य हुआ।
डॉ. बी. आर. अम्बेडकर ने अपने उस – अब तक कालजयी साबित हुए – भाषण में कहा था कि ‘संविधान कितना भी अच्छा बना लें, इसे लागू करने वाले अच्छे नहीं होंगे तो यह भी बुरा साबित हो जाएगा।’ इस बात की तो संभवत: उन्होंने कल्पना तक नहीं की होगी कि ऐसे भी दिन आएँगे जब संविधान लागू करने का ज़िम्मा ही उन लोगों के हाथों में चला जाएगा, जो मूलत: इस संविधान के ही ख़िलाफ़ होंगे। जो सैकड़ों वर्षों के सुधार आंदोलनों और जागरणों की उपलब्धि से हासिल सामाजिक चेतना को दफ़नाकर, उस पर मनुस्मृति की प्राणप्रतिष्ठा के लिए कमर कसे होंगे।
संवैधानिक लोकतंत्र को बचाने और तानाशाही से बचने के लिए बाबासाहब ने इसी भाषण में तीन चेतावनियाँ भी दी थीं। इनमें से एक चेतावनी आर्थिक और सामाजिक उद्देश्यों को हासिल करने के लिए संवैधानिक तरीकों पर ही चलने से संबंधित थी। इसकी जो गति आज असंवैधानिक गिरोहों और उनके गुंडा दस्तों ने बना रखी है, वह अयोध्या से कलबुर्गी होते हुए वाया अख़लाक़-गुरुग्राम तक इतनी ताज़ा, सतत और निरंतर है कि उसकी याद दिलाने की ज़रूरत नहीं। साक्षी महाराज का कथन इसी का अगला चरण है। यह जब भी हो, अगर उनकी चली तो होगा ज़रूर, क्योंकि देशज हिटलरों की नूतन और प्राचीन दोनों ‘मीन काम्फ’ में, लोकतंत्र और संविधान वाहियात चीज़ें क़रार दी गई हैं।
उनकी दूसरी चेतावनी, और ज़्यादा सीधी और साफ़ थी। उन्होंने कहा था कि ‘अपनी शक्तियाँ किसी व्यक्ति – भले वह कितना ही महान क्यों न हो – के चरणों में रख देना या उसे इतनी ताक़त दे देना कि वह संविधान को ही पलट दे “संविधान और लोकतंत्र” के लिए ख़तरनाक स्थिति है।’ इसे और साफ़ करते हुए वे बोले थे कि ‘राजनीति में भक्ति या व्यक्ति पूजा संविधान के पतन और नतीजे में तानाशाही का सुनिश्चित रास्ता है।’ 1975 से 77 के बीच आतंरिक आपातकाल भुगत चुका देश पिछले पाँच वर्षों से जिस भक्त-काल और एकल पद पादशाही को अपनी नंगी आँखों से देख रहा है, उसे और अधिक व्याख्या की ज़रूरत नहीं है।
ये कहाँ आ गए हम अंग्रेज़ों के भेदियों और बर्बरता के भेड़ियों के साथ सह-अस्तित्व करते-करते?
सवाल इससे आगे का, क्यों और कैसे आ गए, का भी है। इसके रूपों को अम्बेडकर की ऊपर लिखी चेतावनी व्यक्त करती है तो इसके सार की व्याख्या उन्होंने इसी भाषण में दी गई अपनी तीसरी और बुनियादी चेतावनी में की थी। उन्होंने कहा था कि ‘हमने राजनीतिक लोकतंत्र तो क़ायम कर लिया – मगर हमारा समाज लोकतांत्रि क नहीं है। भारतीय सामाजिक ढाँचे में दो बातें अनुपस्थित हैं, एक स्वतंत्रता (लिबर्टी), दूसरी भाईचारा- बहनापा (फेटर्निटी)।’ उन्होंने चेताया था कि ‘यदि यथाशीघ्र सामाजिक लोकतंत्र क़ायम नहीं हुआ तो राजनीतिक लोकतंत्र भी सलामत नहीं रहेगा।’
आज बाबासाहब की यह आशंका अपनी पूरी भयावहता के साथ सामने है। सामाजिक लोकतंत्र के प्रति जन्मजात वैर रखने वाले अँधेरे के पुजारी, राजनीतिक लोकतंत्र का भोग लगाने को व्याकुल, आतुर दिखाई दे रहे हैं।